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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / यथायोग्य व्यवहार

यथायोग्य व्यवहार

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के नियमों में परस्पर व्यवहार को नियंत्रित करने का स्वर्णिम सूत्र इस प्रकार दिया –
‘सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य वर्तना चाहिए।’
यह नियम सार्वभौम तथा सार्वकालिक प्रतीत होता है। समुदाय की इकाई कोई भी हो परस्पर व्यवहार का नियमन इसी आधार पर होना प्रशस्त है। परिवार, समाज, राष्ट्र में इसी से समता स्थापित हो सकती है। सबसे धर्मानुसार तथा प्रीतिपूर्वक व्यवहार की बात तो सभी करते हैं परन्तु यथायोग्यवाद को स्व-सुविधानुसार स्वीकार अथवा अस्वीकार करते हैं। परस्पर व्यवहार के नियमन में ‘धर्म’ तथा ‘प्रीति’ तो केन्द्रीय तत्त्व होने ही चाहिए, इसमें दो राय नहीं हो सकती; परन्तु लोकैषणा, वित्तैषणा अथवा अन्य स्वार्थ-सिद्धि के प्रयोजन से ‘यथायोग्य व्यवहार’ को त्यागना उचित नहीं।
सत्य की उपेक्षा तथा असत्य का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन तुष्टीकरण मात्र है तथा परिणाम में गलती करने वाले को पुष्ट तथा पुनः गलती करने को प्रेरित करता है। अगर उक्त सूत्र की उपेक्षा की जावेगी तो समाज के समक्ष एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत हो जावेगा कि गलत करने पर भी कोई किसी के प्रति जवाबदेह नहीं रहेगा। महर्षि ऐसा नहीं चाहते थे। जब बाबू हरीशचन्द्र चिन्तामणि गबन कर भाग गया तो ऋषि श्यामजी कृष्ण वर्मा को लिखते हैं कि वह ‘बाबू’ आजकल कहाँ है? हमें उस पर नालिश करनी है। महर्षि दयानन्द के इस कथन में निहित सन्देश तो पाठकगण समझ ही गए होंगे। यही यथायोग्यवाद है।
‘गलत करने वाले को दण्ड तथा उत्तम कर्म करने वाले को पुरस्कृत करना’ ही समुदाय को स्वस्थ रख सकेगा। मत्स्यन्याय स्वस्थ समाज का अंग नहीं हो सकता। ‘समर्थ को नहीं दोष गुसाईं’- यह कथन बीमार समुदाय की निशानी है।
वेद भगवान भी आज्ञा देते हैं- इन्द्रं वर्धन्तु अप्तुरः कृणवन्तो विश्वमार्यम् अपघ्नन्तो अराव्णः’। अगर विश्व को श्रेष्ठ बनाना है तो ‘इन्द्रांे’- सत्य मार्ग पर चलने वाले धार्मिक परोपकारी जनों का वर्धन करो तथा अराव्णः अर्थात् कुटिल, कपटी, कृपण लोगों का नाश करो।
‘ऋषि तो मनुष्य होने का लक्षण यही करते हैं –
‘……..(जो) अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं की चाहे वे महा अनाथ निर्बल और गुुण रहित क्यों न हो उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ महाबलवान और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश अवनति व अप्रियाचरण सदा किया करें। (सत्यार्थ प्रकाश पृ. 585)
जब तक समुदाय या समाज उपरोक्त सूत्र में आबद्ध रहा; स्वात्मानुशासन ने राज्य की आवश्यकता को रेखांकित नहीं किया। परन्तु जब इससे विपरीत होने लगा तो अराजकता व्याप्त हो गई। तब ऐसी संस्था की आवश्यकता अनुभव की गई जो उक्त सूत्र को बलपूर्वक लागू करवा सके। दुष्टों को दण्ड दे सके।
जिस प्रकार हमारी सेना का सबल, संसाधनयुक्त होना राष्ट्र की सीमाओं पर शान्ति सुनिश्चित करता है ठीक इसी प्रकार अपराधियों को कठोर दंड देना राज्य की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था की गारन्टी है। दंड कठोरता नहीं नागरिकों के जानमाल, प्रतिष्ठा की, सुरक्षा की राज्य की ओर से प्रतिभू है। जिस समाज में, समुदाय में दोषियों को दंड तथा सत्य पथ पर चलने वालों को सम्मान नहीं मिलता वह समुदाय अपनी प्रतिष्ठा खो, विनाश के बीज अपने अंदर बो देता है और स्वयं विनाश के कगार की ओर चल देता है। किसी भी समाज में यदि इस आधार पर दोषियों का संरक्षण किया जाता है कि ऐसा न करने से समाज/संगठन को नुकसान पहुँचेगा तो ऐसा कहने वाले एक ऐसी भूल कर रहे होते हैं जिसका दुष्परिणाम उन्हें भोगना ही हेागा।
राज्य की उत्पति के संबंध में एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया जाता है- प्रारम्भ में जब राज्य न था तब लोग समुदाय में आपसी विनियम के आधार पर रहते थे। परन्तु मानवीय दौर्बल्य के चलते कुछ लोग जब अन्यों को सम्पत्ति, प्रतिष्ठा का हरण अपने बल के आधार पर करने लगे तो मत्स्यन्याय स्थापित हो गया अर्थात् बड़ी मछली छोटी मछली को खाने लगी। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ यह कहावत चरितार्थ हो गयी। जब इस अराजकता से मनुष्य परेशान हो गए तो ‘भगवान मनु’ के पास पहुँच उनसे राजा बन न्याय स्थापित करने हेतु निवेदन किया। इस प्रकार मनु सृष्टि के प्रथम शासक बने। निष्पक्ष न्याय की अपरिहार्यता, दुष्टों से श्रेष्ठों के जन-धन की रक्षा ही राज्य का आधार तथा प्रमुख कर्तव्य था और न्याय की स्थापना का आधार है दंड।
गीता के शब्दों में इसी को ‘परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृतां ,धर्म संस्थापनार्थाय ……’ कहा गया है। साधुओं की रक्षार्थ दुष्ट-दलन में कोई संकोच न होना चाहिए। जब अपराधियों को दंड नहीं मिलता तब राज्य में अन्याय-वृद्धि होकर वह विनाश को प्राप्त होता है तो दूसरी ओर निर्बल राज्य का यह संकेत अन्य दस्युओं को प्रबल होने हेतु प्रेरित करता है। अतः निश्चित ही न्याय का आधार दंड है। मनुस्मृति में लिखा है ‘जो दंड है वही पुरुष, राजा, वही न्याय का प्रचारकर्ता और सबका शासनकर्ता वही चार वर्ण और चार आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात् जामिन है।
2. बुद्धिमान लोग दंड को धर्म कहते हैं।
3. जो दंड अच्छे प्रकार विचार से धारण किया जावे तो वह सब प्रजा को आनन्दित कर देता है ।
4. जहाँ कृष्ण वर्ण-रक्त नेत्र-भयंकर पुरुष के समान,पापों का नाश करने वाला दंड विचरता है वहाँ प्रजा मोह को प्राप्त न होकर आनन्दित होती है, परन्तु जो दंड को चलाने वाला पक्षपातरहित विद्वान् हो तो(मनुस्मृति)।
आदर्श राज्य में विधि के समक्ष सभी समान होने चाहिए। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने राजा को भी अदण्ड्य नहीं माना है।…. … ‘जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक पैसा दण्ड हो, उसी अपराध में राजा को सहस्र पैसा दंड होवे। (सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ 173) क्योंकि राजा, मंत्री आदि विद्या, बुद्धि, धन बलादि से समृद्ध हैं ,विवेकशील हैं अतः उनसे अपराध होना ही नहीं चाहिए और यदि हो तो साधारण मनुष्य से ज्यादा दंड मिले। पर आज इसके ठीक विपरीत हो रहा है। एक भूखा बालक ब्रेड छीनकर भाग गया तो उस पर कई वर्षों तक मुकदमा भी नहीं चला। वह जेल में सड़ता रहा और प्रभावशाली नेता जब अपराध करता है तो उसे अनेक प्रकार से बचाने के प्रयास उसके हमराज करते हैं। भारतीय लोकतंत्र अब भीड़तंत्र में बदल चुका है। ‘हाथ की ताकत’ सर्वाेपरि हो चुकी है। सबसे खतरनाक बात है कि अपराधी के साथ ‘हाथ की ताकत’ की सांठगांठ हो चुकी है। गत दिनों में कुछ मंत्रियों के अपराधों का पर्दाफाश हुआ तो उनके समर्थन में जुलूस निकाले गए। कुर्सी को हाथ का सहारा चाहिए। शासक अन्याय, अपराध एवं पक्षपात का नंगा नाच तो स्वीकार कर सकता है पर ‘हाथ खो देना’ वह किसी कीमत पर नहीं चाहता।
पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या कर देने वाले बलवन्त सिंह राजौना का केस इस मानसिकता का भयावह उदाहरण है। अदालत ने राजैाना को फाँसी की सजा दी। जेलर ने तकनीकी कारण बताकर फाँसी देने से मना कर दिया। राजौना ने अपनी सजा को निःसंकोच स्वीकार किया है उसने अपील भी नहीं की। न ही फाँसी की सजा माफ करने की गुहार लगाई फिर भी जब अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी गुरुबचन सिंह के निर्देश पर प्रकाश सिंह बादल ने राष्ट्रपति के समक्ष राजौना की फाँसी पर रोक लगाने की बात कही तो अकाली दल यहाँ तक कि अमरिन्दर सिंह भी वही राग अलापने लगे। इस सबके पीछे समुदाय विशेष के ‘हाथ’ अपने साथ बनाये रखने की कवायद स्पष्टरूपेण परिलक्षित हो रही है। यहाँ तक कि बेअंत सिंह जिनकी हत्या हुई थी उनका परिवार भी राजौना की खिलाफत नहीं कर रहा। यह समाज में मत्स्यन्याय का परिवर्तित स्वरूप है। अब शारीरिक ताकत का स्थान हाथ की ताकत ने ले लिया है। संसद पर आक्रमण करने वाले अफजल गुरु की सजा माफी के प्रश्न का समर्थन जम्मू कश्मीर की विधानसभा में एक पक्ष इस आधार पर करता है कि ऐसा न करने पर राज्य में शांति व्यवस्था भंग हो जावेगी। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के हत्यारों की सजा माफी के लिए तमिलनाडु विधानसभा ने पहले से ही प्रस्ताव पारित कर रखा है। जिस राष्ट्र, समुदाय, समाज, संगठन में न्याय ‘हाथ की ताकत’ पर निर्भर करेगा उसके बारे में तो यही कहा जा सकता है कि ‘राम भरोसे’ चल रहा है।