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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / नमक का कर्ज

नमक का कर्ज

प्रायः यह कहने में आता है कि व्यक्ति को नमक का कर्ज चुकाना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो जिसका नमक खाया है उसके साथ वफादारी तो निभानी चाहिए। हर स्थिति में उसका साथ देना चाहिए। परन्तु विचार करंे कि क्या यह स्थिति निरपेक्ष है?सत्य अथवा धर्म की प्रतिष्ठा जब इस नमक के कर्ज के आडे़ आती हो तो क्या किया जाय? अन्नदाता के अपकृत्यों का समर्थन किया जाय अथवा सत्य वा धर्म का साथ दिया जावे?भारतीय परम्परा, शास्त्र तथा ऋषि व्यवस्था ऐसी स्थिति में बिल्कुल स्पष्ट है। धर्म की रक्षार्थ, सत्य के रक्षार्थ अन्नदाता तो क्या गुरुजनों का भी तिरस्कार निःसंकोच कर देना चाहिए। क्योंकि गुरुजन स्वयं ही आज्ञा देते हैं- ‘तू सदा सत्य बोल, धर्माचार कर प्रमाद से सत्य को कभी मत छोड़, प्रमाद से धर्म का त्याग मत कर…., जो अनिन्दित धर्मयुक्त कर्म हैं उन सत्यभाषणादि को किया कर। उनसे भिन्न मिथ्याभाषणादि कभी मत कर। (सत्यार्थ प्रप्रकाश पृ.52) आगे गुरुजन यहाँ तक कह देते हैं- ‘जो हमारे सुचरित्र अर्थात् धर्मयुक्त कर्म हों, उनका ग्रहण कर और हमारे पापाचरण, उनको कभी मत कर’(सत्यार्थ प्रकाश पृ.52)
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षित रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मानो हतोऽवध्ीत्।। (मनु.8.15) (सत्यार्थ प्रकाश पृ.176) मरा हुआ धर्म, मारनेवाले का नाश, और रक्षित किया हुआ धर्म, रक्षक की रक्षा करता है। इसलिये धर्म का हनन कभी न करना, इस डर से कि मारा हुआ धर्म कभी हमको न मार डाले।।
‘मनु महाराज का मत है कि ‘अबु्रवन्विबन्वाह्यऽपि नरो भवति किल्विषी(मनु.8.13)(सत्यार्थ प्रकाश पृ.167)। अर्थात् सत्य और उचित बात न कहने वाला अथवा गलत बात कहने वाला मनुष्य पापी होता है।’
भीष्म पितामह और श्रीकृष्ण संपूर्ण महाभारत के केन्द्र में पाये जाते हैं। परन्तु ‘नमक के कर्ज’ के संबंध में दोनों के विचार मेल नहीं खाते। महाभारत के प्रत्येक दुःखद प्रसंग के निष्क्रियता और पक्षपात को जामा पहनाने के लिए भीष्म कहते हैं- ‘अर्थस्य पुरुषों दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज बद्धोऽर्स्म्थेन कौरवैः। (महाभारत भीष्म पर्व 36.42) हे राजन्! (युधिष्ठर) मनुष्य अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नहीं। यही सत्य है। मैं धनोपभोग के कारण कौरवों (दुर्योधनादि) से बँधा हुआ हूँ।’
पाठकगण! जितने भी दुष्चक्र पाण्डवों के विरुद्ध दुर्योधनादि ने प्रवृत्त किए, चाहे वह भीम को विष देकर मारना हो, वारणावत के लाक्षागृह में माता कुन्ती सहित पाण्डवों को भस्म करने का षड्यंत्र हो, द्यूत का आयोजन हो, द्रौपदी का शीलभंग हो और भीष्म उसके द्रष्टा हों, पाण्डवों को 13 साल का वनवास हो और उन शर्तों का पूर्णतः पालन करने के पश्चात् भी दुर्योधन द्वारा पाण्डवों को सुई की नोंक के बराबर भूभाग न देने का निर्णय हो, घोरतम युद्ध की संभावना समक्ष हो, ऐसे में समर्थ होते हुए भी उपरोक्त मासूमियत से भरा स्पष्टीकरण देना- कि पुरुष अर्थ का दास है?क्या समुचित है?क्या समाज और राष्ट्र की महती हानि के लिए इतिहास भीष्म को क्षमा कर देगा? कदापि नहीं। और कुछ नही ंतो द्रौपदी के आर्तनाद को सुनकर ही भीष्म अपने रौद्र स्वरूप में आ जाते तो कौरवों की क्या बिसात थी िकवे अनर्थकारी कार्यों की श्रृंखला जारी रख पाते। सत्य ही है कि किसी भी परिवार/समाज का मुखिया विषम परिस्थितियों में जब पक्षपातरहित न रहकर सत्य-धर्मके प्रवर्तन के अपने कर्तव्य को त्याग देता है तब उस परिवार/समाज /राष्ट्र की हानि को कोई नहीं रोक सकता।
यह तो बात रही समर्थ भीष्म की पर दूसरी ओर असमर्थ विदुर खडे़ दीख पड़ते हैं। विदुर अपनी स्थिति जानते हैं िकइस नक्कारखाने में उनकी आवाज तूती के समान ही होगी, परन्तु वे सत्य-कथन अपना धर्म मानते हैं चाहे कोई माने या न माने। द्रौपदी को घसीटकर सभा में लाने के दुर्योधन के अनर्थकारी आदेश पर मात्र विदुर ही बोले -‘मूर्ख! तुझे पता नहीं कि तू फाँसी पर लटक रहा है और मरने वाला है, तभी तो तेरे मुँह से ऐसी बातें निकल रही हैं (महाभारत सभा पर्व66.2-12)
समय काल कोई भी हो हमारी स्थिति कुछ भी हो पर विदुर का मार्ग सदैव अनुकरणीय है।
प्रारम्भ में हमने श्रीकृष्ण जी महाराज की चर्चा की। उनका संपूर्ण जीवन सत्य और धर्म की रक्षार्थ ही बीता। अपने हों या बेगाने, जो सत्य मार्ग पर हो वही कृष्ण की कृपा का पात्र था। आज के भाई भतीजावादके इस युग में भले ही निहित स्वार्थों के सूत्र में बँध लोग इसका महत्व न समझें, परन्तु कुरुकुल के बडे़ बूढ़ों को सम्बोधित कर श्री कृष्ण स्पष्ट कहते हैं।- ‘कुरुकुल के सभी बड़े बूढ़े लोगों का यह बहुत बड़ा अन्याय है कि आप लोग इस मूर्ख दुर्योधन को राजा के पद पर बिठाकर इसका बलपूर्वक नियंत्रण नहीं कर रहे हैं।’
कंस के बारे में श्रीकृष्ण कहते हैं कि…. कंस बड़ा दुराचारी एवं अजितेन्द्रिय था।…..अतः सजातीय बन्धुओं के हित की इच्छा से मैंने महान् युद्ध में उस उग्रसेन पुत्र कंस को मार डाला। (महाभारत/उद्योग पर्व/34,36-37)यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि कंस कृष्ण का मामा था। परन्तु असत् के मार्ग का पथिक बन चुका था, इसलिये कृष्ण ने निःसंकोच उसका वध कर दिया ।
विभीषण रावण का भाई था। पर रावण के कुकृत्यों के चलते उसने प्रथम तो भाई को समझाने का बहुत प्रयत्न किया। पर न मानने पर उसे त्याग दिया। अर्थात् यह समझ लेना चाहिए कि भारतीय मनीषा तथा परम्परा ने सदैव सत्य तथा न्याय का पक्ष लेने वाले को आदर दिया है। नमक का कर्ज असीमित रूप से स्वीकार्य नहीं है। अतः समामें बड़ों को, विद्वानों को, नेताओं को, ‘नमक के कर्ज’ को चुकाने नहीं वरन् ‘धर्म-चक्र’ के प्रवर्तन में रत रहना चाहिए। यही मार्ग श्रेयस्कर है।