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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / अहंकार का पराभाव

अहंकार का पराभाव

अहंकार का पराभव तो होता ही है । हर ऊँट के लिए कोई न कोई और कभी न कभी, कोई पहाड़ आता ही है । प्रसिद्द कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने लिखा है –
मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ, एक दिन जो था मुडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ, एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन सा, लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़ों की लगे, ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।।
जब किसी ढंग से निकल तिनका गया, तब समझ ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा, एक तिनका है बहुत तेरे लिए।।
पर प्राय अहंकारी ऐसे सोचता नहीं । सोच ले तो फिर बात ही क्या है। यह अहंकार ऐसा असाध्य रोग है कि उसे वह पहाड़ भी अपने से नीचे दिखायी देता है । यहीं से कुतर्क जन्म लेता है। येन केन प्रकारेण वह अपने को सही सिद्ध करने में जुट जाता है। इसी मानसिकता को महर्षि दयानन्द ने अपने महान् ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में इस प्रकार निरूपित किया है। ‘जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है, इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता (सत्यार्थ प्रकाश पृ. 4)।
जैसा कि महर्षि लिखते हैं कि मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है (सत्यार्थ प्रकाश पृ. 4) ठीक यही स्थिति अहंकारी की होती है वह अपने आत्मा में अपने कृत्यों की दुष्टता से परिचित होता है, पर सत्य को न स्वीकार कर आत्म हनन करता है। यजुर्वेद के 40 वें अध्याय के मंत्र ४ में स्पष्ट कहा है-
असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृता । ताँस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ।।
अहंकार में डूबे व्यक्ति की मानसिकता महाभारत के दुर्योधन की भाँति होती है-
‘जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्ति, जानामि अधर्मं न च मे निवृत्ति ।’
यह निवृत्ति क्यों नहीं होती ? इसलिए कि इसके लिए सत्य को स्वीकार करना पड़ेगा अर्थात् यह स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अब तक गलत था और यही बात उसे कतई स्वीकार नही, चाहे कुल, समाज, राष्ट्र कुछ भी क्यों न नष्ट हो जाय । आदमी का अहंकार उसको दृष्टि से अंधा, मति से भ्रमपूर्ण बना देता है । अच्छे-अच्छे समझदार लोग अहंकार के कारण गलत निर्णय ले लेते हैं । अहंकारी व्यक्ति हर वो काम करना चाहता है, जिससे उसके अहंकार को और बल मिले । स्थितियों से निबटने से ज्यादा उसकी रुचि अपनी अहंकारपूर्ण प्रतिष्ठा में रहती है । उसके कृत्य से परिवार, समाज, समुदाय अथवा राष्ट्र को कितनी हानि पहँुच रही है अथवा संभावित है, यह चिंतन वह नहीं करता ।
कंस का भी यही हाल था और दुर्योधन के अहंकार से ही महाभारत ने जन्म लिया था , जिसमंे 18 अक्षौहिणी सेना, विद्वान्, नीतिज्ञ और पूरा कुल विनष्ट हो गया। अहंकार के मद में चूर व्यक्ति की दशा वही होती है जैसी कि उस मनुष्य की जो यह जानता है कि जिस प्रकार मृत्यु अवश्यम्भावी है, परन्तु वह काल के क्रूर हाथों से सुरक्षित रहेगा , वैसे ही उसके अहंकार का दुष्परिणाम उसे ज्ञात है कि अहंकारजन्य दुष्कृत्यों की माफी समाज में नहीं होती, उसे देर से ही सही आइना दिखाने वाला मिल ही जाता है, इस बात का साक्षी इतिहास है, पर अहंकारी यही सोचता ही कि वह सही है, अन्य सब गलत हैं, अल्पज्ञ हैं। यह साबित करने के लिए वह औरों के चरित्र-हनन के प्रयास में जुट जाता है । यहाँ तुलसी दास जी को उद्धृत करना समीचीन होगा –
तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ। तिनके मुँह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
‘‘दूसरों की निंदा कर स्वयं प्रतिष्ठा पाने का विचार ही मूर्खतापूर्ण है। दूसरे को बदनाम कर अपनी तारीफ गाने वालों के मुँह पर ऐसी कालिख लगेगी जिसे कितना भी धोया जाये मिट नहीं सकती।’’
तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान। तुलसी जिअत बिडम्बना, परिनामहु गत जान।।
‘‘सौंदर्य, सद्गुण, धन, प्रतिष्ठा और धर्म भाव न होने पर भी जिनको अहंकार है उनका जीवन ही बिडम्बना से भरा है। उनकी गत भी बुरी होती है।’’ उसकी ऐसी सोच बनाने में ठकुरसुहाती बातंे कहने वाले अनुगामी चाटुकार भी जिम्मेदार हैं जो हर समय हर पल उसे सही रास्ते पर होने का विश्वास दिलाते रहते हैं।
महर्षि दयानन्द ने लिखा है-
‘‘इस संसार में दूसरे को निरंतर प्रसन्न करने के लिए प्रिय बोलने वाले प्रशंसक लोग बहुत हैं, परन्तु सुनने में अप्रिय विदित हो और वह कल्याण करने वाला वचन हो, उसका कहने और सुनने वाला पुरुष दुर्लभ है। क्योंकि सत्पुरुषों को योग्य है कि मुख के सामने दूसरे का दोष कहना और अपना दोष सुनना, परोक्ष में दूसरे के गुण सदा कहना । और दुष्टों की यही रीति है कि सम्मुख में गुण कहना और परोक्ष में दोषों का प्रकाश करना । जब तक मनुष्य दूसरे से अपने दोष नहीं सुनता वा कहने वाला नहीं कहता, तब तक मनुष्य दोषों से छूटकर गुणी नहीं हो सकता।’’ (सत्यार्थप्रकाश पृ.97)
सत्ता के केन्द्र में स्थित व्यक्ति को ऐसे चाटुकार सदैव आसानी से उपलब्ध भी हो जाते हैं । कर्ण, शकुनि, दुःशासन सदैव दुर्योधन के गलत कार्यों का समर्थन करते रहे। केवल विदुर ऐसे व्यक्ति थे जो खुलकर सत्य का प्रगटन करते रहे, परन्तु सत्याग्रही का ऐसी मंडली के समक्ष कोई मूल्य नहीं होता और वे अपमान और तिरस्कार ही प्राप्त करते हैं । ऐसे कानों को केवल महिमा-गान सुनने की आदत पड़ जाती है । बिभीषण ने भी सीता-हरण को अनुचित और अनैतिक बताते हुए जब राम से क्षमा माँगने का सत्परामर्श दिया तो रावण ने उन्हें लात मारकर बाहर का रास्ता दिखा दिया । वस्तुत अहंकार-ग्रस्त अंधे को दिखायी नहीं देता कि स्वार्थी लोगों की मंडली क्यों उसके दुष्कृत्य का समर्थन कर रही है? उसका विवेक ऐसे मनन को कुंद कर देता है। वह उन्हें सच्चा हितैषी मान लेता है । मंदोदरी तक का परामर्श रावण को नहीं सुहाता । अप्रिय परिणाम की संभावना भी उनके कदम नहीं रोक पाती ।
ऐसी स्थिति, जो समाज को नष्ट -भ्रष्ट कर देती है इसके प्रवर्त्तन के लिए समाज के कर्णधार अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते । इतिहास उनके अपराध को छिपा नहीं सकता । द्रौपदी भरी सभा में रो-रोकर प्रश्न कर रही है कि जो कुछ उसके साथ किया जा रहा है क्या वह धर्म है? भीष्म, द्रोण, कृप, सब गर्दन नीचे किये चुप हैं , द्रौपदी को अपमानित करने का घृणित प्रयास किया जा रहा है । केवल विदुर प्रतिरोध करते हैं पर उनकी सुनता कौन है ? पश्चात् भीष्म बोलते भी हैं तो उस नाजुक अवसर पर धर्म की सूक्ष्म गति समझाने का प्रयास करते हैं । काश भीष्म ने उस दिन अपना कर्त्तव्य निभाया होता तो महाभारत का ऐसा विनाशकारी युद्ध नहीं होता जिसने प्यारे देश को सहस्रों वर्ष पीछे धकेल दिया । भीष्म की इस अकर्मण्यता को क्या इतिहास विस्मृत कर देगा? कभी नहीं ।
अगर ये समर्थ-जन समय रहते अपने दायित्व का निर्वहन करते रहते तो विनाश रुक सकता था । फिर भी यह भी ध्रुव सत्य है कि अहंकार का और अहंकारी के मद का विनाश होता ही है। उत्तर-प्रदेश की जनता ने विधान सभा चुनावों में यही रेखांकित किया है । मायावती का पतन अहंकार का पराभव है । एक महिला के शासन काल में महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की आवाज उस तक नही पहुँुचती है । अपने बंगले में अपने आप को महारानी के रूप में स्थापित कर और स्वयं सदैव इस अहसास को जीवित रखने के लिए आई.पी.एस. अफसर से जूतियाँ साफ करवाकर, विधायकांे की जी हजूरी सुनिश्चित करने हेतु अपने सामने आसन पर बैठने का अधिकार न दे , भ्रष्टाचार की बहती नदी से आँखे फेर, समर्थन कर , जिस प्रांत में भुखमरी बेमिसाल हो वहाँ महारानी की भाँति ही जन्मदिन मनाकर अपनी प्रतिमाएँ बनवाकर अपने अहं को तुष्ट करना ही जिसने उचित समझा, आखिर जनता ने उसे आइना दिखा ही दिया। बहिन जी को समझ नहीं आया , जी हजूरिये तो ‘सब ठीक है’ का नारा लगा रहे थे , फिर हाथी भूखा क्यों रह गया ? एक ही उत्तर है सच से मुख मोड़ लेना । घोटालों की नदी बह रही है, जाँच के दौरान कई जिम्मेदार अफसरों की संदिग्ध मृत्यु हो जाती है , पर ‘सब ठीक है’ के शोर में सत्य दब जाता है । चुनाव पास आ गए , अब पसीना आया , दर्जनों दागी मंत्रियों को निकाल दिया। पर जनता सब समझती है । जो कार्य समय पर न हो वह न हुआ जैसा ही है । सत्ता मदकारी होती है यह तो ठीक है , पर जो अपने कर्तव्यों, वायदों को अधिकारों से ऊपर रखता है वही सफल होता है अन्यथा तो अहंकार के परिणाम से कौन परिचित नहीं है?
अषोक आर्य
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