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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / अंधविष्वास कैसे कैसे?

अंधविष्वास कैसे कैसे?

आज राष्ट्र के सम्मुख अनेक चुनौतियाँ हैं जिनका जिक्र भी होता है, हो-हल्ला भी मचता है। परन्तु दिनों-दिन बढ़ते पाखण्ड व
अन्धविश्वास पर ज्यादा चिन्ता व्यक्त करते नहीं देखा जाता है। ऐसी समस्त मूर्खतापूर्ण घटनाओं को आस्था से जोड़ देने के कारण इस पर टिप्पणी करना/चर्चा करना/ इन आडम्बरों को दूर करना करणीय नहीं समझा जाता। जबकि इस प्रकार का बौद्धिक सर्वनाश राष्ट्र में ‘विवेक-तत्व’ को नष्ट कर सर्वनाश का कारण बन जाता है। आश्चर्य यह है कि वैज्ञानिक कहे जाने वाले युग में तथाकथित पढ़े लिखे लोग सर्वाधिक इस चपेट में देखे जा सकते हैं।
आर्य समाज द्वारा प्रवर्तित अनेक सुधार कार्यों में अन्धविश्वास वा पाखण्ड का निर्मूलन मुख्य स्थान रखता है परन्तु आधुनिक परिवेश में, किस प्रकार अंधश्रद्धा के घने होते मकड़जाल को विनष्ट किया जाय, इस पर गम्भीर चिंतन दुर्भाग्य से हमने नहीं किया है। परन्तु अभी यह हमारा (इस आलेख का) विषय नहीं है। हम प्रयास करेंगे कि सत्यार्थ सौरभ के जरिए अन्धविश्वास के विभिन्न रूपां को तो कम से कम पाठकों की विचार-सरणि का विषय तो बनावें।
मैं प्रशंसा करना चाहूँगा इण्डियन एसोशियन आफ रेशनेलिटी के प्रमुख सनत एरमाडुकु की जिन्होंने पाखण्ड की घटनाओं की वैज्ञानिक व्याख्या करके उनकी निस्सारता को दिग्दर्शित करने का प्रयास किया है तथा निर्भीकता पूर्वक इस अविद्याजन्य व्यापार से जुड़े लोगों की पोल खोली है। पाठकों को सम्भवतः स्मरण होगा कि एक चैनल पर इन्होंने एक तथाकथित तांत्रिक गुरु को चुनौती दी थी कि वे उनका कुछ बिगाड़ कर दिखावे। यह एक पब्लिक शो था। गुरु ने खूब समय लिया, भाव भंगिमाएँ दिखायीं, समस्त प्रयास किए पर श्री सनत का कुछ भी न बिगाड़ पाए। इसके तथा ऐसे ही अनेक वीडियो न्यास की वैबसाइट पर आपको देखने को मिल सकते हैं। ‘यू ट्यूब’ पर अनेक वीडियो हैं। इन्हीं सनत ने वर्षों पूर्व एक दिवंगत अति प्रसिद्ध बाबा की सभी कलाबाजियों जैसे खाली हाथ में से भस्म निकालना, घड़ी निकालना आदि का एक घण्टे के शो में प्रदर्शन किया था। इन्हीं सनत के विरुद्ध एक चर्च ने एफ.आई.आर. दर्ज करायी थी, कारण कि इन्होंने प्रभु यीशु की मूर्ति से तथाकथित रूप से पवित्र जल निकालने की घटना का पर्दाफाश किया था।
आज एक नहीं ऐसे सहस्रों सनत की आवश्यकता है। इस क्षेत्र में आर्य समाज को पूरी योजना से काम करना चाहिए। केवल प्रवचनों तथा लेखों से बात नहीं बनेगी।
हमारा संविधान भी मानवीयता व वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देने की बात ठीक उसी तर्ज पर कहता है जैसे कि महर्षि दयानन्द ने ‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि’ की बात कही थी।
परन्तु संविधान को लागू करने की जिम्मेदारी जिन विधायकों/सांसदों पर है क्या वे इस मकड़जाल से मुक्त हैं? नहीं। बल्कि कहा जा सकता है कि हमारे ये प्रतिनिधि सर्वाधिक अन्धविश्वासी जान पड़ते हैं। कोई-कोई अपवाद हो सकता है। बिना तथाकथित शुभ मुहूर्त निकलवाए तो ये चुनाव लड़ने का फार्म भी नहीं भरते। सर्वत्र अन्धश्रद्धा का अन्तहीन सिलसिला दिखायी देता है चाहे प्रसंग मन्त्री की कुर्सी का पद हो अथवा शपथ ग्रहण का।
एक महिला सांसद की हत्या के बाद उस आवास में कोई रहना नहीं चाहता। वह मनहूस करार दे दिया गया है तथा 2001 से खाली ही पड़ा है। टोने टोटके आदि के खिलाफ बनने वाले कानून इसी कारण अटकते रहे हैं। जादू-टोना पर पाबंदी विधेयक-2010 भी परवान न चढ़ सका। नेता, अफसर, एक्टर, क्रिकेटर सभी आडम्बर पूर्ण प्रक्रियाओं में अपना सौभाग्य तलाश रहे हैं, फिर आमजन की तो बात ही क्या है।
भूमि पूजन के एक कार्यक्रम पर रोक लगाने हेतु दायर की गयी जनहित याचिका को रद्द करते हुए न्यायाधीश की यह टिप्पणी कि भवन बनने में भूमि को कष्ट होता है अतः भूमि पूजन के माध्यम से भूमि से क्षमा मांगी जाती है विस्मित कर देने वाली थी। इन न्यायाधीश महोदय ने तो याचिकाकर्त्ता पर 20000 रु. का जुर्माना भी कर दिया।
एक अन्य मान्य अदालत का स्वागतयोग्य निर्णय भी सामने आया है। एक व्यक्ति ने गारण्टेड लाभ दिलाने के दावे के चलते किसी यन्त्र विशेष को क्रय किया तथा निर्देशानुसार उपयोग किया। परन्तु कोई लाभ न होने पर अदालत की शरण में गया। वहाँ माननीय अदालत ने उसे क्षतिपूर्ति दिलवायी। अदालत का यह रुख राहत प्रदान करने वाला है। अगर मिथ्या दावे करने वाले लोगों को सजा मिलने लगे तो भोले लोगों को लूटने वालों की संख्या में संभवतः कुछ कमी आवे।
महाराष्ट्र विधानसभा में 2003 में एक विधेयक लाया गया था जिसमें धर्म के नाम पर विभिन्न उपायों के माध्यम से ठगी करने वालों को सजा का प्रावधान था। इस विधेयक में भोंदू बाबाओं द्वारा अपनायी जाने वाली अधोरी क्रियाएँ, अनिष्ट प्रथाएँ, नीम अंधविष्वास कैसे कैसे?
हकीम इलाज, ठगी, किसी शख्स को रस्सी वा सलाखों से बांधने, डंडे से पीटने, जूते भिगोकर उसका पानी पीने पर विवश करने, मिर्ची का धुआँ निगलने, किसी के तन पर गर्म वस्तुओं के चरके देने, आदि को अधोरी क्रियाओं के रूप में परिभाषित कर दण्ड का प्रावधान रखा गया है। परन्तु यह विधेयक 14 वर्ष से अभी तक लटका हुआ ही है।
हमारा मानना है कि कानूनी अंकुश तो होना ही चाहिए परन्तु इन सब अविद्याजन्य कुसंस्कारों के विरुद्ध जन-चेतना जगानी आवश्यक है। प्रभु ने मनुष्य को विवेक दिया है। तर्क इसका हथियार है, जिसका प्रयोग किसी भी घटना को समझने में किया जाना चाहिए। इसीलिए तर्क को ‘ऋषि’ कहा गया है।
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में इसीलिए निर्देश दिया कि बालक में बचपन से ही इस प्रकार के अविद्याजन्य संस्कार न पड़ें इस बात का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए। 11 वें समुल्लास में ऋषि ने हिंगजाल, जगन्नाथ में वस्त्र परिवर्तन, आग के ठीक ऊपर के चावल ठंडे तथा ऊपर के देग में गर्म, इत्यादि तथाकथित अनेक चमत्कारों का खण्डन किया है। महर्षिवर ने केवल हिन्दुओं के अन्धविश्वासों पर कलम चलायी ऐसा नहीं है, 12, 13 व 14 वें समुल्लासों में ईसाई, मुस्लिम आदि अन्य मत-मतान्तरों के अन्धविश्वासों की खुलकर समीक्षा की है। उन्होंने सत्यासत्य के निर्णयार्थ 5 कसौटियों का वर्णन किया है जो पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत हैं।
1. जो-जो ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव और वेदों से अनुकूल हो, वह-वह सत्य और उससे विरुद्ध असत्य है।
2. जो-जो सृष्टिक्रम से अनुकूल वह-वह सत्य और जो-जो सृष्टिक्रम से विरुद्ध है, वह सब असत्य है। जैसे कोई कहै- बिना माता-पिता के योग से लड़का उत्पन्न हुआ, ऐसा कथन सृष्टिक्रम से विरुद्ध होने से सर्वथा असत्य है।
3. ‘‘आप्त’’ अर्थात् जो धार्मिक, विद्वान्, सत्यवादी, निष्कपटियों का संग उपदेश के अनुकूल है, वह-वह ग्राह्य और जो-जो विरुद्ध वह-वह अग्राह्य है।
4. अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या के अनुकूल अर्थात् जैसा अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे ही सर्वत्र समझ लेना कि मैं भी किसी को दुःख वा सुख दूँगा तो वह भी अप्रसन्न और प्रसन्न होगा।
5. आठों प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, संभव और अभाव।
किसी भी घटना को स्वीकार-अस्वीकार करने से पूर्व इन कसौटियों पर कसा जावे तो सत्य सम्मुख ही होगा। कर्म सिद्धान्त अर्थात् जैसा व्यक्ति कर्म करेगा वैसा ही फल मिलेगा इसे कहने व तथाकथित रूप से मानने वाले तो लगभग सभी हैं पर पूर्ण निष्ठा से विश्वास रखने वाले अत्यल्प। इसी कारण लोग प्रभु के अटल सिद्धान्त पर विश्वास न कर, अनिष्ट को रोकने तथा पुरुषार्थ से कहीं अधिक प्राप्त करने की अभिलाषा से जगह-जगह मारे-मारे फिरते हैं। इसी भित्ति पर ठगों ने अपने करोबार का महल निर्मित किया है। अगर मनुष्य उपरोक्त स्थितियों में स्व-नियन्त्रण कर ले तो ये सब दुकानें बन्द हो जायँ। परन्तु हम आप सभी जानते हैं कि यह इतना आसान नहीं है। जब आम जनता, बड़े-बड़े राजनेताओं, प्रबुद्ध अफसरों, प्रोफेसरों इत्यादि को भ्रमजाल में आकण्ठ डूबा देखती है तो इस प्रवाह में बिना किसी रुकावट के उनका बहना तो तय हो जाता है। अभी हमने कहीं पढ़ा था कि केरल के प्रसिद्ध शबरीमला मन्दिर में ‘मकर-ज्योति’ जो कि तथाकथित देवताओं द्वारा प्रज्ज्वलित की जाती है, को देखने लाखों की भीड़ जाती है। दावा किया गया है कि इस ज्योति को राज्य का बिजली बोर्ड बड़ी-बड़ी भट्टियों में प्रच्छन्न रूप से प्रज्ज्वलित कर रहा है। बताइए कहाँ जाऐंगे शिकायत लेकर?
अन्धविश्वास ऐसा राष्ट्रघाती तत्व है जिसके प्रति अत्यन्त प्राचीन समय से विरोध की अपेक्षा जनता का समर्थन अधिक मिलता है। इसे रोकना तब और मुश्किल हो जाता है जब इसे धर्म का रूप दिया जाता है क्योंकि ऐसे में अंधश्रद्धा को रोकने के कदम को धर्म का व्यापार करने वाले आसानी से धर्म पर आक्रमण के रूप में प्रचारित कर देते हैं। हम इस विषय में इतने अन्धे हो जाते हैं कि इतिहास से भी सबक लेने को तैयार नहीं होते। भारत के पतन में इस अंधविश्वास और पाखण्ड का बड़ा हाथ रहा है।
महर्षि दयानन्द जी अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में महमूद गजनवी के सोमनाथ पर आक्रमण के संदर्भ में बड़ी वेदना के साथ लिखते हैं कि मन्दिर के अन्धविश्वासी महन्त लोग राजाओं को अन्तिम समय तक बहकाते रहे कि आप निशि्ंचत रहें। महादेव प्रभु भैरव वा वीरभद्र को भेज देंगे वे सब म्लेच्छों का नाश कर देंगे। ऐसी-ऐसी बातों से राजा पुरुषार्थ हीन हो तमाशा देखते रहे। किसी ने आक्रमण की बात सोची भी तो ज्योतिषियों ने कह दिया कि अभी शुभ मुहूर्त नहीं है। तब तो वही हुआ जो होना था। मन्दिर मूर्त्ति तोडे़ गये। अथाह सम्पत्ति लूटी गयी। पूजारियों की अत्यन्त दुर्दशा की गई। ऋषि लिखते हैं- ‘देखो जितनी मूत्तियाँ हैं, उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती। पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की, परन्तु एक भी मूर्ति उनके शिर पर उड़के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की मूर्ति के सदृश सेवा करते तो वह अपने सेवकों को यथा शक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।’ पाखण्ड व्यक्ति, समाज, राष्ट्र की सोच को संकुचित कर देता है। इसका व्यापक दुष्प्रभाव पूरे समाज के लिए घातक है। इससे स्वयं को व अन्यों को मुक्त कराने का कार्य कोई भी करे, उसका स्वागत किया जाना चाहिये। कैसे-कैसे मूर्खतापूर्ण, हास्यास्पद् तथा बुद्धि को विनष्ट कर देने वाले अन्धविश्वास हमारे चारों तरफ व्याप्त हैं, सत्यार्थ सौरभ के आगामी अंको में देने का प्रयास करेंगे। अविद्या से लड़ने का यह एक छोटा सा प्रयास होगा।