ये कहाँ आ गए हम
अभी हमने अपने गणतंत्र का 63 वाँ जन्मदिन मनाया है। यह अत्यन्त हर्ष का विषय है पर साथ ही आत्मावलोकन का भी। 1857 में हमारा प्रथम स्वातंत्र्य समर प्रारम्भ हुआ। मातृभूमि की बलिवेदी पर अपने शीश काटकर अर्पित कर देने वाले वीरों की एक सुदीर्घ परम्परा के फलस्वरूप हमें स्वतंत्र भारत भू पर श्वाँस लेने का सौभाग्य मिला। युग प्रवर्तक महर्षि दयानन्द ने भी स्वराज्य को सर्वाेपरि स्थान दिया। इस स्वराज्य की गति सुराज्य की ओर हो, हम एक ऐसे समाज की स्थापना करने में सक्षम हों जहाँ बिना किसी भेदभाव के सबकी सर्वाधिक उन्नति हो, सामाजिक विषमताओं की समस्त खाइयों को पाट दिया जाय, सबको समान अवसर,समान आदर मिले, महर्षि दयानन्द के शब्दों मंें कहें तो हम एक ऐसे परिवेश का निर्माण कर सकें जहाँ ‘प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये’ ऐसी भावना प्रत्येक के हृदय में बलवती हो। जब विचार करते हैं तो हमें लगता है कि हम उतने सफल नहीं हुए। रावी के तट पर हमने जो शपथ ली थी उसे पूर्ण नहीं कर पाये। हम अपने गणतंत्र की मूल संकल्पना में ‘सामजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता; व्यक्ति की गरिमा,राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता; जैसे लक्ष्यों को निर्धारित कर जिस भव्य भवन का निर्माण करना चाहते थे, वह आधा अधूरा ही रहा। विधि का शासन लागू करने हेतु किसी भी गणतंत्र में स्वतंत्र न्यायपालिका का होना आवष्यक है। हमने संकल्पना तो यही रखी, व्यवस्था भी ऐसी रखी, परन्तु जिन मुद्दों से कुर्सी प्रभावित होती हो न्यायपालिका के ऐसे निर्णयों को समतामूलक होते हुए भी संवैधानिक संशोधन की शक्ति के द्वारा कुचल दिया। आज भी ऐसा हो रहा है।
वस्तुतः ‘सुराज्य’ की अवधारणा ‘परमार्थ’ पर टिकी है। जब-जब भी ‘स्वार्थ’ बलषाली हुआ है,सुराज्य स्वप्न ही रहा है। हमें इस बात पर सदैव आष्चर्य रहा है कि एक व्यापारी कम्पनी जो बड़े विनीत भाव से जहाँगीर के दरबार में भारत में मसालों, चाय आदि का व्यापार करने की स्वीकृति लेने आई, भारत के 33 करोड़ लोगों की भाग्य विधाता कैसे बन गई? इसका एक ही उत्तर है ‘स्वार्थ’। स्वार्थ उदात्त मूल्यों तथा सार्वजनिक हित की बलि लेता ही है। विदेषी उपहार और विलासिता के साधन, जिनके दर्षन की चकाचौंध ने, जहाँगीर को उसी भाँति अन्धा कर दिया, जिस प्रकार पुत्र-मोह रूपी स्वार्थ ने आकण्ठ डूबे अन्धे धृतराष्ट्र के अन्दर की आँखों को भी अन्धा कर दिया था। महाभारत का सर्व-विनाषक युद्ध अगर धृतराष्ट्र के स्वार्थ की देन था तो जहाँगीर के स्वार्थ ने स्वाधीन भारतीयों के गले में गुलामी का पट्टा डाल दिया।
आज यह ‘स्वार्थ’ नामक राक्षस और भी भयंकर रूप में हमारे सामने अट्टाहास कर रहा है। कलमाड़ी, कनिमोझी, राजा जैसे लोगों की एक लम्बी सूची से यह प्रत्यक्ष है। यह ‘स्वार्थ’ नहीं तो क्या है कि ‘प्रजा’ के अनेकों दुखीजनों द्वारा आत्महत्या करने पर भी जिस शासक की आँखें सजल नहीं होतीं वह अपनी बेटी के जेल जाने पर फूट-फूट कर रो पड़ता है। भ्रष्टाचार की पायदान पर हम नीचे उतरने की बजाय ऊपर चढ़ रहे हैं। समता के जिस आदर्ष को पाने के लिए हमने संविधान में भावना व्यक्त की थी,उसके लिए आवष्यक था कि जन्मगत जातिप्रथा रूपी विषबेल को पूर्णतः समाप्त कर दिया जाये। पर इस ‘स्वार्थ’ राक्षस का क्या करंें? कुर्सी की भूख ने,वोटों की राजनीति की गणित ने इसे और पुष्ट कर, इतना शक्तिषाली बना दिया है कि यह भस्मासुर की भाँति सब कुछ भस्म कर रहा है। दाह की इस अग्नि में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नामक ज्वलनषील पदार्थ के डलने से इसकी लपटें गगनचुम्बी हो रही हैं। हमने 65 वर्ष पूर्व स्वतंत्रता तो प्राप्त की थी, पर आज हमारेे निर्णय चाहे वह न्यूक्लियर संधि का मामला हो,बौद्धिक पेटेन्ट का मामला हो,सीमा पार से घुसपैठियों की निरन्तर बढ़ती जनसंख्या का प्रष्न हो, इन विषयों पर निर्णय लेने में केवल ‘देषहित’ को ध्यान रखें, क्या ऐसी स्वतंत्रता हम ले पा रहे हैं? अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक समूह के दबाव इनके पीछे कार्यरत हैं, ऐसा कुछ बुद्धिजीवियों का विचार है।
हमें ध्यान रखना होगा कि बदलते वैष्विक परिवेष में नये नाम से फिर से कोई ईस्ट इंडिया कम्पनी परोक्ष प्रकारों से हमारे स्वदेष हित के निर्णयों को किंचित मात्र भी प्रभावित न कर सके।
प्रभुकृपा करे। हम सब अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करें और हमारा प्रिय देष फिर से षीर्षस्थ ऊँचाइयों को स्पर्ष करे। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी की कामना साकार हो-
मानस भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती।
भगवान फिर से विश्व में गूँजे हमारी भारती।।