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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / हौंसलों की उड़ान

हौंसलों की उड़ान

जब तेज बरसात होती है तो पशु-पक्षी सभी बड़े-बड़े वृक्षों के आश्रय में अपनी सुरक्षा हेतु दुबक जाते हैं । ऐसे में बाज किसी वृक्ष का आश्रय नहीं लेता वरन् बादलों का सीना चीरकर उनके पार चला जाता है , अपने अध्यापक के ये शब्द किशोर अब्दुल कलाम के आदर्श बन गए और रामेश्वरम जैसी छोटी जगह में,सामान्य आर्थिक स्थिति वाले परिवार में पैदा होने वाले इस बालक ने ऐसी होंसलों से भरी उड़ान भरी कि राष्ट्र के सर्वोपरि पद राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया तथा राष्ट्र के सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न को प्राप्त किया। यही नहीं विश्व के शक्ति संतुलन के दर्शन को समझते हुए राष्ट्र को परमाणु शक्ति से संपन्न करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपने पहले कार्यकाल में ही इस योजना को हरी झंडी देना चाहते थे पर न दे पाए। जब वे 1998 में पुनः सत्तासीन हुए तो उन्होंने DRDO तथा DAE के हरी झंडी दे दी। उस समय DRDO के मुखिया श्री डाॅ. अब्दुलकलाम तथा DAE के मुखिया डाॅ. आर.चिदंबरम थे। कलाम रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार भी थे। अमेरिका सहित अन्य देशों ने पूरी खुफिया ताकत झोंक रखी थी कि अगर भारत परमाणु विस्फोट अथवा ऐसी कोई कोशिश करे तो उन्हें पता चल जाय, परन्तु पोकरण में सफल परीक्षण भी हो गए उन्हें हवा भी नहीं लगी। यह सी.आई.ए. की सबसे बड़ी हार थी।
डाॅ. कलाम ने किस प्रकार इस असम्भव गोपनीय कार्य को अपने साथियों सहित सफलता तक पहुँचाया यह लम्बी दिलचस्प कहानी है जिसे इस आलेख में वर्णित नही किया जा सकता। 11 मई को भारत के मिसाइलमेन डाॅ. कलाम ने ट्वीट किया – “Today, I remember the hot day of 1998 at Pokhran: 53C. When most of the world was sleeping; India’s nuclear era emerged.” कुछ लोग कलाम के इस प्रयास पर नाक मुँह चढ़ाते हैं। ऐसे लोग यथार्थवादी नहीं कल्पना लोक में जीने वाले हैं। डाॅ. कलाम के निधन पर भी ऐसे तथाकथित बुद्धिवादी शान्त नहीं रहे। उनका प्रतिनिधित्व करते हुए प्रख्यात पत्रकार सागरिका घोष ने उन्हें ‘ओल्ड बाम्ब डैडी’ के नाम से सम्बोधित कर अपना कलुष प्रस्तुत कर दिया। परन्तु स्वयं कलाम साहब ने ऐसे एक प्रश्न का क्या उत्तर दिया वह देखें –
“Today, I remember the hot day of 1998 at Pokhran: 53C. When most of the world was sleeping; India’s nuclear era emerged.” हम इससे पूर्ण सहमत हैं।
एक समय था जब भारत को अपने उपग्रह पृथ्वी की बाहरी कक्षा में स्थापित करने हेतु अन्य देशों को धन देकर उनके प्रक्षेपण यानों का प्रयोग करना पड़ता था। जब कलाम ISRO में परियोजना निदेशक थे तो प्रोफेसर सतीश धवन के नेतृत्व में घरेलू प्रक्षेपणयान के निर्माण कार्य को गति मिली और SLV III उपग्रह प्रक्षेपण यान का निर्माण तथा उसके माध्यम से रोहिणी उपग्रह के प्रक्षेपण का श्रेय डाॅ. कलाम को ही जाता है। आज स्थिति यह है कि दूसरे देश धन देकर हमारे SLV का उपयोग करते हैं। आज तक हम 19 देशों के 40 उपग्रह लांच कर चुके हैं। आज जब स्वदेशी तकनीक से क्रायोजेनिक इंजन बनाए जा चुके हंै, हमें शुरुआती दिन भी याद रखने चाहिए जब राॅकेट का कोन साइकल पर और एपल उपग्रह बैलगाड़ी में ढोकर इसरो लाए जाते थे। डाॅ. कलाम का सपना था कि ऐसे लांच यान बनाए जाएँ जो उपग्रह को स्थापित कर वापस आ जायँ और फिर ईंधन भरकर पुनः काम में लाए जायँ अर्थात् आर.एस.एल.वी.। भारत इस दिशा में तेजी से बढ़ रहा है और हमारे वैज्ञानिकों की कलाम साहब को यह सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि होगी।
रक्षा और अंतरिक्ष क्षेत्र में शोध पर ध्यान केन्द्रित करने वाले डाॅ. कलाम बाद में भारत के मिसाइल कार्यक्रम से जुड़ गए। बैलेस्टिक मिसाइल और प्रक्षेपण वाहन तकनीक में उनके योगदान ने उन्हें ‘भारत के मिसाइल मैन’ का दर्जा प्रदान कर दिया। पृथ्वी, त्रिशूल, अग्नि उनकी देन हैं।
डाॅ. अब्दुल कलाम के व्यक्तित्व को केवल एक सफल वैज्ञानिक के रूप में ही समेटा जाय तो यह संभव नहीं और उचित भी हौंसलों की उड़ाननहीं। राशन के केरोसिन से जलने वाले दीपक की रोशनी में बचपन में पढ़ायी करने वाले, अल-सुबह घर-घर जाकर समाचार पत्र बेच अपने भाइयों की मदद करने वाले, बचपन से ही ऊँची और ऊँची उड़ान के सपने देखने वाले अब्दुल में और बहुत कुछ के साथ-साथ जो चीज सबसे ज्यादा थी वह था हौंसला, सहृदयता तथा चारित्रिक दृढ़ता। जिसके कारण न केवल वह सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित हुए बल्कि मजहबी सीमाओं को लाँघ जन-जन के दिल में भी प्रतिष्ठित हुए। 27 जुलाई 2015 को उनके निधन के समाचार से कौनसी ऐसी निष्ठुर आँख थी जो नम नहीं हुई, वस्तुतः तो अपने लाडले सपूत को सदा-सदा के लिए खोकर भारत माता भी रोए बिना न रह सकी।
डाॅ. कलाम प्रारब्ध और पुरुषार्थ के समन्वित रूप थे। वे स्वयं एक फाइटर पायलट बनना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जो परीक्षा दी उसमे नवें नंबर पर आये जबकि उन्हें सिर्फ आठ व्यक्ति चाहिए थे। उनके प्रारब्ध में तो भारत को एक शक्तिशाली स्वावलंबी राष्ट्र के रूप में विकसित करना था अतः वे फाइटर पायलट नही बन सके, यद्यपि 78 वर्ष की उम्र में उन्होंने राष्ट्रपति रहते हुए फाइटर प्लेन सुखोई-30 की उड़ान में सह-चालक बन एक रिकार्ड कायम किया।
दिन रात वैज्ञानिक विकास की चिंता करने वाले कलाम अत्यन्त सहृदय थे। एक बार जब 70 वैज्ञानिकों की टीम एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी तो वैज्ञानिकों को काम करते करते ८-९ भी बज जाते थे। एक बार एक वैज्ञानिक ने उनसे शाम 5 बजे घर जाने की अनुमति माँगी क्योंकि उसने अपने बेटे से नुमाइश दिखाने का वायदा किया था। डाॅ. कलाम ने उन्हें अनुमति दे दी। परन्तु वह वैज्ञानिक अपने काम में ऐसा खोया कि उसे समय का ज्ञान ही नहीं रहा। जब देखा तो रात के 8 बज रहे थे। वह इस बात पर शर्मिन्दा होते हुए अपने घर पहुँचा कि वह अपने बेटे से किया वायदा पूरा नहीं कर सका। घर पहुँचा तो देखा- बेटा घर नहीं है। पत्नी से पूछा तो ज्ञात हुआ कि सेन्टर से कोई आया था जो बच्चे को नुमाइश दिखाने ले गया है। पता चला वह और कोई नहीं बल्कि स्वयं अब्दुल कलाम थे जिन्होंने जब शाम 5 बजे उस वैज्ञानिक को काम में डूबा देखा तो उसके वायदे को निभाने वे स्वयं उसके बेटे को लेकर मेले में चले गए। मरते दम तक कलाम की इस सहृदयता ने उनका साथ नहीं छोड़ा।
27 जुलाई को प्रातः जब वे शिलांग प्प्ज् में भाषण देने जा रहे थे तो एक एस्कार्ट उनके साथ चल रहा था जिसमें एक आॅफीसर सारे रास्ते खड़ा रहा। कलाम उसके खड़े रहने से बड़े व्यथित थे, वह थक जायगा, खड़े रहने की क्या आवश्यकता है आदि-आदि। उन्होंने अपनी कार में बैठे साथियों के माध्यम से कई बार रेडिओ सिग्नल देने का असफल प्रयास किया। अंत में गंतव्य पर पहुँच उस आफीसर को बुला उसे कहा कि उसे बैठ जाना चाहिए था और फिर उससे हाथ मिलाकर धन्यवाद कहा। एक अनजान छोटे से अफसर के लिए सहृदयता की इस भावना के प्रदर्शन के चंद समय बाद ही यह महानात्मा हमसे विदा ले गया।
डाॅ. कलाम के व्यक्तित्व का एक पहलू यह भी था कि वे संगीत प्रेमी भी थे। यद्यपि इस बारे में अधिक लोग नहीं जानते, परन्तु फुरसत के क्षणों में वे रुद्रवीणा का रियाज करते थे। डाॅ. कलाम जहाँ भी रहे ईमानदारी और चारित्रिक दृढ़ता की मिसाल रहे। राष्ट्रपति भवन में दो सूटकेस लेकर आये और दो ही सूटकेस लेकर गए। एक बार उनके कुटुम्ब के बहुत से मेहमान राष्ट्रपति भवन में आये तथा अजमेर दरगाह पर भी गए। कलाम साहब ने इनका पूरा व्यय जो तीन लाख से अधिक था चुकाया। एक बार मिक्सी ग्राइंडर बनाने वाली कम्पनी ने उन्हें ग्राइंडर उपहार में दिया पर उन्होंने विनम्रता से उपहार के रूप में इसे अस्वीकार करते हुए इसकी राशि पूछते हुए चेक से प्रेषित करने का प्रस्ताव किया क्योंकि वह ग्राइंडर उन्हें चाहिए था। जब कम्पनी ने इन्कार किया तो उन्होंने कहा कि ऐसी हालत में वह ग्राइंडर लौटा देंगे। आखिरकार उन्होंने उस ग्राइंडर का भुगतान किया।
ऐसी चारित्रिक दृढ़ता उनके अन्दर कहाँ से आयी- अपने पिता द्वारा दिए संस्कारों से। वे अक्सर अपने भाषणों में सुनाया करते थे- ‘मैं जब छोटा था तब मेरे पिता को रामेश्वरम की पंचायत का प्रधान बनाया गया था। पिता एक स्थानीय मस्जिद में मौलवी थे। एक दिन मैं जोर-जोर से बोलते हुए अपना पाठ बहुत दत्तचित्त होकर याद कर रहा था। तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया। उन दिनों रामेश्वरम में दरवाजे बन्द रखने का रिवाज नहीं था पर शायद कोई अजनबी था इसलिए खटखटाया था। मैं अपनी पढ़ाई में डूबा हुआ था। मैंने माँ को आवाज लगायी पर वे नमाज पढ़ रहीं थीं। अतः उन्होंने जबाब नहीं दिया। आखिर मैंने ही उन्हें अन्दर आने को कहा। कोई अजनबी थे, उनके हाथ में एक पैकेट था। उन्होंने पिताजी के बारे में पूछा, मैंने कहा वे बाहर गए हैं तो उन्होंने वह पैकेट दिखाकर कहा कि वे पिताजी के लिए लाये हैं। माता-पिता दोनों नहीं थे, मैं अपनी पढ़ाई में व्यस्त होना चाहता था। बिना ज्यादा सोच-विचार के मैंने उन्हें खाट पर रखने को बोल दिया। वे चले गए और मैं अपनी पढ़ाई में सब कुछ भूल गया। जब पिताजी आये तो खाट पर पैकेट देख पूछा- कि यह क्या है तो मैंने उत्तर दिया किकोई व्यक्ति उनके लिए रख गया है। पिताजी ने जब देखा उसमें अंगवस्त्रम् आदि थे तो मेरी बहुत पिटायी की। बाद में पिताजी मुझसे बोले कि कभी किसी से उपहार स्वीकार मत करो। जब आप किसी प्रतिष्ठा के पद पर होंगे तो वह उपहार देने वाला आपसे कुछ ‘फेवर’ अवश्य चाहेगा और वैसा करना बेईमानी होगी।’
आज जब देश अपने दिल पर राज करने वाले महान् व्यक्ति को विदा कर रहा है, आएँ उनकी महानता और उनके आदर्शों को अपने पास सहेजकर रख लें, ताकि 2020 तक जिस उन्नत राष्ट्र का स्वप्न डाॅ. कलाम देख रहे थे जब उसका निर्माण हो तो उसका प्रत्येक नागरिक कलाम साहब जैसा हो।