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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / जौहर और सतीप्रथा एक तथ्यात्मक विष्लेशण और खिलजी जीत कर भी हार गया।

जौहर और सतीप्रथा एक तथ्यात्मक विष्लेशण और खिलजी जीत कर भी हार गया।

चित्तौड़गढ़ के किले के बारे में यह अनुश्रुति विख्यात है कि ‘सारे गढ़ तो गढ़ैया हैं गढ़ तो एक ही है और वह है चित्तौड़गढ़। इसी किले के बारे में पढ़ रहा था, स्वाभिमान की रक्षा का एक पूरा अध्याय रोमांचित कर रहा था। एक स्थान पर लिखा था – ‘इस किले में अगर शौर्य की मिसाल राणा सांगा हैं, साहस की मिसाल पùिनी है, बलिदान की मिसाल पन्ना धाय हैं तो भक्ति की मीरा और रविदास भी हैं।’ जिसका स्वाभिमान व स्वाधीनता का संकल्प अतुल्य हो उसके बारे में इससे कम क्या लिखा जा सकता है। सत्य ही चित्तौड़गढ़ के वीरों और वीरांगनाओं का इतिहास हमें रोमांचित कर देता है, गर्वोन्नत कर देता है। जब हम मेवाड़ के इतिहास के झरोखे में प्रवेश करते हैं तो हमारी आँखों के सामने स्वाभिमान और आत्मगौरव की प्रतिमूर्ति राजपूत वीरांगनाओं के अदम्य साहस का इतिहास मानो चित्रित हो जाता है, जिन्होंने मुगल आतताइयों की जीत को भी हार में बदल दिया। आत्मा की अमरता के सन्देश को संभवतः इन्हीं वीरांगनाओं ने आत्मसात कर लिया था तभी तो मृत्यु का भी उत्सव मनाकर क्रूर विधर्मी शासकों की कुत्सित लालसा को ऐसा पाठ पढ़ाया जिसे वे जिन्दगी भर नहीं भूल सके।
चित्तौड़गढ़ का प्रथम जौहर 70000 औरतों, आदमियों और बच्चों (इनमें शत्रु योद्धाओं की विधवाओं की संख्या 30000 बतायी जाती है) से भरे हरम ने जिस लम्पट अलाउद्दीन खिलजी की काम-पिपासा को शान्त नहीं किया, वह सौन्दर्य की देवी पùावती को हासिल करने की कुत्सित लालसा लिए, खून की नदी में तैरते हुए, अभिलषित सौन्दर्य को दिल्ली ले जाने का स्वप्न लिए, जब चित्तौड़गढ़़ में प्रविष्ट हुआ तो विशाल कुण्ड में लपलपाती ज्वालाओं को सामने पा, अपलक देखता रह गया। अकल्पनीय दृश्य को देख भौंचक्का रह गया। मृत्यु को, सांसारिक धन-वैभव को, स्वाभिमान तथा आन-बान के समक्ष तुच्छ समझने वाली रानी ने हँसते-हँसते अग्नि-स्नान कर लिया। खिलजी को महारानी पùावती (पùिनी) ने एक मुट्ठी राख और सर धुनने का तोहफा दे दिया।

चित्तौड़गढ़ के किले के बारे में यह अनुश्रुति विख्यात है कि ‘सारे गढ़ तो गढ़ैया हैं गढ़ तो एक ही है और वह है चित्तौड़गढ़। इसी किले के बारे में पढ़ रहा था, स्वाभिमान की रक्षा का एक पूरा अध्याय रोमांचित कर रहा था। एक स्थान पर लिखा था – ‘इस किले में अगर शौर्य की मिसाल राणा सांगा हैं, साहस की मिसाल पùिनी है, बलिदान की मिसाल पन्ना धाय हैं तो भक्ति की मीरा और रविदास भी हैं।’ जिसका स्वाभिमान व स्वाधीनता का संकल्प अतुल्य हो उसके बारे में इससे कम क्या लिखा जा सकता है। सत्य ही चित्तौड़गढ़ के वीरों और वीरांगनाओं का इतिहास हमें रोमांचित कर देता है, गर्वोन्नत कर देता है। जब हम मेवाड़ के इतिहास के झरोखे में प्रवेश करते हैं तो हमारी आँखों के सामने स्वाभिमान और आत्मगौरव की प्रतिमूर्ति राजपूत वीरांगनाओं के अदम्य साहस का इतिहास मानो चित्रित हो जाता है, जिन्होंने मुगल आतताइयों की जीत को भी हार में बदल दिया। आत्मा की अमरता के सन्देश को संभवतः इन्हीं वीरांगनाओं ने आत्मसात कर लिया था तभी तो मृत्यु का भी उत्सव मनाकर क्रूर विधर्मी शासकों की कुत्सित लालसा को ऐसा पाठ पढ़ाया जिसे वे जिन्दगी भर नहीं भूल सके।
चित्तौड़गढ़ का प्रथम जौहर
70000 औरतों, आदमियों और बच्चों (इनमें शत्रु योद्धाओं की विधवाओं की संख्या 30000 बतायी जाती है) से भरे हरम ने जिस लम्पट अलाउद्दीन खिलजी की काम-पिपासा को शान्त नहीं किया, वह सौन्दर्य की देवी पùावती को हासिल करने की कुत्सित लालसा लिए, खून की नदी में तैरते हुए, अभिलषित सौन्दर्य को दिल्ली ले जाने का स्वप्न लिए, जब चित्तौड़गढ़़ में प्रविष्ट हुआ तो विशाल कुण्ड में लपलपाती ज्वालाओं को सामने पा, अपलक देखता रह गया। अकल्पनीय दृश्य को देख भौंचक्का रह गया। मृत्यु को, सांसारिक धन-वैभव को, स्वाभिमान तथा आन-बान के समक्ष तुच्छ समझने वाली रानी ने हँसते-हँसते अग्नि-स्नान कर लिया। खिलजी को महारानी पùावती (पùिनी) ने एक मुट्ठी राख और सर धुनने का तोहफा दे दिया। अपनी हार पर खिलजी विक्षिप्त हो गया। किले में निर्दोषों का कत्ले आम भी किया परन्तु सोचने की बात यह है कि यूँ तो उसने चित्तौड़गढ़ विजय कर लिया पर क्या सचमुच?
मेरा उत्तर तो नकारात्मक है। विजय आपकी तभी है जब आपकी चाहत पूरी हो, युद्ध का हेतु पूरा हो। राख से भरे कुंड में खिलजी पùावती को तलाश रहा था, उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह हँसे या रोये। जिस पùावती को पाने हेतु उसने क्या-क्या पापड़ नहीं बेले, जिसकी एक झलक पाने को धूर्त राजनीति का सहारा ले वह चित्तौड़गढ़ में पड़ा रहा था, जिसकी खातिर राणा रतनसिंह (भीम सिंह) को धोखे से गिरफ्तार कर दिल्ली ले जाने पर भी बात बनी नहीं, अपितु राजपूत रण-बांकुरों ने अपनी जान पर खेल, कामुकता में अंधे होने के कारण इनकी चाल को न समझ पाने वाले खिलजी को धता बता, राणा को मुक्त करा लिया था तथा फिर सारी सेना को लेकर महीनों तक सर पटकने के बाद चित्तौड़-प्रवेश तथा इच्छापूर्ति का वह अवसर आया तो भी सर पीटने के अलावा कुछ भी न मिला। पùावती से मिलन का स्वप्न, स्वप्न ही रह गया। एक क्षण को तो उस क्रूर विक्षिप्त आततायी ने यह भी सोचा होगा कि रानी यदि कुँए अथवा तालाब में छलांग लगाती तो कम से कम उसकी मृत देह तो मिल जाती और जिसकी केवल परछाईं ही वह देख पाया था, उसके यौवन को साक्षात् देख ही पाता। पर राजपूत वीरांगनाओं को क्या वह कभी जान सका? जीवित तो क्या कोई कामुक विधर्मी उनके मृत शरीर को भी स्पर्श न कर सके इसीलए तो अग्निस्नान किया गया है। लूट में प्राप्त स्त्रियों के शीलभंग के अभ्यासी यवनों को कोई आखेट न मिल सका और वीरांगनाओं के बलिदान के कारण मुँह की खानी पड़ी। यह वही खिलजी था जिसके बारे में उसके दरबारी इतिहासकार अमीर खुसरो ने लिखा है कि हिन्दुओं को खिलजी के दरबार में झुककर साष्टांग प्रणाम करना आवश्यक था जिसके कारण उनके तिलक के रंग से दरबार का फर्श रंग जाता था, पर यह चित्तौड़गढ़ था। न झुका, न घुटने टेके। वीरों ने शाका किया तो वीरांगनाओं ने जौहर। पùावती उसे कभी मिलने वाली नहीं थी तो नहीं ही मिली।
खिलजी का मन अचानक अतीत में चला ही गया होगा। उसे 11 जुलाई 1301 का दिन अवश्य स्मरण हो आया होगा। रणथम्भौर में भी तो यही हुआ। यह लोमहर्षक उत्सर्ग केवल सिसोदिया वंश तक सीमित नहीं है। हम्मीर तो चैहान थे। चैहानों ‘इस किले में अगर शौर्य की मिसाल राणा सांगा हैं, साहस की मिसाल पùिनी है, बलिदान की मिसाल पन्ना धाय हैं तो भक्ति की मीरा और रविदास भी हैं।’
आत्मा की अमरता के सन्देश को संभवतः इन्हीं वीरांगनाओं ने आत्मसात कर लिया था तभी तो मृत्यु का भी उत्सव मनाकर क्रूर विधर्मी शासकों की कुत्सित लालसा को ऐसा पाठ पढ़ाया जिसे वे जिन्दगी भर नहीं भूल सके। खिलजी को महारानी पùावती (पùिनी) ने एक मुट्ठी राख और सर धुनने का तोहफा दे दिया।
जीवित तो क्या कोई कामुक विधर्मी उनके मृत शरीर को भी स्पर्श न कर सके इसीलए तो अग्निस्नान किया गया है।
चित्तौड़गढ़ का प्रथम जौहर
जौहर और सतीप्रथा एक तथ्यात्मक विष्लेशण
और खिलजी जीत कर भी हार गया।में भी वीरांगनाओं के यही तेवर थे। खिलजी कभी समझ नहीं पाया कि रणथम्भौर में हम्मीर के नेतृत्व में चैहान वीर जब सर पर कफन बाँध मृत्यु-भय को चुनौती दे रण में उतरे तो मुगल सेनाओं को भागना पड़ा था। तब फिर ऐसा क्या घटित हो गया कि बाजी पलटने का अवसर उसे मिल गया। देखा जाय तो रणथम्भौर तो उसने केवल अपने भाग्य की बदौलत जीता। क्या इसी कारण लोग उसे भाग्यशाली कहते हैं? उसकी बहादुरी पर धब्बा लगाते हैं? पर रणथम्भौर को जीतने में भाग्य ने ही साथ दिया था इस सत्य से वह कैसे इनकार करे। जब युद्ध जीतने के पश्चात् चैहान सेना शत्रु से दिल्ली सल्तनत के झंडे छीनकर अपनी विजय के प्रतीकस्वरूप ले गए, रानी रंगदेवी और उनकी साथी वीरांगनाओं ने दिल्ली सल्तनत के ध्वजों को किले की ओर आते देखा तो चैहानों की हार जान, इससे पूर्व कि मुस्लिम विधर्मी उन्हें हाथ भी लगावें वे अग्निकुंड में कूद पड़ीं। ढलता सूर्य इस बलिदानी जौहर का साक्षी बना। राणा हम्मीर को किले में पहुँचने के बाद अपनी भूल का भान हुआ। कहा जाता है प्रायश्चितस्वरूप उन्होंने अपना सर स्वयं काटकर शिव को भेंट कर दिया। रणथम्भौर ने राजकुमारी देवलदेवी को खिलजी को सौपने की शर्त कभी नहीं स्वीकारी। राजकुमारी ने पùजा कुण्ड में कूदकर आत्मोत्सर्ग किया। खिलजी को जब यह पता चला तो उसने लौटकर रणथम्भौर पर कब्जा कर लिया। पर उसकी चाहत के मामले में भाग्य ने भी साथ नहीं दिया। वह सामने के विशाल कुण्ड की अग्नि को विस्फारित नेत्रों से देखता रहा। उसने अपने सगे चाचा, जो कि इससे अपनी औलाद की भाँति प्रेम करता था, के साथ विश्वासघात कर उसका घात कर, खुद को सुल्तान घोषित कर दिया था और दिल्ली में स्थित बलबन के लालमहल में अपना राज्याभिषेक 22 अक्टूबर 1296 को सम्पन्न करवाया था, आज की घटना ने उसे सोचने पर मजबूर कर दिया कि यह रिक्तता उस क्रूर अपराध की सजा तो नहीं है? खिन्न व बदहवास खिलजी ने क्रूर आक्रान्ताओं की रीति निभाते हुए 30000 राजपूतों, औरतों, बच्चों को मौत के घाट उतार दिया।
अँिलवाड़ के शासक कर्णदेव वाघेला की पत्नी कमलादेवी तथा राजा रामचन्द्र की पुत्री झात्यापली की भाँति राजपूत वीरांगनाओं को अपने जनानखाने में रखने की चाह की जहाँ तक बात है तो वह रणथम्भौर से भी खाली हाथ लौटा था और आज 28 जनवरी 1303 को इतिहास ने अपने आप को पुनः दोहराया और खिलजी को चित्तौड़गढ़ से खाली हाथ लौटना पड़ा।
कहते हैं समय के साथ सब कुछ बदल जाता है, पर लगता है राजपूत वीरांगनाओं के तेवरों में कोई बदलाव नहीं हुआ। वस्तुतः राजस्थान की इस स्वाभिमानी धरा का इतिहास रोमांच पैदा कर देने वाला है।
कविवर दिनकर ने कहा था- ‘जब मैं इस पूज्य धरा पर कदम रखता हूँ तो मेरे पैर एकाएक ही रुक जाते हैं मेरा हृदय सहम जाता है कि कहीं मेरे पैर के नीचे किसी वीर की समाधि या किसी वीरांगना का थान न हो। धन्य है मेवाड़ की आन-बान और शान।
चित्तौड़गढ़ का द्वितीय जौहर शरीर पर 80 घाव सहने वाले, फिर भी आन न छोड़ने वाले राणा संग्राम सिंह की अमर गाथा से कौन परिचित नहीं है। रानी कर्मवती, इन्हीं राणा सांगा की पत्नी थीं। वे राणा विक्रमादित्य और राणा उदय सिंह की माँ थीं और महाराणा प्रताप की दादी। 1534 में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने मेवाड़ पर हमला कर दिया। कायर विक्रमादित्य हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। ऐसे संकट के समय राजमाता कर्मवती ने धैर्य से काम लेते हुए सभी बड़े सरदारों को बुलाया। उन्होंने सिसोदिया कुल के सम्मान की बात कहकर सबको मेवाड़ की रक्षा के लिए तैयार कर लिया। सबको युद्ध के लिए तत्पर देखकर विक्रमादित्य को भी मैदान में उतरना पड़ा। पर उसे युद्ध से भागना पड़ा।
विक्रमादित्य के भागने के बाद चित्तौड़गढ़ में जौहर की तैयारी होने लगी, पर उसकी पत्नी जवाहरबाई जो कि स्वयं युद्धकला में पारंगत थीं तथा जिन्होंने शस्त्रों में निपुण वीरांगनाओं की एक सेना भी तैयार कर रखी थी, उन्होंने जौहर के बजाय युद्ध का निर्णय लिया। वीरांगनाओं ने केसरिया बाना पहना और किले के फाटक खोलकर जवाहरबाई के नेतृत्व में राजपूत योद्धाओं के साथ शत्रुओं पर टूट पड़ीं।
युद्धभूमि में सभी हिन्दू सेनानी खेत रहे। पर मरने से पहले उन्होंने बहादुरशाह की अधिकांश सेना को भी धरती सुंघा दी। यह 8 मार्च, 1535 का दिन था। मुट्ठी भर योद्धा क्या कर सकते थे? युद्ध का परिणाम तो स्पष्ट ही था। राजपूत वीरांगनाओं के दर्प ने एकबार फिर सूर्य के समान चमक दिखायी। अमरत्व ने मृत्यु की आँखों में निर्भयता से झाँक कर देखा। महारानी कर्मवती के नेतृत्व में 13000 नारियों ने जौहर कर लिया। यह चित्तौड़गढ़ का दूसरा जौहर था।
इतिहास बताता है कि हिन्दू रमणियों को अपनी अंकशायी बनाना इन मुस्लिम आक्रान्ताओं की सनक थी। संभवतः यह उन्हें इस्लाम की सेवा का सर्वाधिक उपयुक्त मार्ग जान पड़ता था। अलाउद्दीन खिलजी इस क्षेत्र में इनका सिरमौर था। हिन्दू-पीड़ा में ‘जब मैं इस पूज्य धरा पर कदम रखता हूँ तो मेरे पैर एकाएक ही रुक जाते हैं मेरा हृदय सहम जाता है कि कहीं मेरे पैर के नीचे किसी वीर की समाधि या किसी वीरांगना का थान न हो।’
चित्तौड़गढ़ का द्वितीय जौहरसुख का अनुभव करने वाले खिलजी के बारे में इतिहासकार ‘वुल्जले हेग’ ने लिखा है कि- ‘अलाउद्दीन खिलजी ने सारे राज्य में हिन्दुओं को निर्धनता तथा पीड़ा के धरातल पर उतार दिया था।’
1298 ई. में अलाउद्दीन ने उलूग खाँ एवं नुसरत खाँ को गुजरात विजय के लिए भेजा। अहमदाबाद के निकट कर्णदेव वाघेला और अलाउद्दीन की सेना में संघर्ष हुआ। राजा कर्ण ने पराजित होकर, देवगिरि के शासक रामचन्द्र देव के यहाँ शरण ली। अलाउद्दीन खिलजी ने कर्ण की सम्पत्ति जीती और उसकी पत्नी कलादेवी से स्वयं ने विवाह कर लिया, तब जबकि कर्णदेव अभी जीवित था। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि राजा कर्ण की बेटी देवल के साथ खिलजी ने अपने पुत्र खिज्रखान का विवाह कर दिया। रानी रंगदेवी तथा पùावती के जौहर के पश्चात् अलाउद्दीन की कुख्याति जालौर के जौहर का कारण बनी।
अलाउद्दीन के सामने तीसरा जौहर राजस्थान की वीरप्रसू भूमि के चार प्रसिद्ध जौहरों में से तीन अलाउद्दीन के आक्रमण के समय ही हुए। ऐसा क्यों? क्या यह एक संयोग है? हमें लगता है कि सुलतान की कुख्याति और विकृत यौन मानसिकता की प्रसिद्धि इसके पीछे कारण रही।
अँिलवाड़ के शासक कर्णदेव को परास्त कर उसकी रानी कलादेवी को बलपूर्वक अपनी पत्नी बनाना इसका उदाहरण है।
यह निश्चित था कि विजय के पश्चात् रानियों को उसकी क्रूर पिपासा का शिकार होना ही था और राजस्थान की क्षत्राणियों को यह कदापि मंजूर नहीं था।
जालौर का जोहर
कहते हैं कि जालौर के महाराज कुमार वीरमदेव की प्रसिद्धि, वीरता और उनके अनूठे व्यक्तित्व के बारे में सुनकर, अलाउद्दीन खिलजी की पुत्री शहजादी फिरोजा ने वीरमदेव से विवाह करने की जिद पकड़ ली और कहने लगी, ‘वर वरूँ वीरमदेव ना तो रहूँगी अकन कुँवारी’ अर्थात् निकाह करूँगी तो वीरमदेव से नहीं तो अक्षत कुँवारी रहूँगी।
बेटी की जिद को देखकर अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी हार का बदला लेने और राजनैतिक फायदा उठाने की सोचकर अपनी बेटी के लिए जालौर के राजकुमार को परिणय-प्रस्ताव भेजा। कहते हैं कि वीरमदेव ने यह कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया कि…
‘मामो लाजे भाटियाँ, कुल लाजे चौहान ,
जे मैं परणु तुरकणी, तो पश्चिम उगे भान।’
अर्थात् अगर मैं तुरकणी से शादी करूँ तो मामा (भाटी) कुल और स्वयं का चैहान कुल लज्जित हो जाएँगे और ऐसा तभी हो सकता है जब सूरज पश्चिम से उगे।’ अर्थात् यह सम्भव ही नहीं है।
इस जवाब से क्रोधित होकर अलाउद्दीन ने युद्ध का ऐलान कर दिया। एक वर्ष तक तुर्कों की सेना जालौर पर घेरा डालकर बैठी रही फिर युद्ध हुआ और किले की हजारों राजपूतनियों ने जौहर किया। स्वयं वीरमदेव ने 22 वर्ष की अल्पायु में ही युद्ध में वीरगति पाई।
अलाउद्दीन की पाशविकता के बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार पी.एन. ओक ने लिखा है-
‘मुस्लिम इतिहास के हजार वर्षीय काले युग में जन्मा और पला प्रत्येक मुस्लिम शासक बलात्कार, अत्याचार, कपट और दुष्टता का साक्षात् अवतार था। सभी एक दूसरे से बढ़कर शैतान थे। अलाउद्दीन खिलजी अपनी भयंकर दुष्टता में साक्षात् भयंकर पशु ही था।
जौहर अर्थात् विधर्मी अय्याश शासकों से अपने सतीत्व की रक्षा अगर हम गंभीर विचार करें तो इन वीरांगनाओं के आत्मोत्सर्ग में ‘सतीत्व की रक्षा’ का प्रश्न केन्द्र में रहा है। यही कारण है कि जब हिन्दू राजाओं के मध्य युद्ध होते थे, जिनकी संख्या कम नहीं थी तब कोई जौहर कभी नहीं हुआ (अपवाद को छोड़कर- जैसे अँिलवाड़ के शासक करणसिंह वाघेला ने जब अपने प्रधान मंत्री माधव की पत्नी रूपसुन्दरी का अपहरण कर लिया तो अपने सतीत्व की रक्षा के लिए उसने अपनी जान दे दी)। परन्तु शत्रुपक्ष की खास व आम सन्नारियों का शीलभंग विधर्मी आक्रान्ताओं का नियम था।
सती-प्रथा
इन वीरगाथाओं को प्रस्तुत करने के पश्चात् एक पक्ष पर और विचार कर लेते हैं। कुछ लेखकगण जौहर को सती प्रथा से जोड़ देते हैं जो या तो उनकी भ्रामक सोच है, या नितान्त कुचक्र तथा षड्यंत्र है। जौहर और सती प्रथा एक-दूसरे से तनिक भी मेल नहीं खाते। सतीप्रथा अत्यन्त गर्हित और नारी जीवन पर अभिशाप थी। जातिगत श्रेष्ठता, बहु विवाह, नारी सम्मान की पूर्णतः अवहेलना इस क्रूर प्रथा के कारक क्यों थे इसे हम संक्षेप में यहाँ उल्लेख करने का प्रयत्न करेंगे। जो लोग इसकी प्राचीनता में विश्वास रखते हैं वे अनभिज्ञ ही हैं। वे लोग कैलाशपति शिव की पत्नी सती के आत्मोत्सर्ग से इस प्रथा की शुरुआत मानते हैं
‘अलाउद्दीन खिलजी ने सारे राज्य में हिन्दुओं को निर्धनता तथा पीड़ा के धरातल पर उतार दिया था।’
यह निश्चित था कि विजय के पश्चात् रानियों को उसकी क्रूर पिपासा का शिकार होना ही था और राजस्थान की क्षत्राणियों को यह कदापि मंजूर नहीं था।
‘मामो लाजे भाटियाँ, कुल लाजे चैहान,
जे मैं परणु तुरकणी, तो पश्चिम उगे भान।’
‘मुस्लिम इतिहास के हजार वर्षीय काले युग में जन्मा और पला प्रत्येक मुस्लिम शासक बलात्कार, अत्याचार, कपट और दुष्टता का साक्षात् अवतार था। सभी एक दूसरे से बढ़कर शैतान थे। अलाउद्दीन खिलजी अपनी भयंकर दुष्टता में साक्षात् भयंकर पशु ही था। अलाउद्दीन के सामने तीसरा जौहर
जालौर का जोहर
जौहर अर्थात् विधर्मी अय्याश शासकों से अपने सतीत्व की रक्षा सती-प्रथापरन्तु यह भ्रम मात्र है, क्योंकि देवी सती ने जब अपना शरीर त्यागा था तब शिव तो जीवित ही थे, जबकि सती-प्रथा के अन्तर्गत पति की मृत्यु के पश्चात् उसकी चिता के साथ पत्नी का अग्निस्नान सती-प्रथा का अनिवार्य अंग है। वस्तुतः हुआ क्या था? यहाँ पिता दक्ष के यहाँ एक उत्सव-कार्यक्रम में सती बिना बुलाये भी, बिना शिव जी को साथ लिए पीहर चली आयीं। वहाँ पिता ने शिव का कटु वचनों से घोर अपमान किया जिसे सती सह न सकीं और उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।
(किंवदन्ती यह भी है कि सती प्रज्ज्वलित यज्ञकुण्ड में कूद गयीं। इस पूरी घटना में कहीं सती प्रथा के तत्वों के दर्शन नहीं होते। यहाँ यह भी ध्यान में रखने योग्य कि न ही यहाँ सती के शीलभंग की कोई आशंका थी न सतीत्व रक्षा का कोई प्रसंग।
दूसरी घटना महाभारत में माद्री की आती है। पाण्डु को स्वास्थ्य कारणों से विषय-प्रसंग पूर्णतः वर्जित था। इस निर्देश का पालन न करने पर, ब्रह्मचर्य-भंग उन्हें मृत्यु के मुख में धकेल सकता था। परन्तु दुर्बल क्षणों में महाराज पाण्डु और माद्री इस निर्देश को भुला बैठे, नतीजा पाण्डु महाराज का शरीरपात हो गया। माद्री पाण्डु की मौत के लिए स्वयं को जिम्मेदार समझतीं थीं अतः प्रायश्चित स्वरूप सबके मना करने, समझाने बुझाने के बाद भी उन्होंने पति के साथ चितारोहण कर मृत्यु का वरण कर लिया। महर्षि दयानन्द ने पूणे प्रवचनों में इस घटना की चर्चा करते हुए इसे एक प्रकार से सतीप्रथा की प्रथम घटना माना है।
सती प्रथा के कारक तत्त्व कुछ इतिहासकारों के अनुसार गुप्तकाल में 510 ईसवीं के दौरान सती प्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य देखा गया। इस अभिलेख में महाराज भानुगुप्त का वर्णन किया गया है जिनके साथ युद्ध में गोपराज भी मौजूद थे। गोपराज युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुए और उनकी पत्नी ने पति वियोग में सती होकर अपने प्राण त्याग दिए। इसी लेख के सहारे भारत में सती प्रथा जैसी कुरीति को आगे बढ़ाया गया और फिर धीरे-धीरे इस प्रथा ने पूरे भारत में पैर पसार लिए। यहाँ यह दृष्टव्य है कि प्रायः किसी काल्पनिक स्वर्ग प्राप्ति की बजाय ‘स्वार्थ’ और ‘पुरुष-प्रधान समाज का दंभ’ इस गर्हित प्रथा का कारक था
एक वक्त ऐसा भी आ गया जब लोग मृतक् की जमीन पर कब्जा करने के लिए उनकी विधवाओं को जबरदस्ती जलती चिता में झोंक देते थे।
यहाँ हम यह निवेदन करना चाहते हैं बंगाल में विशेष रूप से तथा राजपूताने में आंशिक रूप से सती-प्रथा का विशेष विस्तार हुआ। बंगाल के मध्यकालीन इतिहास को देखने से स्पष्ट होता है कि ‘जात्याभिमान’ और ‘कुलीन की श्रेष्ठता की धारणा’ पागलपन की हद को छू चुकी थी। हर कोई अपनी पुत्री को कुलीन पुरुष से विवाहित देखना चाहता था, इसका दुष्परिणाम यहाँ तक हुआ कि एक-एक कुलीन वृद्ध के साथ बीसियों अबलायें ब्याह दी जातीं थीं। परिणाम तो वही होना था, वृद्ध पतिदेव के निधन के पश्चात् पीछे रहीं दसियों पत्नियों का क्या हो? विधवा-विवाह तो घोर कुम्भीपाक नरक का टिकट काट देता, जीते रहने पर समाज के स्वयंभू ठेकेदारों को उनके पथ-भ्रष्ट होने का भय था
अतः धर्म का नाम देकर क्रूर हत्या को प्रथा बना दिया गया।
शायद ही अपवादस्वरूप कोई पत्नी स्वेच्छा से चितारोहण करती होगी प्रायः सभी स्थितियों में निरीह बालिकाओं को जिन्दा जला दिया जाता था और उनकी चीखों को दबाने के लिए ढोल-मजीरे बजाये जाते थे। बंगाल में यह कुप्रथा इतनी फैल गयी कि राजा राम मोहन राय के भाई के निधन पर उनकी भाभी को भी जला दिया गया। राममोहन राय ने इस कुप्रथा को मिटाने के भागीरथ प्रयास किये तब कहीं जाकर तत्कालीन ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बेंटिक द्वारा 4 दिसंबर, 1829 को ‘बंगाल सती रेग्युलेशन एक्ट’ पास किया गया था। इस कानून के माध्यम से पूरे ब्रिटिश भारत में सती प्रथा पर रोक लगा दी गई। रेग्युलेशन में सती प्रथा को इंसानी प्रकृति की भावनाओं के विरुद्ध बताया। इसके बाद सती की घटनाएँ कम होती गयीं, ऐसा लगता है। आधिकारिक रिपोर्ट के मुताबिक, 1943 से 1987 तक भारत में सती के 30 मामले सामने आए (यद्यपि ऐसी घटनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता जो अज्ञात रह गयीं हों)। आर्यसमाज ने भी इस दिशा में प्रयास किया। बाद में सती के महिमा मंडन को भी अपराध मान लिया गया।
सती-प्रथा एवं जौहर
अति संक्षेप में यहाँ सती प्रथा के उद्भव और विकास पर दृष्टि डालते हुए हम बलपूर्वक कहना चाहेंगे कि जिन लेखकों ने जौहर को सती प्रथा के रूप में देखने का प्रयास किया है वह या तो भूलवश या षड्यंत्र पूर्वक किया है क्योंकि पत्नी की मृत्यु के अतिरिक्त सती-प्रथा में जौहर के और जौहर में सती प्रथा के किसी तत्व की विद्यमानता नहीं है।
1. शील भंग की आशंका तथा सतीत्व की रक्षा जौहर का आवश्यक अंग व केन्द्रीय तत्व रहा है। जबकि सती प्रथा में इसका पूर्णतः अभाव ही है।
2. युद्ध का परिवेश और युद्ध में स्वपक्ष की निश्चित हार, जौहर का कारक था। ‘सती प्रथा’ का युद्ध व युद्ध में हार से, कोई महर्षि दयानन्द ने पूणे प्रवचनों में इस घटना की चर्चा करते हुए इसे एक प्रकार से सतीप्रथा की प्रथम घटना माना है।
प्रायः किसी काल्पनिक स्वर्ग प्राप्ति की बजाय ‘स्वार्थ’ और ‘पुरुष-प्रधान समाज का दंभ’ इस गर्हित प्रथा का कारक था। अतः धर्म का नाम देकर क्रूर हत्या को प्रथा बना दिया गया।
सती प्रथा के कारक तत्त्व सती-प्रथा एवं जौहरसम्बन्ध नहीं है।
3. जौहर का निश्चित सम्बन्ध ‘शाका’ से है। युद्ध में जब अपनी हार सुनिश्चित हो जाती थी तो राजपूत वीर ‘शाका’ करते थे तथा स्त्रियाँ जौहर। ‘शाका’ का निश्चय हो जाने पर वीर, केसरिया पगड़ी धारण करते थे और एक-दूसरे को पान भेंट कर गले लग कर एक प्रकार से अंतिम विदा ले लेते थे और तब मोह-माया के समस्त बंधन समाप्त हो जाने के कारण और मृत्यु-भय पर विजय प्राप्त करने के कारण साक्षात् यम का रूप धारण कर शत्रु सेना पर टूट पड़ते थे। सती प्रथा में ऐसा कुछ नहीं है।
4. कुछ लोगों का मानना है कि जौहर के समय, पुरुष महिलाओं को जलाकर फिर स्वयं शत्रु के समक्ष आत्म-हत्या करने आते थे एक-एक, दो-दो की संख्या में। जब वो मर जाते थे तब दूसरे आते थे। यह अलाउद्दीन के दरबारी अमीर खुसरो के मुँह से भले ही ठीक दीखता हो परन्तु कोई भारतीय ऐसा सोचे तो विडम्बना ही है। वीरों के वीरगति प्राप्त करने के पश्चात् ही वीरांगनाएँ जौहर करती थीं। रणथम्भौर का जौहर याद कर लें। चैहान वीर जब लौट रहे थे तो उनके हाथ में मुस्लिम झंडे देखकर गलती से शत्रु-विजय समझकर वीरांगनाओं ने जौहर किया था। दूसरे ऐसी सोच कदापि उचित नहीं है कि पत्नियों के मर जाने से निराश और हताश वीर मरने के लिए ही आते थे।
जी नहीं, वे शत्रु का काल बनकर आते थे। किसी भी दायित्व वा मोह का अभाव युद्धरत वीर को असीम साहस देता है न कि कायरता | यहाँ रगों में खून का संचार करने वाली एक अद्भुत घटना का स्मरण अति संक्षेप में कराना इस धारणा के निराकरणस्वरूप उचित होगा। सलूम्बर (उदयपुर) के राव रतनसिंह के विवाह को अभी सात दिन ही हुए थे कि उन्हें राणा का आदेश हुआ कि औरंगजेब को रोकने हेतु प्रस्थान करना है। राव तुरन्त कूच तो कर गए परन्तु मन पत्नी में रमा था। मन लगाकर युद्ध नहीं कर पा रहे थे। सेवक को गढ़ भेजा कि रानी की कोई निशानी ले आओ। हांडी रानी सब समझ गयीं। प्रेम-पाश में आबद्ध वीर स्व-कर्तव्य का पालन नहीं कर पा रहा। रानी ने पत्र लिखा कि ‘प्रिय! अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूँ। वीरों के कर्तव्य का पालन करो, अब स्वर्ग में आपके दर्शन करूँगी।’ यह लिखकर सैनिक की तलवार लेकर एक ही वार में अपनी गर्दन धड़ से अलग कर दी। सैनिक, थाल में रानी का सर लेकर युद्धभूमि में राव के निकट पहुँचा। राव दंग रह गए-हाय रानी! तूने यह क्या क्या किया? क्षण भर रुका। कुछ समय पूर्व तक असमंजस की मनःस्थिति में युद्ध करने वाला यह वीर साक्षात् प्रलय का अवतार बन गया और जब तक धड़ पर सर रहा, औरंगजेब की सेना को एक इंच नहीं बढ़ने दिया। हांडी रानी का आत्मोत्सर्ग भारत की संस्कृति का मुकुट बन गया। क्या कोई इसे आत्महत्या कहने का साहस करेगा?
5. जौहर का सम्बन्ध पति की मृत्यु से नहीं वरन् अपने शील को, अपने सतीत्व को शत्रुओं से बचाने से प्रमुख था। महाराणा संग्राम सिंह की मृत्यु खानवा के युद्ध के पश्चात् हो गयी थी। रानी कर्मवती ने तब आत्मोत्सर्ग नहीं किया था, पर जब गुजरात के बहादुर शाह के आक्रमण के समय में पराजय सुनिश्चित हो गयी तब अपने सतीत्व की रक्षा के लिए उनके साथ अन्य वीरांगनाओं ने भी जौहर किया। भारतीय आन-बान की शान ये वीरांगनाएँ, क्रूर विधर्मी आतताइयों को अपने मृतशरीर को भी स्पर्श करने का अवसर प्रदान करना नहीं चाहतीं थीं इस कारण वे अग्निस्नान करतीं थीं।
कहा यह भी जा सकता है कि वीर महिलायें बजाय मृत्यु का वरण करने के अगर शत्रु पर टूट पड़तीं तो शत्रु को अधिक नुकसान पहुँचा सकती थीं। यद्यपि ऐसे में उनके कैद होने की संभावना ही ज्यादा थी फिर भी जौहर का निर्णय उन पर थोपा नहीं जाता था। जिस दूसरे जौहर का उल्लेख हमने ऊपर किया है उसमें राणा विक्रमादित्य की पत्नी जवाहरबाई युद्धकला में पारंगत थीं तथा उन्होंने शस्त्रों में निपुण वीरांगनाओं की एक सेना भी तैयार कर रखी थी। इन वीरांगनाओं ने युद्ध में भाग लिया और वीरगति प्राप्त की। दूसरी ओर अँिलवाड़ की रानी कलावती ने आत्मोत्सर्ग नहीं किया तो अलाउद्दीन ने उनसे बलपूर्वक विवाह किया और वह भी उनके पति के जीवित रहते। खिलजी की यह कुख्याति भी तीन-तीन जौहरों की भूमिका बनी।
मुस्लिम आक्रमण भारत में सातवीं सदी से प्रारम्भ हुए। राजा दाहिर पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् मुहम्मद बिन कासिम ने जीती गयी स्त्रियों के साथ बलात् सम्बन्ध बनाने की जो परम्परा प्रारम्भ की उसी का अनुसरण पश्चातवर्ती मुस्लिम लुटेरों ने किया। चचनामा के अनुसार कासिम ने दाहिर की बेटियों को तोहफा बनाकर खलीफा के पास भेजा। जब खलीफा उनके पास गया तो उन्होंने अपने पिता दाहिर की मृत्यु का बदला लेने के लिए कहा कि मुहम्मद बिन कासिम ने पहले से ही उनकी इज्जत लूट ली थी। खलीफा ने कासिम को बैल की चमड़ी में लपेटकर दमिश्क मंगवाया और उसी चमड़ी में बंद होकर दम घुटने से उसकी मृत्यु हो गई। तब दाहिर की पुत्रियों ने अपनी इज्जत बचाने के लिए आत्मोत्सर्ग किया।
इससे पूर्व युद्ध कितने ही हुए। क्या अशोक ने कलिंग को नहीं जीता? पर तब कोई जौहर नहीं हुआ। स्पष्ट है कि मध्यकाल में जी नहीं, वे शत्रु का काल बनकर आते थे। किसी भी दायित्व वा मोह का अभाव युद्धरत वीर को असीम साहस देता है न कि कायरता।
भारतीय आन-बान की शान ये वीरांगनाएँ, क्रूर विधर्मी आतताइयों को अपने मृतशरीर को भी स्पर्श करने का अवसर प्रदान करना नहीं चाहतीं थीं इस कारण वे अग्निस्नान करतीं थीं।मुस्लिम आक्रान्ताओं की कुख्याति और क्रूरता ही जौहर का कारण बनी ताकि स्वाभिमानी हिन्दू स्त्रियों के शरीरों को ये विधर्मी हाथ भी न लगा सकें। जौहर करने के मुख्य हेतु को स्पष्ट करते हुए ‘मुगल या हवस के सुलतान’ में वाशी शर्मा ने लिखा है- ‘महारानी पùिनी का अग्निकुण्ड में प्रवेश एक पल में लकड़ी को कोयला कर देने वाली दहकती आग में माँ समान कोमल महारानी और हजारों स्त्रियों का अंतिम प्रयाण मरकर भी किसी जिहादी के हाथ न आने का अतुल्य संतोष, मर कर भी सम्मान नहीं मरने देने का सुख, आने वाली पीढ़ी के वीर पुत्र अपनी जलती माताओं का प्रतिशोध जरूर लेंगे इस सन्देश के साथ उस ऊँची उठती आग में धुआँ हो जाने वाली राजमाताएँ और पुत्रियाँ..’।
महिला हो या पुरुष कुछ सैनिक होते हैं कुछ असैनिक। ये असैनिक पुरुष भी युद्ध में भाग नहीं लेते थे। कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि वे भी यदि एक तलवार लेकर शत्रु पर टूट पड़ते तो एक को तो मार ही सकते थे। जो इस कुतर्क का अब भी विस्तार करना चाहें उनकी सेवा में अत्यन्त विनम्रता से निवेदन है कि उक्त जौहर काल ही क्यों आज भी स्त्री के सामने अपनी इज्जत बचाने हेतु यही विकल्प रहते हैं। उस समय कौन क्या निर्णय लेती है उसकी आलोचना करने में हम अपने बुद्धि-चातुर्य को आजमायें यह उचित नहीं। पर यह विचार अवष्य करें कि क्या मजबूरी रही होगी उन पिताओं की, उन भाइयों की, जिन्होंने भारत-विभाजन के समय अपनी बच्चियों की इज्जत बचाने हेतु स्वयं उन्हें तलवार घोंप दी अथवा अग्नि के समर्पित कर दिया। जो जीवित किसी आतताई के हत्थे चढ़ गयीं उनकी मासूम सिसकियों की दास्ताँ पढ़ने के लिए, विभाजन की विभीषिका के काले इतिहास से गुजरना होगा। यहाँ अगर उन क्षणों को चित्रित करने लगें तो कोई भी पृष्ठ सीमा अल्प पड़ जायेगी।
अतः इस विवेचन के पश्चात् हमारा यही निवेदन है कि हम राजस्थान के गौरव को धूमिल करने का प्रयास न करें तो उचित होगा क्योंकि भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् वैसे भी जिन लोगों के हाथ में शिक्षा नीति तथा पाठ्यक्रमों के निर्माण का दायित्व था उन्होंने बड़ी बेशर्मी के साथ हमारे इतिहास को भ्रष्ट तथा विकृत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है तो हम उसका निवारण करने के बजाय जाने-अनजाने में उनके सहायक क्यों बनें?