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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / लाॅली पाॅप

लाॅली पाॅप

‘मेरी बहिन को प्रवेश नहीं मिल सका जबकि उसकी मित्र जिसके उससे दो अंक कम थे उसे प्रवेश मिल गया, क्यों?’ गुजरात के अहमदाबाद शहर में पटेल समुदाय की एकत्रित पाँच लाख की भीड़ के सम्मुख यह प्रश्न एक 22 वर्ष के नौजवान ने उठाया, जिसका नाम है हार्दिक पटेल। ऐसा समझा जाता है कि हार्दिक पटेल रातों रात बड़ा नेता बन गया। पर बात यह नहीं है। वर्षों से पटेलों के गावों व समुदायों में यह बात चल पड़ी थी कि जब गुर्जर व अन्य सक्षम समुदायों को आरक्षण मिल सकता है तो उनको क्यों नहीं? अतः उन्होंने सीधी माँग रख दी कि या तो उन्हें भी आरक्षण मिले अथवा किसी को भी नहीं। यह माँग दिलचस्प तो है ही, इसके अन्तर्निहित मायने भी हैं। यह एक प्रकार से आरक्षण की सम्पूर्ण अवधारणा पर प्रहार करते हुए इस सिस्टम पर पुनर्विचार की भी माँग है। नेता हैरान हैं कि गुजरात की सर्वाधिक सशक्त विरादरी जो सामाजिक तथा आर्थिक रूप से उन्नत व सक्षम है उनको आरक्षण कैसे दिया जा सकता है? लाखों की संख्या में जुटी भीड़ से हतप्रभ नेता इस मसले का क्या हल निकालेंगे यह भविष्य ही बताएगा।
वस्तुत; संविधान निर्माताओं ने इस व्यवस्था को केवल तात्कालिक उपचार के तौर पर स्वीकार किया था अतएव संविधान सभा में विरोध के बाबजूद इसे केवल 10 वर्ष के लिए लागू किया था परन्तु 10 वर्ष बीतते-बीतते राज नेताओं की समझ में यह अच्छी प्रकार आ गया कि दबे कुचले वर्ग की स्थिति सुधरे या न सुधरे, वे इस व्यवस्था से अपना वोट बैंक बना सकेंगे और यही कारण रहा कि जब सर्वाेच्च न्यायालय ने 1951 में मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चम्पाकम दोराईरंजन के मुकदमे में जाति आधारित आरक्षण की व्यवस्था को संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन मान इसे रद्द करने का निर्णय दिया तो सरकार ने प्रथम संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 15(4) अंतस्थापित कर सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय को ही निरस्त कर दिया। इस प्रकार से यह भी एक इतिहास बन गया की स्वतंत्र भारत के संविधान में प्रथम संशोधन इस देश की सर्वाेच्च न्यायपालिका के निर्णय को निरस्त करने हेतु किया गया।
इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि मध्य काल में अपने को उच्च जाति का समझने वालों ने जिस तरह का अपमान और व्यवहार निम्न जातियों के साथ किया वह अमानवीय था, उसकी जितनी भत्र्सना की जाय वह कम है। यह भी ठीक है कि इन दबी कुचली जातियों में आत्मविश्वास के संचरण तथा उन्हें उस स्तर तक ‘अपलिफ्ट’ करने के लिए कि वे मुख्य धारा में आ सकें, कुछ विशेष करने की आवश्यकता भी थी। अब उन जातियों को सहारा देने के लिए विशेष पैकेज बनाकर हर प्रकार से आर्थिक सहायता कर शिक्षणालय व आवास निशुल्क प्रदान कर, अतिरिक्त अध्ययन की विशेष निशुल्क सुविधा इत्यादि द्वारा उन्हें अन्य जातियों के समक्ष लाया जाय अथवा योग्यता पर ध्यान न देकर उन्हें योग्य पर अधिमान देकर नौकरियों, शिक्षणालयों में आरक्षण दे दिया जाय। हमारी दृष्टि में प्रथम मार्ग प्राकृतिक था जबकि दूसरा रास्ता प्रारम्भ में असरदायक लगने के बाबजूद अंततोगत्वा समाज के लिए हानिकारक ही है। इससे एक न एक दिन आरक्षण प्राप्त एवं आरक्षण से वंचितों के मध्य वर्गसंघर्ष को जन्म देने की संभावना प्रत्यक्ष होते दीख रही है। दूसरी ओर योग्यता के तिरस्कार से योग्यों में प्रस्फुटित कुंठा से उत्प्रेरित पलायन की प्रवृत्ति और परिणामस्वरूप ‘ब्रेन ड्रेन’ की राष्ट्रीय हानि। तीसरे आरक्षण की सुविधा के लाभ से सुनिश्चित सुनहरे भविष्य की गारंटी के कारण इस सुविधा भोगियों के मध्य संघर्ष एवं पुरुषार्थपूर्वक योग्यतावर्धन की इच्छा का ही समाप्त हो जाना इस कारण से मुख्य धारा से सदैव कटे रहने की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का स्थिर हो जाना।
संविधान निर्माताओं ने इस व्यवस्था की कृत्तिमता व इसके दूरगामी दुष्परिणामों को ध्यान में रख कर ही इसे 10 वर्ष के लिए लागू किया था कि 10 वर्ष पश्चात् इसकी समीक्षा की जा सके तथा लक्ष्य प्राप्ति के पश्चात् इसे समाप्त कर दिया जाय, अन्यथा जातीय तथा मजहबी आधार पर, अवसरों की समानता को लंघित करने वाली इस व्यवस्था को सुदीर्घ तक लागू करना संविधान निर्माताओं का आशय नहीं था, यह हम निम्न अवतरणों में देख सकते हैं।
सरदार बल्लभ भाई पटेल का यह सुनिश्चित मत था कि प्रजातंत्र के प्राकृतिक उन्नयन की दशा में सामजिक न्याय भी स्वतः प्रतिष्ठापित हो जाएगा, इसके लिए राजनीतिक हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। उनका प्रश्न था कि दास प्रथा कैसे समाप्त हुई? क्या इसके लिए कोई विशेष नियम बनाए गए- नहीं। इसका उन्मूलन विश्वभर में राष्ट्रों की जागृत चेतना का परिणाम था। उनका विश्वास था कि जिस प्रकार अन्य सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन हुआ है प्रजातंत्र के चलते भारतीय समाज में जात्याधारित विभेद भी निश्चित समाप्त हो जाएगा।
लाॅली पाॅपमहावीर त्यागी का कहना था कि- ‘अनुसूचित जाति एक कल्पित नाम है। हाँ कुछ जातियाँ हैं जो दबी हुयी हैं, कुछ हैं जो गरीब हैं और कुछ हैं जो अस्पृश्य हैं। उनका कहना था कि डाॅ. अंबेडकर अनुसूचित जाति में कैसे आ सकते हैं, क्या वे अनपढ़ हैं, क्या वे अस्पृश्य हैं, क्या उनके अन्दर अन्य कोई कमी है? मैं जात्याधारित अल्पसंख्यकवाद में विश्वास नहीं करता, इसका आधार केवल आर्थिक हो सकता है।’
डाॅ. पी.एस. देशमुख का कथन था कि- ‘हमारे देश में लाखों करोड़ों ऐसे लोग हैं जिनकी समस्याएँ और बाधाएँ उन लोगों से भिन्न नहीं हैं जिन्हें अनुसूचित जाति में परिगणित किया गया है। उनके लिए भी प्रावधान होना चाहिए।’ संविधान सभा में आरक्षण का प्रस्ताव अन्ततः स्वीकार किया क्योंकि यह बात भी प्रत्यक्ष थी कि निम्नवर्ण कही जाने वाली जातियों पर उच्च जात्याभिमानियों ने अमानुषिक अत्याचार किये थे और उन दबी कुचली जातियों को विशेष प्रावधान से उन्नत करना आवश्यक था। सबसे बड़ी बात जो इस प्रावधान पर सहमति बना पायी, वह यह थी कि इस व्यवथा को केवल 10 वर्ष के लिए अस्थायी रूप से लागू किया जा रहा था।
संविधान सभा में अल्पसंख्यकों के आरक्षण का मुद्दा भी उठा जिसे पूरी तौर पर नकार दिया गया। गोविन्द बल्लभ पन्त ने कहा- ‘आपकी सुरक्षा इसमें निहित है कि आप अपने आप को सम्पूर्णता का अविभाज्य हिस्सा बनाएँ जिससे वास्तविक सही राष्ट्र का निर्माण होता है।’
सरदार पटेल का कहना था कि- ‘अगर अब भी वही प्रक्रिया दोहराई जाती है जिसकी वजह से देश का विभाजन हुआ था तो मेरा कहना है कि ऐसे लोगों की जगह पाकिस्तान है, यहाँ नहीं। यहाँ हम एक राष्ट्र का निर्माण कर रहे हैं और हम ‘एक राष्ट्र’ की नींव रख रहे हैं और जो पुनः विभाजन के निमित्त से विघटन के बीज बोना चाहते हैं उनके लिए यहाँ कोई स्थान नहीं है।’ जवाहर लाल नेहरु ने भी मजहब के आधार पर हिस्सा निर्धारित करने की व्यवस्था को बलपूर्वक नकार दिया और कहा कि- ‘इस तरह की व्यवस्था में कुछ दम तब तो था जब विदेशी शासन था। यह व्यवस्था किसी निरंकुश को मजहबी खाई पैदा कर एक को दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल का अवसर देगी।’
ताजमुल हुसैन का मत था कि भारत राज्य पंथ निरपेक्ष होगा और किसी भी नागरिक के मजहब/धर्म से सम्बन्धित मामलों के प्रति पूर्णतः उदासीन होगा अतएव इसका कोई औचित्य नहीं है।
संयुक्त प्रांत से मुस्लिम सदस्य बेगम अजीज रसूल ने कहा कि- ‘उनके मत में आरक्षण अपने आप में विनष्ट करने वाला आत्मघाती हथियार है जो अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सदैव लिए अलग कर देगा।’
ताजमुल हुसैन ने तो यहाँ तक कहा कि- ‘अल्पसंख्यक शब्द अंग्रेजों की देन है। अब अंग्रेज चले गए तो यह अल्पसंख्यक शब्द भी उनके साथ चला जाना चाहिए। अपने शब्दकोष में से अल्पसंख्यक शब्द निकाल दीजिये। भारत में कोई अल्पसंख्यक नहीं है। मैं कहना चाहता हूँ कि कोई भी ऐसा सुसभ्य देश नहीं है जहाँ संसदीय प्रकार का प्रजातंत्र सुस्थापित हो, वहा सीटों का आरक्षण हो। हम राष्ट्र में विलय होना चाहते हैं।’
इस प्रकार 25 तथा 26 मई 1949 को संविधान सभा में हुए इस दो दिवसीय विचार विमर्श ने स्वतन्त्र भारत के इतिहास में अत्यन्त महत्वपूर्ण जगह बनाई है जब हमारे संविधान के निर्माताओं ने अल्पसंख्यकों के लिए किसी भी प्रकार के आरक्षण को नकार दिया, यहाँ तक कि संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों में से अधिकांश ने स्पष्ट कहा कि अल्पसंख्यकों के हित में ही सब प्रकार के आरक्षण समाप्त होने चाहिए। सामजिक रूप से पिछड़े लोगों के उत्थान के लिए जात्याधारित आरक्षण भी अत्यंत संकोच के बाद केवल 10 वर्ष के लिए लागू किया गया।
शीघ्र ही यह मुद्दा वोट बैंक की चाशनी बन गया जिसका रस सभी दल चखने को लालायित होते रहे हैं। वी.पी सिंह ने 1980 से ठन्डे बस्ते में पड़ी मंडल कमीशन की रिपोर्ट को सरकारी नौकरियों में लागू कर आरक्षण का दायरा बढ़ाकर 49.5ः कर दिया। अब तो आरक्षण की गंगा ऐसी बही कि हर कोई दल इसमें डुबकी लगाने को समुत्सुक था। शिक्षा तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण के पश्चात 1979 में संविधान संशोधन के द्वारा अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जातियों के लिए पदोन्नति में भी आरक्षण कर दिया गया। इसमें एक तुर्रा यह भी था कि आरक्षण वाले सामान्य वर्ग में भी कम्पीट कर सकते हैं।
अब देश में स्थिति यह बन गयी कि जिन जातियों को सक्षम मानकर आरक्षण नहीं दिया गया उसमें अत्यन्त वंचित परिवार में पैदा बच्चा आरक्षण सुख से वंचित, हर स्तर पर संघर्ष करता हुआ, आरक्षित वर्ग के सहपाठी से काफी ज्यादा अंक लाने पर भी नौकरी से वंचित रहा तो वर्षों से एक पद पर कार्य कर रहे व्यक्ति का अधीनस्थ कुछ ही वर्षों में उसे लांघकर उसका अफसर बन गया। यह स्थित प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध तो थी ही ‘अवसर की समानता की संविधान प्रदत्त गारंटी’ की भी हवा निकाल रही थी। कितने आन्दोलन हुए, कितने नौनिहालों ने अपने को जला कर भस्म कर दिया, पर सब व्यर्थ। राजनेताओं में संवेदनशीलता तलाशना तोमृगमरीचिका के सामान है, हाँ इस देश की न्याय व्यवस्था ने इस असमानता के दर्द को समझा। पर हर उस निर्णय को जो राजनेताओं ने अपनी चुनावी संभावनाओं को विपरीत पाया, संविधान संशोधन के अस्त्र से प्रभावहीन कर दिया गया। माननीय उच्च न्यायालय ने 1963 में एम.आर.बालाजी बनाम मैसूर में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50ः निर्धारित कर दी। इस सीमा का अतिक्रमण करने का प्रयास किया जाता रहा है और किया जाता रहेगा इसमें संदेह नहीं।
प्रलोभन सबसे बड़ा आकर्षण सिद्ध हो रहा है। कल तक जो जातियाँ अपने को उच्च सिद्ध करने में न जाने क्या-क्या करतीं थीं, वे आज अपने को निम्न व पिछड़ा सिद्ध करने पर आमादा हैं। राजस्थान में गुर्जर समुदाय, हरियाणा में जाट समुदाय तथा अब गुजरात में पटेल समुदाय इसके ताजा उदाहरण हैं। माननीय उच्च न्यायालय ने 50ः की जो टोपी पहनायी थी अब उसमे उभार नजर आ रहे हैं। ये उभार और वृहद् होंगे आज की राजनीति तो यही संकेत कर रही है। राजस्थान में यह प्रतिषत 68ः हो गया है। जिसे सम्भवतः न्यायपालिका रद्द कर दे।
जब देश का संविधान लागू हुआ था उस समय 27.5ः को पिछड़ा माना गया था। आज ६५ वर्ष पश्चात् यह आरक्षण उनकी संख्या में कमी के बजाय बढ़ोतरी कर रहा है। यह उत्थान का कैसा उपाय है जो विपरीत दिशा में गति कर रहा है? एक बात और जो दबे, कुचले, पिछड़े थे क्या वास्तव में उनकी स्थिति में परिवर्तन आया है? शायद नहीं। यह सच है कि आरक्षण की सुविधा से ऐसे दलित समुदाय में से कुछ राजनेता बन गए, कुछ मंत्री बन गए, कुछ अफसर बन गए पर ऐसी उन्नति उस तबके के प्रत्येक सदस्य के हिस्से में आना तो दूर केवल कुछ परिवारों तक सीमित हो गयी। यही कारण है कि एक परिवार में तो आई.पी.एस., आई.ए.एस. भरे पड़े हैं तो दूसरी ओर बहुसंख्यक परिवार वहीं खड़े हैं जहाँ 65 वर्ष पूर्व थे। इसका मुख्य कारण है- एक परिवार के समृद्ध हो जाने पर उसे आरक्षण की परिधि से बाहर करने की कोई व्यवस्था नहीं है। यह संविधान निर्माताओं की भावना के विपरीत होने के साथ प्राकृतिक न्याय के भी विपरीत है। दो परिवारों की तुलना कीजिए। एक सवर्ण जाति का है दूसरा ओ.बी.सीसे है। दोनों की आर्थिक स्थिति समान। एक आरक्षण के घोड़े पर सवार होकर सरकारी नौकरी प्राप्त कर लेता है, दूसरा ऐसा नहीं कर पाता। पहले के घर में अब अर्थ-सुविधा होने से समृद्धि का प्रवेश होता है उसका सामथ्र्य बढ़ता है और आज के जमाने में स्तर का मूल्यांकन अर्थ से होता है अतः उसका दबदबा रहता है। दूसरा वहीं का वहीं रहता है। यहाँ तक तो ठीक भी हो सकता है। परन्तु दूसरी पीढ़ी की बारी आने पर भी पहला पुनः सुविधा प्राप्त करता है जबकि अब वह वंचित नहीं, समर्थ है और उसका सवर्ण पड़ोसी और वंचित हो गया परन्तु उसका बेटा भी पीछे रह गया। जबकि उसके बेटे ने पहिले के बेटे के मुकाबिले अंक भी ज्यादा प्राप्त किये थे। असंतोष इस अंतहीन क्रम तक प्राप्त आरक्षण से उपजता है।
आज कोई भी राजनीतिक दल मन में इसे अस्वभाविक तथा गलत समझते हुए भी इस व्यवस्था के विपरीत कुछ नहीं करेगा यह सुनिश्चित है बल्कि वह हर संभव प्रयास करेगा कि इस का विस्तार अन्य वर्गों तक कर अपना वोट बैंक मजबूत करें। इसी क्रम में आरक्षण के दायरे को सरकारी नौकरियों से बाहर ले जाकर प्राइवेट कालेजों को भी आरक्षण की जद में लाने के प्रयास हैं। 2005 में माननीय उच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पूर्ण पीठ ने सर्वसम्मति से पी.ए. इनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में व्यवस्था दी कि आरक्षण की व्यवस्था को अल्पसंख्यक अथवा गैर अल्पसंख्यक अननुदानित शिक्षण संस्थाओं में लागू नही किया जा सकता है जिसे 93वें संविधान संशोधन के द्वारा प्रभावहीन बना दिया गया।
इस संक्षिप्त विवरण से यह स्पष्ट है कि सीमित अवधि तक आरक्षण की व्यवस्था लागू कर वंचितों के उत्थान की सदाशयता बहुत पीछे छूट गयी है। वंचित आज भी वंचित हैं अतः यह भी नहीं कहा जा सकता है कि यह व्यवस्था अपने उद्देश्य को समग्र रूप में प्राप्त कर सकी है। पर इसका यथार्थ मूल्यांकन कोई भी पार्टी नहीं करेगी क्यांेकि उन्हें वंचितों की नहीं अपनी कुर्सी की चिंता है। अगर किसी ने जातिगत आरक्षण के पुनर्मूल्यांकन की क्षीण सी भी आषा पाल रखी हो तो बिहार में बी. जे. पी. के पराभव के बाद उस आषा को तुरन्त त्याग देना चाहिए। श्री मोहन भागवत के बयान को बिहार में बी. जे. पी. की हार के कारणों में से एक समझा जा रहा है।
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। वैदिक समरसता पूर्ण वर्णव्यवस्था के स्थान पर मानवीय मूल्यों को शर्मसार करने वाली जाति व्यवस्था के चलते जो अमानवीय अत्याचार तथाकथित निम्न जातियों पर किये गए उसका निवारण होना ही था, हुआ। वंचितों को उन्नत करने की दिशा में प्रयास किया जाना कोई बुरी बात नहीं है पर इसकी अति कहीं उलटी दिशा में उसी प्राचीन वैषम्य को जन्म न दे दे यह ध्यान रखना होगा। आज आरक्षण के विस्तार और यथार्थ धरातल पर इसकी समीक्षा में राजनीतिक दलों की कोई रुचि न होने से लगता है कि पुनः वर्ग-विषमता पनप रही हैै। अब इसकी धारा पहले से विपरीत है। पर असंतोष तो इससे भी फैलेगा। समृद्ध पटेलों द्वारा 23 वर्ष के नवयुवक के नेतृत्व में जन्मा यह नया आन्दोलन संकेत दे रहा है। राष्ट्र हित में इसके कारणों पर चिंतन भी होना चाहिए तथा निवारण के ईमानदार प्रयास भी। गुजरात सरकार द्वारा जरूरतमन्द युवाओं के लिए 1000 करोड़ रुपये के विषेष पैकेज को पटेलों के एक ग्रुप ने लाॅलीपाॅप कहकर न केवल ठुकरा दिया है वरन् लाॅलीपाॅप केसांकेतिक वितरण से अपने आन्दोलन को तेज करने में लग गया है। पटेलों ने पैकेज को लाॅलीपाॅप माना है जबकि हकीकत यह है
‘आरक्षण’ आज की तारीख में सबसे बड़ा लाॅलीपाॅप है। जिसे जीतने की हसरत रखने वाला हर राजनेता अधिकतर वोटरों तक वितरित करने की जुगाड़ में लगा है। बिहार में चुनाव परिणाम उसमें असाधारण गति प्रदान करेंगे स्पष्ट है।
पर एक तथ्य और स्पष्ट है। अगर आरक्षण की अधिकतम सीमा निर्धारित बनी रहती है तो इस लाॅलीपाॅप के नवीन उपभोक्ताओं का पुराने तृप्त समुदायों द्वारा विरोध होगा। पूर्व में यह हो चुका है, अभी हो रहा है आगे और तीव्र होगा। इस प्रकार वर्ग संघर्ष की स्थिति आनी अवष्यम्भावी प्रतीत होती है। अतः राष्ट्रहित एवं स्व-हित में से किसी एक को राष्ट्र के नीति निर्माताओं को चुनना ही होगा।