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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / स्मार्ट ही नहीं संस्कार सिटी भी चाहिए

स्मार्ट ही नहीं संस्कार सिटी भी चाहिए

आजकल जोरशोर से स्मार्ट सिटी बनाने की बात चल रही है। ये सर्व सुविधायुक्त, स्वच्छ, आधुनिकतम व सुविधाजनक यातायात, विद्युत व्यवस्था, संचार व्यवस्था वाले नयनाभिराम शहर होंगे। 100 एमबीपीएस रफ्तार का इण्टरनेट होगा। यह अत्यन्त स्वागत योग्य कदम है। हमारा प्यारा उदयपुर शहर भी इसमें सम्मिलित है अतः उदयपुरवासियों को बधाई।
इसमें कोई भी संदेह नहीं कि भौतिक सुख सुविधा सुखदायक/आरामदायक होती है। मन को प्रफुल्लित करती है। परन्तु इस आलेख में ध्यानाकर्षण के लिए हम यह उल्लिखित करना चाहते हैं कि संस्कार सिटी के अभाव में स्मार्ट सिटी पूर्ण सुखप्रदायक नहीं हो सकता। पर शोक इस बात का है कि इस तरफ नीति निर्माताओं का अथवा समाजशास्त्रियों का कोई ध्यान ही नहीं है। देश का भविष्य युवा पीढ़ी के हाथ में है। अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त कर मोटी रकम वाली नौकरी प्राप्त करना आज इसका प्राथमिक उद्देश्य हो गया है, जो गलत है ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता। देश ज्ञान-विज्ञान में खूब तरक्की करे, विज्ञान से तकनीकी विकास हो जिससे मनुष्य का जीवन सुखदायक हो ऐसा मानना, सोचना, करना स्वागत योग्य है परन्तु आज इस दिशा में तेजी से बढ़ते कदमों के बावजूद भी वैयक्तिक, पारिवारिक, सामािजक जीवन में जो त्रासदी दिखायी दे रही है उसका क्या कारण है यह सोचना पड़ेगा। कारण अनेक हो सकते हैं परन्तु हमारी दृष्टि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है चरित्र निर्माण पर ध्यान न देना। आज ऐसा माहौल बन गया है कि चरित्र निर्माण और नैतिकता की बात करते ही उस व्यक्ति को ऐसी नजरों से देखा जाता है जैसे वह अजायबघर का प्राणी हो। आज बुद्धिजीवी वह है जो संस्कृति तथा सभ्यता के स्थापित मापदण्डों को सिरे से खारिज कर देता हो। ‘परिवार’ नामक प्राथमिक चरित्र निर्माण तथा ‘आचार्यकुल’ नामक द्वितीयक चरित्र निर्माण शालाओं के इस पक्ष को तो सर्वथा अनावश्यक समझा जा रहा है। परन्तु बढ़ती हुई कुण्ठाएँ, आत्महत्याएँ, यौन अपराध इसी असावधानी के परिणाम हैं। समाज में धीरे-धीरे कुछ धारणाएँ इस प्रकार सुस्थापित हो जाती हैं कि उनके विरुद्ध ध्यानाकर्षण करने वाले की आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज जैसी सुनायी देती है। हम गाँधी जी का उदाहरण लेते हैं। उनकी उपलब्धियों से इन्कार तो नहीं किया जा सकता परन्तु उनकी विफलताओं व कमजोरियों पर लिखने वाली कलम को हेय माना जाता है। आज अनेक ऐसे राजनेता हैं जो आरक्षण की विषवेल के दुष्परिणाम को भली भाँति जानते हैं पर किसी माई के लाल की यह कहने की हिम्मत भी नहीं होती कि आरक्षण की बैशाखी के सहारे अब जो बड़े आॅफिसर बन चुके हैं, राजनेता बन चुके हैं उनके परिवार को आरक्षण क्यों?
आज ब्रह्मचर्य की बात करने, सहशिक्षा के दोषों का दिग्दर्शन कराने, यौन अपराधों के बढ़ते ग्राफ के मूल में अश्लील सामग्री व इण्टरनेट पर ऐसी ही बेवसाइटों तक निर्बाध पहुँच को देखने वाले लोग, देश के बुद्धिजीवियों की दृष्टि में परले सिरे के अहमक हैं। वर्तमान सरकार द्वारा ऐसी बेवसाइटों पर प्रतिबंध लगाने के उद्यम का क्या हश्र हुआ आपके समक्ष है।
परन्तु सत्य यह है कि चाहे आज के बुुद्धिजीवी हों या समाजशास्त्री, जब तक इस पहलू का समाधान नहीं निकालेंगे स्मार्ट सिटी ‘क्राइम’ मुक्त नहीं होंगे।
मोटे तौर पर नवजात शिशु पर तीन स्रोतों से संस्कार पड़ते हैं। प्रथम, पूर्व जन्म के संस्कार जो वह साथ लेकर आता है। द्वितीय, जो माता-पिता से आनुवांशिकता के क्रम में प्राप्त होते हैं। तृतीय, जन्म के पश्चात् पहले परिवार, दूसरे विद्यालय व तीसरे समाज के परिवेश के अनुरूप जो विकसित होते हैं।
इनमें से पूर्वजन्म के संस्कारों को भी किसी हद तक नियंत्रित तो किया जा सकता है परन्तु दूसरे तथा तीसरे स्रोत से सुचरित्र का निर्माण हो ऐसा सुनिश्चित किया जा सकता है। ईश्वर विश्वास तथा आध्यात्मिकता का विकास वस्तुतः इन्हीं शालाओं में होता है जो आपमें आत्मबल का संचार करता है। पर आज की शिक्षा पद्धति में इसका अभाव है। यही कारण है कि तनिक भी संकट आने का आज पर युवा धैर्य धारण नहीं वरन् आत्महत्या के द्वारा परिस्थिति से निजात पाना अधिक श्रेष्ठ समझने लगा है।
अभी हाल में 30 अगस्त 2015 को देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित आयुर्विज्ञान महाविद्यालय के प्रथम वर्ष की छात्रा बीकानेर की खुशबू चैधरी ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। तमिलनाडु में अध्यापक के डाँटने पर मात्र 17 साल के छात्र ने आत्महत्या स्मार्ट ही नहीं संस्कार सिटी भी चाहिएकर ली। सितम्बर 14 से जून 15 के मध्य आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में पढ़ रहे छः छात्रों ने अपनी जान दे दी। शायद पढ़ाई के दबाव को सहन नहीं कर पाए। ऐसा क्यों? स्वस्थ सामाजिक रचना हेतु परिवारों तथा शिक्षणालयों को पुनः मानव निर्माण शाला के रूप में स्थापित करने हेतु सद्विचारों के आरोपण तथा कुविचारों के लोपन से परिवेष्ठित करना होगा। परिवार को मानव निर्माण शाला कहें तो अनुचित नहीं होगा। परिवार ही प्रथम स्थल है जहाँ स्वार्थ की बलि तथा परार्थ उत्सर्ग की भावना से परिचय होता है। सबसे बड़ी बात कि अपने अतिरिक्त अन्य के नजरिए को समझना तथा सम्मान देना इसी वर्कशाॅप में सीखा जाता है। इस प्रकार मानवीय संवेदना का प्रादुर्भाव परिवार में ही होता है।
आज के आपाधापी के युग में सर्वत्र तनाव की स्थिति बनी हुई है। ऐसे में परिवार ही वह सुकून देने वाला स्थल है जहाँ ममत्व, स्नेह, आत्मीयता की छाँव में परिवार के सदस्य अपार शान्ति की तलाश कर सकते हैं। वे अपनी समस्या को परिवार के अन्य सदस्यों के साथ विशेष रूप से माता-पिता-पत्नी के साथ बाँट सकते हैं। सहज समाधान प्राप्त कर, जो समस्या दिनों से उन्हें परेशान कर रही थी उससे छुटकारा प्राप्त कर तनाव मुक्त हो सकते हैं। परन्तु आज ऐसा प्रतीत होता है कि अविश्वास, सन्देह और आशंकाओं के जो बादल समाज में विस्तीर्ण हो रहे हैं वे परिवारों मंे भी प्रवेश कर रहे हैं। इसका मुख्य कारण पारस्परिक सद्भाव, असीमित त्याग, सामन्जस्य तथा सीमातीत क्षमाभाव की जो परिधि/मेखला परिवार को सुरक्षित रखे हुए थी उसमें अब जगह जगह छेद हो गए हैं और परिवार तनाव मुक्ति के नहीं, तनाव के जनक हो गए हैं जिसकी खौफनाक परिणिति भी दिखाई दे रही है।
ऐसी दशा में परिवार के परिवार बर्बाद हो रहे हैं। परिवारों के नैतिक वातावरण में अनैतिकता का निर्बाध प्रवेश, जिसका स्रोत चारों ओर का वह परिवेश है जिसका निर्माण पाश्चात्य रंग मंें रंगे समाजशास्त्रियों द्वारा किया जा रहा है।
उन्मुक्त परिवेश पर कोई वर्जना नहीं, यह आज के युवा की मनःस्थिति बनती जा रही है। विचार मनुष्य जीवन को दिशा प्रदान करते हैं और विचार बनते हैं उस सबसे जो कुछ हम देखते हैं तथा सुनते हैं। आज जो कुछ देखा व सुना जाता है उसका ज्यादा हिस्सा अभद्र होता है। परिणामतः परिवार तथा समाज का परिवेश भी थ्तनेजतंजपवद तथा ब्वदनिेपवद से भरा पड़ा है।
एक खाते पीते भरे पूरे परिवार का मुखिया अनन्य चक्रवर्ती प्रतिष्ठित जाँच एजेन्सी में अधिकारी था। पत्नी अध्यापिका। एक पुत्र व एक पुत्री। कारणों का तो पता नहीं, पर निश्चित ही वह अत्यन्त तनाव में था जो दिल दहला देने वाली घटना घटी। अनन्य ने बड़ी निर्ममता के साथ पत्नी और दोनों बच्चों की हत्या कर दी। फिर स्वयं को फाँसी लगा आत्महत्या कर ली। यहाँ उल्लेखनीय है कि भुज भूकम्प की शिकार बच्ची को अनन्य चक्रवर्ती ने गोद लिया था। यह तनाव अनन्य के आॅफिस की देन हो सकता है परिवार के सदस्यों की वजह से पनपा हो सकता है अथवा आधुनिक जीवनशैली का परिणाम हो सकता है। जो भी हो नतीजा भयंकर, पूरे परिवार का विनाश।
20-25 वर्ष पूर्व एक संभ्रान्त परिवार की घटना का स्मरण हो आया। घर का मुखिया सेना में बड़ा आॅफिसर था। पत्नी, दो बेटियाँ एक छोटा पुत्र। आधुनिक जीवनशैली। पारिवारिक सामन्जस्य की डोर मजबूत नहीं रह सकी। नतीजा भयंकर काण्ड। मेजर ने सभी सदस्यों को कार में लाॅक करके खाई में धकेल दिया। एक लड़की किसी तरह निकल भागी। निर्ममता की सीमा देखिए जन्मदाता ने स्वयं बड़ा पत्थर ले उसका सिर कुचल दिया। इतने में दूसरी बेटी निकल भागने में सफल हो गई और घटना प्रकाश में आयी तथा पिता को सजा मिली। कारण क्या था? पिता स्वयं तो उन्मुक्त वर्जनाविहीन जीवनशैली में लिप्त था परन्तु जब पत्नी व बेटियों ने वही राह पकड़ी तो सह नहीं सका।
वर्तमान परिवेश में पारम्परिक मान्यताएँ समाप्त हो रही हैं। आध्ुानिक जीवनशैली उन्मुक्त तथा उच्छशृंखल है। अपनी इच्छापूर्ति प्रमुख हो रही है, परिवार के दूसरे सदस्यों का नजरिया समझना अनावश्यक माना जा रहा है। परिवार में दो पीढ़ियों के बीच का अन्तराल खाई बन चुका है।
अत्यधिक चर्चित ‘आरुषि मर्डर केस’ में ऐसा ही कुछ देखने में आया। समृद्ध डाक्टर दम्पत्ति की इकलौती सन्तान। किसी प्रकार का कोई अभाव नहीं। पर स्वच्छन्द मानसिकता के चलते आरुषि सैलाब में बह गई। घर के नौकर हेमराज से अमर्यादित निकटता। परिणाम कलेजे के टुकड़े का स्वयं माँ-बाप द्वारा निर्मम कत्ल।
आज इन पंक्तियों को लिखते समय एक अखबार का पृष्ठ सामने है। एक ही पृष्ठ पर छः घटनाएंे चिन्तन को झकझोरने वाली हैं।
1. श्री गंगानगर के एक शिक्षा मंदिर(?) में अध्यापक (गुरु?) जिसके अवकाश प्राप्ति में मात्र छह मास का समय शेष है, ने दो छात्रों को पृथक् क्वार्टर में ले जाकर अश्लील हरकतें कीं। शिक्षक को गिरफ्तार किया जा चुका है।
2. एक अन्तर्राष्ट्रीय नृत्यांगना के फार्म हाउस पर रेव पार्टी का आयोजन। विदेशी युवती सहित युवक शराब, स्मैक, गाँजे के नशे में धुत्त। डीजे की तेज आवाज के मध्य क्या हो रहा था यह आप अन्दाज लगा सकते हैं। 27 युवक गिरफ्तार किए गए।
3. अभी कुछ समय पूर्व उदयपुर के नवनिर्मित होटल में से पुरुषों व महिलाओं को आपत्तिजनक स्थिति में पुलिस ने गिरफ्तार किया था। होटल के मालिक की बात क्या कहें मालकिन स्वयं मौके पर पैसे इकट्ठे करती हुई गिरफ्तार हुई। भारतीय नारी कहाँ से कहाँ पहुँच गई पर समाजशास्त्री मस्त हैं।
4. सलोवा निवासी 50 वर्षीय दलसिंह चैथी शादी करना चाहता था। एक बच्चे की माँ उसकी पड़ोसन से। बच्चे को इच्छापूर्ति में व्यवधान मान दलसिंह ने क्रूरतापूर्वक गर्दन मरोड़कर उसे ठिकाने लगा दिया।
5. हनुमानगढ़। छोटी बहनों को शक था कि बड़ी बहन किसी से फोन पर बात करती है। झगड़ा हुआ। दोनों छोटी बहिनों ने बड़ी बहिन को उसी की चुनरी से गला घोंटकर मार दिया।
6. माँ और पाँच बेटियों की मौत। कारण पति-पत्नी का झगड़ा। पत्नी ने पहले पाँचों बेटियों को मारा फिर स्वयं कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली।
ये एक दिन के एक पृष्ठ के समाचार हैं। और यह ऐसा इकलौता दिन नहीं है। प्रायः समाचार पत्र ऐसे समाचारों से अटे पड़े रहते हैं। परिवार स्वयं ही संस्कारों के अभाव में निर्माण की अपनी सामथ्र्य खो चुके हैं। अन्त में आज के बहुचर्चित काण्ड शीना मर्डर केस की भी चर्चा कर दें। आप देखेंगे कि परिवार की तो बात क्या विवाह नामक संस्था ही आज के संभ्रान्तों की नजर में अप्रासंगिक हो गई है। ‘लिव इन’ का दौर तेजी से पैर पसार रहा है। ऐय्याशी ही ऐय्याशी। जिम्मेदारी जीरो। शीना तथा मिखाइल ऐसी ही लिवइन की सन्तान। माँ इन्द्राणी ने कितनी शादी कीं या सम्बन्ध रखे- नित नए रहस्योद्घाटन।
आधुनिकता के दौर की स्वार्थपरता, भौतिक चमक दमक, विलासिता की साक्षात् घटना जिसमें माँ अपनी बेटी का ब्वसक इसववकमक डनतकमत कर देती है, मिसाल है, चेतावनी है कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है। माँ इन्द्राणी को अपनी कारगुजारी तो मंजूर थी पर भाई-बहिन के लिवइन सम्बन्ध स्वीकार नहीं थे। इस पतनोन्मुख समाज के पीछे अन्तर्निहित कारण सबको ज्ञात हैं परन्तु प्रगतिशीलता के झण्डाबरदार इसे स्वीकार करना नहीं चाहते। वे अभी भी उन्मुक्तता के पक्षधर और वर्जनाओं के विरोधी हैं और शायद तब तक रहेंगे जब तक उनका अपना कोई ऐसी स्थिति से नहीं गुजरेगा। महाभारत के एक आख्यान में प्रश्न किया गया कि संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है। महाराज युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- ‘हर कोई जानता है मृत्यु प्रत्येक को ग्रास बनाती है पर मानता नहीं कि उसकी मृत्यु होगी।’ ठीक यही दशा आज के समाज के कर्णधारों की है। वे टूटते बिखरते पारिवारों, बेटों-बेटियों को देख रहे हैं, कारण भी जान रहे हैं पर मोह निद्रा यह है कि यह विकार उनके अपनों को स्पर्श नहीं करेगा। यह खामख्याली है, दिवा स्वप्न है। इससे पूर्व कि बायोलाॅजीकल माता-पिता की खोज, डी.एन.ए. टेस्टिंग समाज में रोजमर्रा का अंग बनें परिवारों को पुनः संस्कार केन्द्र बनाने पर ध्यान दें। शिक्षणालय, शैक्षिक गुणवत्ता के साथ चारित्रिक उत्कर्ष के जनक भी बनें। दूसरे शब्दों में स्मार्ट सिटी संस्कार सिटी भी बने।