दरकते रिश्ते
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में ही रहता है। समाज के अन्य सदस्यों के साथ वह भिन्न-भिन्न प्रकार से व्यवहार कर सकता है। सर्वप्रथम वह विभिन्न प्रकार की क्षमताओं का अर्जन करता है। फिर स्वबुद्धि तथा मनःस्थिति के अनुसार वह क्षमताओं का प्रयोग करता है। वह शक्तिशाली है तो अपनी शक्ति के बल पर अन्यायपूर्वक लूट खसोट भी कर सकता है तो उसी ताकत के सहारे निर्बलों की रक्षा भी कर सकता है। अपने बुद्धि कौशल के सहारे नये नये अविष्कार कर स्वयं को व समाज को सुखी बनाने का प्रयास भी कर सकता है तो इसके विपरीत आचरण कर केवल और केवल अपने सुख को प्राप्त करने के क्रम में औरों को दुःखी कर सकता है। समाज में अनेक प्रकार की मनःस्थिति के लोग आपको मिल जाऐंगे। एक वह जो केवल अपना हित चिन्तन करते हैं। रात दिन इस ‘मैं’ को तृप्त करने में अन्य की हानि करने में उन्हें तनिक भी शंका नहीं होती । दूसरे वे जो अपना हित तो साधते हैं पर अन्यों को नुकसान नहीं पहुँचाते। तीसरे वे जो अन्यों को लाभ पहुँचाने की मानसिकता रखते हैं, इस हेतु प्रयास भी करते हैं पर इस परहित की सीमा वहीं तक है जहाँ तक उनका नुकसान न हो, चौथे इस प्रकार के हैं जो दूसरों का हित करने में आत्मोत्सर्ग करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते। इस चतुर्थ प्रकार के वर्ग से ही समाज का अभ्युदय हुआ है और हो सकता है। समाज का सदस्य उपरोक्त चारों वर्गाें में से किस वर्ग का हो उसका निर्धारण समाज की प्रथम इकाई ‘परिवार’ में ही होता है। परिवार समाज की सबसे सशक्त इकाई है। मनुष्य निर्माण का कार्य इसी फैक्टरी में होता है। परिवार समाज का ही छोटा रूप है। अन्य के साथ किस प्रकार का व्यवहार व्यक्ति करे उसका अभ्यास परिवार में ही हो पाता है। पुत्र-पुत्री का माता-पिता से संबंध,भाई-भाई का आपसी संबंध,भाई-बहिन का आपसी व्यवहार आगे की दिशा तय करता है। जिस परिवार में ऐसे सदस्यों का निर्माण हो जो एक दूसरे पर जान छिड़कते हों, एक दूसरे के आदर सम्मान के लिए जो अपने कष्टों को फूलों की सेज समझते हांे,परिवार में दूसरे सदस्य की भावना को ठेस पहुँचाना जिनके निकट मृत्यु के समान हो ऐसे परिवारों में ही चौथे वर्ग के मनुष्यों का निर्माण होता है। उनका स्वभाव ही इस प्रकार का बन जाता है कि परिवार से इतर सदस्यों से भी कमोबेश ऐसा ही व्यवहार करते हैं।
सौभाग्य से भारतीय परिवार इस दृष्टिकोण से समृद्ध रहे हैं। जहाँ पत्नी-पति,सासु,श्वसुर,पुत्र-पुत्री के लिए हर प्रकार का त्याग करने में प्रसन्नता का अनुभव करती है, वहाँ पत्नी के सम्मान के लिए पति दुनिया भर से भिड़ने का साहस रखता है। भाई की कलाई का नन्हा सा धागा बहिन के हर संकट के समय छाया के रूप में उसकी रक्षार्थ खड़े रहने का संकल्प दोहराता रहता है तो बहन हर क्षण पीहर पक्ष के प्रत्येक सदस्य की चहुँमुखी उन्नति की कामना करती रहती है। जहाँ भाई एक और एक दो नहीं, हर आपदा में 11 बन जाते हों,वहाँ सिर्फ ‘इन्द्रों’ (जो जीव मात्र के सुख-दुःख में अपना सुख-दुःख समझंे)का ही निर्माण संभव है ‘अराव्ण’(कृपण,अनुदार,स्वार्थी केवल स्वयं की सोचने वाला) का नहीं। रामायणकालीन राज-परिवार महान् आदर्श के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। राम का कोई दोष नहीं था और न ही कोई अयोग्यता उनके अन्दर थी। पर पिता की इच्छा मात्र जानने पर 14 वर्ष के लिए वन जाने का निर्णय करने में उन्हें एक क्षण की देर नहीं लगी थी। सीता राजकुमारी थीं-राजवधू थीं, सुख-सुविधाओं का बाहुल्य उन्होंने चारों ओर देखा था,परन्तु समय उपस्थित होने पर पति की अनुगामी बन कष्ट-कंटकों से भरा जीवन अपनाने हेतु हठपूर्वक अपनी बात मनवाती हैं। लक्ष्मण को तो वन जाने की आज्ञा नहीं मिली थी,पर बड़े भाई राम की सेवा के लिए राज-वैभव को ठोकर ही नहीं मारी वरन् अपनी युवा पत्नी से 14 वर्ष के लिए पृथक् रहने की व्यथा भी सहन कर ली। अब सारा वैभव भरत के लिए है पर उसे स्वीकार नहीं। वह राम को लौटा लाने चित्रकूट जाते हैं। राम – भरत दोनों अपने अपने तर्क रखते हैं कि राज्य दूसरा करेे। वाह, क्या अनुपम दृश्य था।
कवि ने भी खूब लिखा-
राजतिलक की गेंद बनाकर खेलन लगे खिलाड़ी,
इधर राम और उधर भरत,दोनों ने ठोकर मारी
शिक्षा दे रही जी हमको रामायण अति प्यारी।
ऐसा दृश्य ढूढ़ने से भी क्या विश्व इतिहास में मिलेगा? यही चरित्र भारत की ताकत रही है। पर आज परिस्थिति बदल रही है। यही ताकत कमजोर हो रही है। परिवार नामक संस्था कमजोर हो रही है,बिखर रही है और तथाकथित प्रगतिशीलों की दृष्टि में तो महत्वहीन हो रही है। ‘परिवार’ के दो सर्वप्रथम शिल्पकारों व सदस्यों के विचार ही परिवर्तित हो रहे हैं। जन्म-जन्मान्तर का साथ अब विवाह-विच्छेद का विकल्प ध्यान में रख सृृजित हो रहा है। ऐसे में जहाँ विध्वंस के विनाशकारी बीज के साथ सृजन होगा तो उस कृति का अस्तित्व कितना दीर्घ होगा यह भगवान भरोसे ही है। दोनों घटकों का ‘आत्म निर्भर’ होना सकारात्मक हो सकता है पर आज सहिष्णुता व सामफ्जस्य की हत्या कर रहा है। तथाकथित ‘न्यूक्लियर परिवार’ की अवधारणा ने अशक्त होते जा रहे परिवार के वृद्धों को हाशिये पर ला खड़ा किया है,ऐसे में पितृ-श्राद्ध व पितृ-तर्पण का क्या स्थान होगा समझा जा सकता है। इस सबमें अब परिवार उदात्त संस्कार की निर्मात्री संस्था के रूप में महत्वहीन होती जा रही है। अतः अब राम पैदा नहीं होते। चतुर्थ वर्ग के ‘इन्द्रों’ का निर्माण अब कैसे हो? इसीलिये समाज में भी प्रथम वर्ग के ‘अराव्ण’ मानसिकता के सदस्यों की वृद्धि हो रही है। अब निर्माण शाला ही अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयत्नशील नहीं है तो यह होना ही है। रिश्ते दरक रहे हैं । जिन संबंधों की महिमा का गान अभी हम करके चुके हैं उनके ठीक विपरीत स्थितियाँ रोज अखबारों में शीर्षक बन रही हैं। पिता-पुत्र,भाई-भाई,भाई-बहिन सब रिश्तों में से स्नेह – बाती सूखती जा रही है। जिसकी कभी कल्पना नहीं की थी ऐसे कुछ रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाओं से समाचार पत्र भरे रहते है। कतिपय उदाहरण देखिये।
रिश्ते को कलंकित करने वाले माँ-बेटे को पाँच साल कैद- उदयपुर, सौतेले माँ-बेटे के नाजायज रिश्ते से परेशान होकर तीन वर्ष पूर्व बहू के आत्महत्या करने के बहुचर्चित मामले में शनिवार को कोर्ट का फैसला आ गया। धारा 306 के तहत पाँच-पाँच साल की कठोर कैद व तीन-तीन हजार का जुर्माना, दहेज प्रताड़ना के मामले में धारा 498ए में तीन साल का कठोर कारावास व एक-एक हजार जुर्माने की सजा सुनाई गई है।
पिता की हत्या, बेटा गिरफ्तार। उदयपुर, गोवर्धनविलास क्षेत्र के चणबोरा काया गाँव में बीती रात बेटे ने वृद्ध पिता की लट्ठ से वार कर हत्या कर दी। निःशक्त पिता बीमार रहता था। गाली देने की बात को लेकर बेटे ने हमला कर दिया था। संपत्ति के लिए बेटी न्ै की थी माँ की हत्या । जोधपुर, चार दिन पहले घर में लगी आग से झुलसी व महात्मा गाँधी अस्पताल में दम तोड़ने वाली वृद्धा संध्या रानी को उसकी बेटी कल्पना ने संपत्ति हड़पने की नीयत से जला दिया था। पुलिस का कहना है कि माँ-बेटी के बीच में मकानों को लेकर विवाद था। ये कतिपय घटनाएँ पवित्र रिश्तों के मध्य टूटन का अनुभव कराने हेतु पर्याप्त हैं।
तार-तार होते हुए रिश्ते – लक्ष्मीनगर-श्रीगंगानगर , में रहने वाली बुजुर्ग महिला ने जब 9 मास कष्ट सहन कर बेटों को जन्म दिया होगा, जब स्वयं रातों को जागकर उन्हें सुलाया होगा तो कभी यह नहीं सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि यही बच्चे उसे वृद्धावस्था में कमरे में बंद कर, ताला लगा ,अकेले तड़पने के लिए छोड़ देंगे।
विद्यादेवी के पति महावीर प्रसाद के चार बेटे हैं। पिता की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने माँ को बाँट लिया अर्थात् एक-एक महीने सबके पास रहे ऐसा निश्चय किया । जब एक वर्ष पूर्व विद्यादेवी को लकवा हुआ तो दवा दिलवाना तो दूर घर में कैद कर रात को ताला लगा देते थे ताकि माँ के दर्द से चीखने की आवाज उनकी नींद में विघ्न न डाल सके । श्रीगंगानगर स्थित तपोवन आवेदना संस्थान के अधिकारियांे ने मिलकर नर्क से भी बदतर जीवन जी रही बुजुर्ग महिला को संस्थान में पहुँचाया। अब शायद इस माँ को कुछ राहत मिल सके । ऐसे में एक प्रश्न मन में उठे विना नहीं रहता कि श्रवण कुमार जैसे पुत्र की सांस्कृतिक विरासत वाले हमारे प्यारे देश में रिश्ते तार -तार क्यों हो रहे हैं?
चाचा का खुनी खेल – भूमि -विवाद के चलते भतीजे को जिंदा आग में फैंक दिया । उदयपुर के नाई क्षेत्र के बछर गाव की लोमहर्षक घटना यह सोचने को विवश करती है कि जिस राष्ट्र में राम और भरत जैसे चरित्र-नायक हुए हों जिन्होंने चक्रवर्ती साम्राज्य की गेंद बनाकर एक दूसरे के पाले में फैंकी थी तथा जहाँ वर्ष में हर समय कहीं न कहीं राम कथा चलती रहती हो ,क्या कारण है कि भूमि के छोटे से टुकड़े के लिए, थोड़ी सी सम्पत्ति के लिये सारे रिश्ते तार-तार कर दिए जाते हैं। वस्तुतः दिन रात चलती राम कथाएँ स्वर्ग पाने के साधन के रूप में समझी जाने लगी हैं। कथाकार भी इसी स्थिति में प्रसन्न हैं। रामायण के आदर्श पात्र मानव को दिव्य प्रेरणा दे सकें, हम उनका अनुसरण करें, ऐसा कोई प्रयत्न दिखाई नहीं देता। कविवर मैथिलीशरण गुप्त ने इसी लिये मानव चेतना को झकझोरने हेतु लिखा- ‘सन्देश’ नहीं मैं स्वर्गलोक से लाया, इस भू-तल को ही स्वर्ग बनाने आया। आऐं! हम सभी रामायण के पावन दिव्य चरित्र नायकांे का अनुसरण करें केवल कथा-श्रवण मात्र से समाज की गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं आने वाला। – अशोक आर्य, 09314235101, 09001339836