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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / वासन्ती नवसस्येश्टि यज्ञ

वासन्ती नवसस्येश्टि यज्ञ

होली का पर्व आज जिस रूप में मनाया जाता है,यह कहना कठिन है कि इसका प्रारम्भ किस प्रकार हुआ।परन्तु वासन्ती नवसस्येष्टि के रूप में अत्यन्त प्रचीन काल से यह मनाया जाता रहा है। हमारी परम्परा में ‘समष्टि-कल्याण’ प्रमुख है। हमें प्रत्येक कार्य के संदर्भ में यह सोचना आवश्यक है कि (1) इससे किसी की हानि न हो (2) इससे दूसरों का न्यूनाधिक लाभ हो। अपने सुख को, आनन्द को हम अन्यों के साथ बाँटे ऐसी दृढ़ पद्धति आवश्यक है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। वसन्त के आगमन के साथ जहाँ प्रकृति की मनोरम छटा चित्ताकर्षक है, प्रफुल्लता दायिनी है,वहीं कृषक वर्ग का मन, उसका रोम-रोम आड्डादित है। आज उसका पुरुषार्थ फल देने जा रहा है। रबी की फसल तैयार हो गयी है। उसका स्वयं उपभोग भी करेगा तथा उसका विक्रय कर जीवन की अन्य आवश्यकताओं हेतु धन अर्जित करेगा? परन्तु यह लाभ तो स्वयं के तथा उसके परिवार के लिए है। वह क्या समष्टि को कुछ प्रदान नहीं करेगा? क्या अपने सुख में वह पड़ोसियों को सम्मिलित नहीं करेगा? क्या उसे वेद- आज्ञा का स्मरण नहीं है कि-‘केवलाघो भवति केवलादी’ अर्थात् जो अकेला खाता है वह पाप खाता है। अतः वह अपने अर्जन को अवश्य बाँटेगा। और बाँटने का सर्वश्रेष्ठ उपाय ऋषियों ने ‘यज्ञ’ को बताया है। अग्नि के द्वारा बाँटने में यह विशेष है कि जो किसी कारण से उससे मनोमालिन्य रखते हैं उन तक भी उसकी हवि का अंश पहुँचता है। अतः वह नवसस्येष्टि यज्ञ करेगा। यही कारण है कि रबी की फसल आने पर हम वासन्ती तथा खरीफ की फसल आने पर शारदीय नवसस्येष्टि यज्ञ करते हैं। और इस प्रकार त्याग की भावना से ओत-प्रोत हो बाँटने की प्रवृति का, पर-हित की भावना का विकास करते हैं। यह पर-हित चिन्तन ही सामाजिक संगठन की धुरी है। कुछ देकर ही हम किसी के हो सकते हैं। चुम्बक लोहे के टुकड़े को पहले अपना चुम्बकत्व प्रदान करता है तभी लोहे का टुकड़ा उसकी ओर आकर्षित होता है। बिना दिये यह संभव नहीं। हम देना उसे ही चाहते हैं जिससे हम प्रीति करते हैं। प्रीति की अनुभूति के लिये द्वेष तथा अहंकार का परित्याग करना अपरिहार्य है। यह कोई साधारण कार्य नहीं है। यूँ तो अहंकार के विनाश के लिए हम दिन में दो बार तथा द्वेष के विनाश के लिये 12 बार परमात्मा की साक्षी में संकल्प करते हैं। परन्तु क्या हम द्वेष भाव को, अहंकार को छोड़ सके हैं?अगर ऐसा हो जाय तो हम प्राणी मात्र में आत्मीयता का अनुभव कर सकेंगे। अहंकार को छोड़ने के लिये, उसे अप्रभावी बनाने के लिये क्षमा-भाव का विकास करना होगा। यद्यपि त्याग और क्षमा में भी अहंकार प्रवेश करता दिख जाता है। इसका निरोध ‘इदं न मम’ के यज्ञीय सूत्र द्वारा ही हो सकता है। फिर भी अगर दूसरों की भूलों को क्षमा करने की ताकत हम पैदा कर लें तो बहुत सी समस्याएँ सुलझ सकती हैं।
होली का पर्व इसके लिये हमें अवसर प्रदान करता है। द्विदिवसीय इस पर्व के प्रथम दिन का नाम होली तथा दूसरे का नाम धुलैण्डी (धूल) कुछ संकेत देते हैं। वर्ष के दौरान मनों में जो दूरी उत्पन्न हुयी उसको यह कहकर समाप्त कर दिया जाय कि ‘होली सो होली अब उस पर धूल डालते हैं।’ अगर इस पर्व को क्षमा-पर्व के रूप में देखा जाय तो स्नेह के कुछ दीप जल सकते हैं। रंगीली होली का जो विकृत स्वरूप आज मिलता है उसमें कभी टेसू के फूलों से रंग बना होली खेली जाती थी। इस प्राकृतिक रंग से कम से कम बीमारी तो नहीं फैलती थी पर आज उसका स्थान जहरीले रसायन युक्त रंगो तथा कीचड़ न जाने किस-किस ने ले लिया है। ‘गुलाल’ का जहाँ तक प्रश्न है उसमें भी जहरीले रसायन मिला देते हैं, अतः इस रूप का समापन आवश्यक है। अगर अति आवश्यक है तो प्राकृतिक रंग से एक तिलक लगाना उचित होगा। चन्दन का लेप सर्वश्रेष्ठ है। आज पूरा विश्व जल संकट से जूझ रहा है, ऐसे में गीले रंग लगाने तथा फिर उसे छुड़ाने में पानी की बरबादी मानवता के निकट अपराध जैसा है। हम सभी आज से अभी से, संकल्पित हों। पर्वों के प्रचलित रूप में सुधार लाने हेतु प्रेरणा करना बुरा नहीं माना जाना चाहिए। जो पर्व संगठन और मेल-मिलाप का पर्व था, वह शराब पीकर हुड़दंग करने, महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ करने तक सिमट जाये तो उत्तम क्योंकर कहा जा सकता है? संगठन के इस त्यौहार पर हर शहर में आपको आपस में सर फुटाई कर अस्पताल में भर्ती कुछ लोग अवश्य मिल जाऐंगे। यह प्रशस्त क्योंकर हो सकता है? अतः इस पर्व को भाई-चारा बढ़ाने के पर्व के रूप में मनाने हेतु गम्भीर प्रयास होने चाहिये। एक और प्रक्रिया इस पर्व में जुड़ी है। वह है जगह-जगह चौराहों पर लकड़ियाँ इकट्ठा कर उन्हें जलाना। इससे एक पौराणिक कथा जुड़ी है। प्रड्डाद को मारने हेतु उसके पिता ने अपनी बहिन अर्थात् प्रड्डाद की बुआ की गोद में बिठा उसे जिन्दा जला दिया। प्रड्डाद तो न जला पर होलिका नाम्नी बुआ जल गई। फिर नृसिंह अवतार का वर्णन है-आदि । पर हमारा विश्वास है कि यह नवसस्येष्टि यज्ञ का ही विकृत रूप है क्योंकि इस अग्नि में भी लोगों को नवान्न जिसका होलक नाम प्रसिद्ध है उसे सेंकते तथा वितरित करते देखा जाता है। जिस प्रकार अन्त्येष्टि संस्कार का दाह आज बिना घी, चन्दन तथा सामग्री के कर वातावरण को प्रदूषित कर दिया जाता है, वही इस विकृत होली में दृग्गत् होता है। पर्यावरण प्रदूषण के साथ ही एक गम्भीर चिंता का विषय यह भी है कि इस एक दिन में जितनी लकड़ी जला दी जाती है, अब वह चिन्त्य स्थिति आ चुकी है कि तुरन्त प्रभाव से इस पर समाज शास्त्रीयों व पर्यावरणविदों को विचार करना चाहिये। सर्वश्रेष्ठ तो यह ही है कि नवसस्येष्टि यज्ञ ही प्रचलन में आवें। फिर भी आवश्यक हो तो इतना तो तुरन्त करना चाहिये कि बजाय गली-गली में होली जलाने के, जिस प्रकार एक नगर में एक विशाल मैदान में रावणादि का दहन किया जाता है उसी प्रकार एक होली ही जले। ताकि लकड़ी बचे, पर्यावरण प्रदूषण अपेक्षाकृत न्यून हो।
प्रभुकृपा करंे! संगठन की दृष्टि से इस पर्व का महत्व हम सब समझें। अहंकार व द्वेष का परित्याग करें। वर्ष भर में जो अप्रिय हुआ, उसे भुला स्नेहसूत्र में हम सब बँधे।
आयें जल बचायें, वन बचायें।