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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / सर्वव्यापी अंधविष्वास

सर्वव्यापी अंधविष्वास

कई बार हम सोचते हैं कि जड़-पूजा का जो स्वरूप व अंधविश्वास जनित जो घटनाएँ कथाएँ हम देखते-सुनते हैं वे हमारे भारत में ही हैं क्योंकि यहाँ गरीबी और अशिक्षा ज्यादा है तथा पौराणिक परम्परा में इसके आधार भी हमें प्राप्त हैं, पर यह बात सत्य नही है। विश्वभर में विस्तृत अन्य मतों में भी ‘चमत्कार को नमस्कार’ की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। ऐसी मान्यताओं की पृष्ठभूमि में वस्तुतः प्रमुख रूप से तीन तत्व कार्य करते हैं।
प्रथम – मानव मन सामान्य तौर पर प्रत्यक्ष पर विश्वास करता है, साकार प्रतिमा में उसे अपनी श्रद्धा व्यक्त करने हेतु प्रत्यक्ष आधार मिल जाता है। इसके साथ देखा-देखी, अधिकांश द्वारा अनुकरण व दृढ़ परम्परा का निर्मित हो जाना, उसे तात्विक चिंतन तथा विश्लेषण से दूर ले जाता है। एक मनुष्य के रूप में ही ईश्वर की कल्पना व उसके साथ तथावत् व्यवहार उसे सहज लगता है तथा ऐसी ही मानसिकता वाले करोड़ों की संख्या के मध्य सृष्टि क्रम से विरुद्ध घटनाओं को भी वह तर्क से परे मानता है।
कवि बड़े विकट और तर्काधारित सटीक प्रश्न करता है –
अजब हैरान हूँ भगवन तुम्हें कैसे रिझाऊँ मैं।
कोई वस्तु नहीं ऐसी जिसे सेवा में लाऊँ मैं।।
भोग लगाने पर तंज करते हुए कवि लिखता है कि जो सारे संसार को खिलाता है उसे कैसे और क्या खिलाया जा सकता है, जो सारे संसार को प्रकाशित करता है उसे दीपक दिखाने का कार्य बाल-बुद्धि ही कहा जावेगा। पर ये प्रश्न हमारी विचारतन्त्री को संभवतः झकझोरते नहीं हैं, अतः जड़-पूजा स्थलों पर एक जैसे दृश्य दिखायी पड़ते हंै यथा भगवान् को भोग लगाना, नहलाना, कपड़े पहनाना, शयन कराना, पंखे झलना, कूलर लगाना यहाँ तक कि यह मानकर कि एक ही स्थान पर बैठे-बैठे ठाकुर जी बोर हो गए होंगे, उन्हें कभी-कभी बाहर भ्रमण भी कराना आदि-आदि। इसकी विस्तार से चर्चा इस आलेख का उद्देश्य नहीं है। बात हम यह कहना चाहते हैं कि जड़-पूजा से जुड़ी यह स्थिति भारत में ही नहीं बाहर भी है। लगभग एक वर्ष पूर्व हम बैंकाक गए थे, वहाँ पटाया में एक प्रसिद्ध बौध मंदिर है, वहाँ का दृश्य भारत से बिलकुल भी अलग नहीं था। मूर्तियों पर और तो और मिनिरल वाटर तथा कोल्ड ड्रिंक का भोग लगा हुआ था। एक बौद्ध भिक्षु हाथ में एक बाँस की झाडू सी लेकर लोगों के सिरों पर रख-रख कर उनकी समस्याओं को दूर कर रहा था। ठीक यहाँ जैसा माहौल। भीड़ की रेलमपेल। अस्तु। दूसरी बात जो ऐसे स्थलों से जुड़ी हुई है वह है हर स्थल के महत्त्व व महात्म्य की अपनी गाथा। आज तक हमने ऐसा एक भी इस श्रेणी का स्थल नहीं देखा जहाँ के महत्त्व की अतिवादी चर्चा न की गयी हो तथा आगन्तुकों को प्रत्यक्ष व तुरंत लाभ की गारंटी न दी जाती हो। यही वह लोभ है जो शंकालुओं को भी, शिक्षितों को भी, तार्किकों को भी लाइन में लगवा देता है। इसी मंे तीसरी बात का तड़का लगाकर उपस्थिति-वृद्धि को सुनिश्चित कर दिया जाता है, वह है चमत्कार। जो भी प्रबंधन इन तीनों फैक्टर्स की जितनी अच्छी मार्केटिंग कर लेगा उतनी ही भीड़ उसके द्वारा नियंत्रित स्थलों पर आयेगी।
यह श्रद्धा मन की मुराद पूरी करने की आशा का प्रत्यक्ष परिणाम है। यह दावा केवल हिन्दू धर्मस्थलों के सम्बन्ध में है ऐसा समझना भारी भूल होगी। मुस्लिम तथा ईसाई धर्मस्थल भी चमत्कार तथा मनौती पूरी करने के दावे से उत्सर्जित आक्सीजन पर श्वांस ले रहे हैं।
क्योंकि ‘मेरे सारे दुःख तुरंत दूर हो जायँ’, यह ऐसी कामना है जिससे कौन बचा है? हाँ, जो कार्य-कारण सिद्धांत को अटल मानता है, परमेश्वर की कर्मफल व्यवस्था में जिनका अटल विश्वास है, जो सृष्टिक्रम से विरुद्ध को असंभव मानते हैं उनकी बात भिन्न है, अन्यथा तो विपत्ति के समय, जहाँ से भी जैसे भी राहत मिले वैसा करने को अच्छे से अच्छे शिक्षित और तर्कशील लोग तैयार होते देखे जाते हैं। यह चमत्कार मेरे साथ हुआ है अथवा ऐसा मैंने साक्षात्् देखा है, कहने वाले उत्प्रेरक तत्व के रूप में काम करते हैं। ऐसे तथाकथित चमत्कारों की अनेकानेक कारणों से कभी पूर्ण वैज्ञानिक तथा निर्दोष पद्धति से परीक्षा न होने से भ्रम-भंजन हो नहीं पाता, यही कारण है कि हिन्दू महिलाएँ हिन्दू धर्मस्थलों पर ही नही मुस्लिम धर्मस्थलों की शरण में बहुतायत से जाती देखी जाती हैं।
सर्वव्यापी अंधविष्वासऐसे स्थलों के अस्तित्व में आने के सम्बन्ध में भी ऐसी चमत्कारिक पृष्ठभूमि बतायी जाती है कि वे श्रद्धालुओं को अधिकाधिक आकर्षित कर सकें। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के 11 वंे समुल्लास में कुछ स्थलों से जुड़ी कहानियों की समीक्षा की है। यह यथार्थ समीक्षा वे इस कारण कर पाए क्योंकि उन्होंने उन स्थलों की वास्तविकता तथा चमत्कार की असलियत को अपनी आँखों से देखा था। उन्होंने ज्योतिर्लिंग, जगन्नाथ के मंदिर, ज्वालादेवी आदि के चमत्कारों का विश्लेषण सत्यार्थप्रकाश में किया है। विशेष जानकारी के लिए पाठकों को ये स्थल अवश्य पढ़ने चाहिए।
ठीक यही स्थिति हमें मुस्लिम तथा ईसाई धर्मस्थलों के सन्दर्भ में दिखाई दी। उसकी थोड़ी चर्चा यहाँ करेंगे। अजमेर की एक दरगाह के बारे में तो सभी जानते हैं। ख्वाजा साहब की दरगाह। वहाँ उर्स के अतिरिक्त भी मन्नतें माँगने वालों का तांता लगा रहता है।
एक दरगाह तारागढ़ के किले पर है। हमें पृथ्वीराज चैहान का किला देखना था। जब वहाँ पहुँचे तो एक शिष्ट नौजवान ने हमारी जिज्ञासा के उत्तर में कहा कि आपको दरगाह में होकर जाना पडे़गा, लगे हाथ दरगाह के दर्शन भी कर लीजिये। रास्ते में वह जगह का महात्म्य तथा वहाँ के चमत्कार बताने लगा। उसके अनुसार मीराबाई की माताजी मनौती मानने वहाँ आयीं थीं और मन्नत पूरी होने पर पुनः चादर चढ़ाने आयी थीं। उसके अनुसार जिसने भी यहाँ आकर मन्नत मानी वह अवश्य पूरी हुई। वहाँ मुख्यस्थल पर बहुत सारे धागे ठीक उसी प्रकार बंधे थे जैसे हिन्दू धर्मस्थलों, पेड़ों पर बंधे रहते हैं। उसके अनुसार मन्नत माँगने वाले इन्हें बाँध कर जाते थे तथा अभिलाषा पूरी होने पर उन्हें खोलने भी आते हैं। उस नवयुवक ने यह भी बताया कि विशिष्ट दिनों में समाधि स्थल जोर-जोर से हिलता है। वहाँ घुड़सवारों की कई समाधियाँ हैं पर चमत्कार यह है कि उनकी संख्या घटती बढ़ती रहती है। बकौल उसके आप कभी भी गिन लंे कभी गिनती एकसी नहीं होगी। इतना सब सुनते-सुनते एक दरवाजे के पास ले जाकर उसने बताया कि यह पृथ्वीराज के किले का बचा एकमात्र दरवाजा है जिसे सरकार ने संरक्षित घोषित किया हुआ है। देखने तो गए थे किला और देख सुनली दरगाह की कहानी। लाभ यह हुआ कि यह धारणा और पुष्ट हुई कि मत-मतान्तरों में भीड़ जुटाने तथा मान्यता वृद्धि के लिए एक ही जैसे उपाय प्राप्य हैं। तारागढ़ की दरगाह में हजरत मीरां सैयद हुसैन असगर खान्ग्स्वार की समाधि है। जिज्ञासा हुई कि इन सूफी संत की क्या कहानी थी? उस युवक ने इन सूफी साहब की उदारता तथा सहिष्णुता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। हमने इतिहास के कुछ पन्नों में झाँकने का प्रयास किया। आश्चर्य हुआ कि वो कोई दरवेश नहीं थे वह तो सैनिक था। वह शहाबुद्दीन गौरी का सेनानी था। जब शहाबुद्दीन ने अजयमेरु (अजमेर) पर अधिकार कर लिया तो इन मीरां सैयद हुसैन असगर खान्ग्स्वार को वहाँ का गवर्नर नियुक्त कर दिया था। जब एक दिन मीरां सैयद हुसैन असगर खान्ग्स्वार के अधिकांश सैनिक राजस्व वसूली करने बाहर गए थे तो मीरां सैयद हुसैन असगर खान्ग्स्वार के साथ-साथ किले के अन्दर रह गए चन्द सिपाहियों का कत्ल राजपूतों ने कर अपनी हार का बदला लिया। एक सेनानी ने दरवेश की उपाधि कैसे प्राप्त की? जो जिन्दगी भर युद्ध करता रहा वह चमत्कार करने वाला संत कैसे बन गया? इस बारे में एक लम्बी कहानी गढ़ी गयी है। अजमेर के राजा से क्रुद्ध हो बदला लेने को तत्पर एक फकीर की सहायतार्थ गौरी के आदेश पर मीरां सैयद हुसैन असगर खान्ग्स्वार निकाह के दौरान बीच में उठकर हिन्दुस्तान आ गए और अजमेर को फतह किया। इसी में अनेक चमत्कार जोड़ दिए गए। जैसे कि नमाज पढ़ रहे मीरां सैयद हुसैन असगर खान्ग्स्वार पर जब एक वजनी पत्थर फैंका गया तो अंगुली के इशारे से उसे मीरां सैयद हुसैन असगर खान्ग्स्वार ने बीच में ही रोक दिया जो आज भी उसी स्थिति में है, जिसे अधरशिला कहा जाता है।
तो चमत्कारों एवं सृष्टि विरुद्ध नियमों के कथन के बिना इन मजहबों की स्थिति नहीं है। सबसे बड़ी बात है कि कुरआन में इस बात को सिद्धांततः स्वीकार कर लिया गया है कि खुदा न सिर्फ मौजिजे और खुली निशानियाँ पैगम्बरों को देता है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर अपनी तरफ से अपनी सत्ता को सिद्ध करने हेतु चमत्कार दिखाता रहता है। यही स्थिति बायबिल की है। ज्ञान-विज्ञान विरुद्ध सैकड़ों बातें इनमें भरी पड़ीं हैं। ईसा मसीह को भी ऐसी चमत्कारिक शक्तियों का स्वामी बताया गया है , वह स्पर्श मात्र से असाध्य रोगियों को ठीक कर देते थे, अब यह शक्ति चर्च के पादरियों में भी आ गयी है। वे तो स्पर्श के बिना भी दूरस्थ रोगियों को ठीक कर देते हैं। हमने ऐसी प्रार्थना सभा स्वयं देखी है जिसमें अंधों की आँख ठीक कर दी गयीं ऐसे अंधे को मंच पर बुला कर उसकी साक्षी भी दिलवायी गयी। पर उस प्रार्थना सभा में लगातार सात दिन तक आने के बाद भी एक ऐसी विकलांग बालिका जिसे हम पूर्व से जानते थे यथास्थिति में बनी रही, उसकी स्थिति में रत्ती भर भी सुधार नहीं हुआ। पाठक असलियत क्या है समझ सकते हैं।
ऐसे सभी स्थानों पर भारी भीड़ रहती है जो स्वयं आगे के लिए मार्केटिंग का कार्य करती है। ‘नकटे को ईश्वर दर्शन’ की कथा की तरह प्रायः ऐसे भक्तगण अपनी मुराद पूरी होने की पुष्टि भी कर देते हैं। यहाँ कोई तर्क नहीं चलता, विज्ञान का यहाँ कोईदखल नहीं है। बस जरा पता चलना चाहिए कि कहीं खडाऊँ स्वयं चलने लग गयी हैं, कहीं हनुमान जी की प्रतिमा रोने लग गयी है, कहीं मरियम की प्रतिमा रोने लग गई है, अंधविश्वास को आस्था का नाम देकर स्वयं को सही होने का आश्वासन देने वाले लोग भारी संख्या में पहुँच जाते हैं और देखते ही देखते एक नए तीर्थ का सृजन हो जाता है।
सभी मतों में गुरुओं बाबाओं की भी यही स्थिति है। दरगाहें मुराद पूरी करती हैं तो पादरी महोदय चंगाई। एक भी ऐसा बाबा नहीं जो इन अलौकिक शक्तियों से लैस न हो। और अगर कोई है तो फिर वह धन सम्पन नहीं हो सकता।
हम न किसी की आलोचना करना चाहते हैं न किसी का दिल दुखाना। पर चिंतन मनन हेतु तर्काधारित सत्य पर विचार करने हेतु प्रेरित करना हमारा कर्तव्य है। अभी कुछ दिनों पूर्व अत्यन्त प्रसिद्ध एक गुरु के बारे में बी.बी.सी. द्वारा निर्मित एक डोक्यूमैंट्री देखने में आयी। उसमें प्रमाण सहित बाबा के चमत्कारों की तो पोल खुली ही है साथ ही उनके जीवन के अनखुले पन्ने भी सामने आये हैं जिनका अन्वेषण तत्समय में प्रभावशाली लोगों के दबाब में नहीं हो पाया। एक धारावाहिक ऐसे संत पर बनाया गया जिसमें प्रत्येक एपिसोड चमत्कारों से युक्त था।
ऐसे सभी धर्मस्थलों, गुरुओं, मजहबों से जिस दिन गढ़े गए चमत्कारों की कहानियों को, उस स्थल पर आने से या दर्शन लाभ करने से होने बाले लाभों के वर्णनों को हटा दिया जावेगा तब किस स्थल पर कितनी भीड़ होगी यह देखने वाली बात होगी। स्थिति यह है कि विष्वभर से आये दिन ऐसे चमत्कारों की घटनाएँ सामने आती रहती हैं। यहाँ कुछ बानगी प्रस्तुत है – २००७ की बात है। २० जनवरी शनिवार का दिन था। राजकोट (गुजरात) के एक स्थानीय हनुमान मंदिर में हनुमान जी की आँख से आँसू बहने लगे। वायु-वेग से इस चमत्कार की खबर फैल गयी। रात होते-होते भारी भीड़ इकट्ठी हो गयी। जैसे तैसे पुलिस प्रशासन को बुलाया गया। प्रशासन ने भीड़ को काबू में किया। आलम ये था कि लोगों ने अपनी झोलियाँ खोल दीं। दान देने लगे।
बनारस में भी एक सज्जन श्री नन्दलाल शर्मा के घर में स्थित हनुमान मंदिर में भी मूर्ति के आँसू बहने लगे। भक्तों की भीड़ का क्या कहना? नंदलाल का कहना था कि जब उसके बेटे ने उसे आँसू वाली बात बतायी तब उसे विश्वास नहीं हुआ पर जब उसने देखा तो यह सच था। उसने मूर्ति के चेहरे को पानी से धोया फिर भी हनुमान जी के आँसू बह रहे थे। उधर भगवान् कृष्ण की लीला स्थली भी क्यों पीछे रहे। वहाँ एक छोटे गाँव में भी हनुमान जी रोने लगे। हमें आशा है कि पाठकगण को गणेश जी का दूध पीना याद होगा ही।
जड़ वस्तु में भावनाएँ उत्पन्न होना फलस्वरूप पत्थर अथवा लकड़ी की बनी प्रतिमा का रोना सृष्टिक्रम से विरुद्ध तथा असंभव है, पर यही तो वे साधन हैं जिनसे आस्था के नाम पर भारी भीड़ को आकर्षित किया जाता है तथा उनका बौद्धिक तथा अन्य प्रकार का शोषण किया जाता है। ऐसी चमत्कारी घटनाएँ भारत अथवा हिन्दुओं के यहाँ ही नहीं होतीं, इनसे कोई भी नहीं बचा है।
जापान के अकीता में सिस्टर एग्नस कतुस्को को पवित्र मेरी स्वप्न में दिखने लगीं। 28 जून 1973 को सिस्टर एग्नस के बाएँ हाथ के अन्दर की ओर क्रास की शक्ल का घाव उभर आया और इससे काफी मात्रा में खून बहने लगा तथा सिस्टर को असह्य वेदना भी हुई। 6 जुलाई को एग्नस ने प्रार्थना करते हुए पवित्र मेरी के लकड़ी के स्टेचू से आवाज आती सुनी। उसी दिन कुछ अन्य सिस्टर्स ने स्टेचू के सीधे हाथ से खून की बूँदें टपकते देखीं। स्टेचू का यह घाव 29 सितम्बर तक रहा फिर गायब हो गया। परन्तु उसी दिन स्टेचू के माथे तथा गले से पसीना निकलने लग गया। दो वर्ष पश्चात् 4 जनवरी 75 को प्रतिमा रोने लग गयी। 6 वर्ष 8 महीने तक कुल 101 बार प्रतिमा ने रुदन किया, साथ ही यह भी हुआ कि सिस्टर एग्नस जो पूरी तरह बहरी थी, पूर्ण ठीक हो गयी। अकीता विश्वविद्यालय में प्रतिमा से निकले खून, पसीने की जाँच की बताते हैं तथा जाँच रिपोर्ट में सभी चीजों को मानवीय बताया गया, ऐसा कहा जाता है। लकड़ी की प्रतिमा से मानवीय उत्पाद? संभव नहीं। अगर रिपोर्ट सही है तो फिर एक अन्य घटना की तरह किसी की जालसाजी की इसमें पूरी-पूरी संभावना है। पर आगे चर्च कर्मचारियों के डी.एन.ए.का मिलान तथा तुलनात्मक शोध नहीं किया गया। जून 88 में पोप बेनीडिक्ट 16 ने इस चमत्कार पर अपनी मोहर लगा दी अतः अब ईसाई समुदाय इस पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता। हमने ऐसे चमत्कार के पीछे इंसानी दिमाग की बात यूँ ही नहीं कही।
रोम में फोरिल में मार्च 2006 में सांता लूसिया चर्च के कस्टोडियन ने प्रसिद्ध किया कि पवित्र मेरी की प्रतिमा रोयी और उसकी आँखों से खून निकला। इस कस्टोडियन का नाम विन्सेंजो डी कोस्तेंजो था। यह कस्टोडियन अन्य की तरह भाग्यशाली नहीं निकला पुलिस ने इसकी सघन जाँच की तथा पाया कि विन्सेंजो डी कोस्तेंजो स्वयं अपना खून इस कार्य के लिए काम में लाया था। विधि विज्ञान विशेषज्ञों ने सघन जाँच में पाया कि प्रतिमा से जो खून का नमूना लिया था उसका डी.एन.ए. तथाविन्सेंजो डी कोस्तेंजो की लार का डी.एन.ए. आपस में मिलते थे।
मुकद्दमा चलाया गया। ऐसी सैंकड़ों सहस्रों घटनाएँ होती रहती हैं। पर निश्चित सिद्धांत यह है कि कार्य-कारण सम्बन्ध और सृष्टिक्रम के विरुद्ध कुछ भी नहीं होता। भली प्रकार वैज्ञानिक तरीके से गंभीर व स्वतन्त्र जाँच की जाय तो हर चमत्कार के पीछे इंसानी दिमाग की मौजूदगी देखी जा सकती है अथवा कुछ एक प्राकृतिक ऐसी स्थितियाँ हो सकती हैं जिनकी अभी वैज्ञानिक व्याख्या नहीं की जा सकी है, पर ऐसे चमत्कार से आपका भाग्य बदलने वाला है यह तो कम से कम भूल जायँ। तनिक चतुराई से ऐसा भ्रम पैदा किया जा सकता है।
इटली के तीन वैज्ञानिकों ने चाक, हाईड्रेटेड लोहे तथा नमक के पानी से ऐसा मिश्रण बनाया जो कि तनिक हिलाने पर लहू जैसा गीला हो जाता है पश्चात्् स्थिर होने पर सूख जाता है। एक अन्य वैज्ञानिक जान फिशर ने तेल-मोम तथा रंग को मिला ऐसा मिश्रण तैयार किया जो तापमान बढ़ने के साथ पिघलकर बहने लगता है।
विश्व में अनेक जगह ऐसे अंधविश्वासों से जन-जन को वैज्ञानिक तर्कों व प्रायोगिक तरीकों के सहाय से, बचाने के प्रयास चल रहे हैं। हमारे विचार से इस बौद्धिक विनाश को रोकना आर्यसमाज का प्राथमिक कार्य होना चाहिए। पर यह कार्य आज के युग में केवल लेखनी हिला देने से संभव नहीं है। ऐसी हर घटना के तार्किक व वैज्ञानिक विश्लेषण हेतु पूरा सुविधा सम्पन्न प्रकल्प तैयार किया जाकर, उस निष्कर्ष को जन-जन तक पहुँचाने का प्रबंध आज के युग की शैली से कदमताल करते हुए करने के ठोस प्रयास होने चाहिए।