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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / क्यों आए इस देष में लाडो

क्यों आए इस देष में लाडो

आखिर देश का गुस्सा फूट पड़ा। और क्यों न फूटे ऐसे बर्बर काण्ड पर?इस गुस्से को, ‘दामिनी’ के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना है। इस आक्रोश को एक सकारात्मक दिशा देनी है। आज समाज शास्त्रियों, चिन्तकों, मनीषियों, राजनेताओं सभी को दिखावटी या सामयिक उपचार के रूप में नहीं वरन् आत्म चेतना से जुड़कर यह गम्भीर चिन्तन करना होगा कि ऐसा क्या किया जाय कि जिससे ऐसे बर्बर काण्डों की पुनरावृत्ति न हो। जब सारा देश उबल रहा है तो क्या इन दिनों में भी बर्बरता रुकी है?नहीं। क्यों? क्यों हमारे समाज का चेहरा ऐसा हो गया है कि इसमें आँखे खोलने वाली हर मासूम निगाह प्रश्न कर रही है कि े?कोख से लेकर सम्पूर्ण जीवन आशंकित रहने के लिए?नारी होने का अभिशाप झेलने के
लिए?जो देश जो समाज उसके जीवन की, उसकी प्रतिष्ठा की गारण्टी नहीं दे सकता उसकी सदस्या वह क्यों बने?
यहाँ यह भी एक प्रश्न मन में मचलता है कि माना कन्या-भ्रूण-हत्या निरी दानवता है पर उन माता-पिताओं के दिल से पूछो कि जिनकी बेटियों ने उस दंश को सहा है। तिल-तिल मर रहे ये माता-पिता और उनकी दशा देखकर अन्य माता-पिता क्या चाहेंगे कि उनके घर लाडो पैदा हो? जहाँ 4-5 वर्ष की अबोध बालिकाओं को दरिन्दगी झेलनी पड़ी है, क्या उस वातावरण में हम माता-पिताओं को जिनके कि बेटियाँ ही हैं, गारण्टी दे सकते हैं कि बेटी नहीं है तो क्या है, उनकी बेटी तो बेटा है, वह भी बेटे की भाँति निर्भय होकर बाजार जाकर घर का सामान खरीद कर ले आ सकती है?
महाराज मनु कहते हैं कि स्त्रियाँ पूजनीय हैं, भाग्यशालिनी हैं, पवित्र हैं, घर का प्रकाश और गृहलक्ष्मी हैं,
उनकी रक्षा विशेष प्रयत्न से करनी योग्य है। पर आज ठीक विपरीत स्थिति हमारे समक्ष है। ‘लाडो’ को हम यदि लाना चाहते हैं तो भय-मुक्त, आशंका-मुक्त समाज की गारण्टी हमें देनी ही होगी। सत्ता संवेदनहीन कानून निर्माण का नहीं वरन् कर्त्तव्यबोध का नाम है। शीर्ष पर जो बैठे हैं वे तब तक न्याय नहीं कर पाएँगे जब तक वे यह सोच कर काँप नहीं जाते कि ऐसा अगर उनकी बेटी के साथ होता तो?
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे समाज का निर्माण कैसे हो?इसके तीन सोपान हैं- रचनात्मक, रक्षात्मक तथा दण्डात्मक । इनमें रचनात्मक ही सर्वश्रेष्ठ व अन्तिम उपाय है बाकी सामायिक हैं।
(1) रचनात्मक- पशु-समाज नैसर्गिक वृत्ति से संचालित होता है। उसका अतिक्रमण उसके वश में नहीं है। परन्तु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है। धर्म अर्थात् कर्त्तव्य का पालन कर सकना उसकी सबसे बड़ी
‘क्यों आए देश में लाडा
विशेषता है और ‘विवेक’ इसमें उसका
सहायक है। इसीलिए नीतिकार कहता है-
आहार, निद्रा, भय, मैथुन तो पशुओं और मनुष्यों में समान ही है। फिर मनुष्य विशेष क्यों? केवल ‘धर्म’ ही वह तŸव है जो मनुष्यों में विशेष होने से इसे पशुओं से अलग करता है।
नीतिकार ने धर्म से विहीन मनुष्य को पशु के समान माना है। आप मुझे कहने दीजिए कि धर्म से विहीन मनुष्य पशु से निकृष्ट होता है। क्योंकि नैसर्गिक दस्तक पशु को प्रेरित करती है तदनुरूप वह व्यवहार करता है। उदाहरण के लिए पशु ऋतुकाल में ही काम के अधीन होते हैं। पर मनुष्य किसी के नियन्त्रण में नहीं है। वह दोनों दिशाओं में किसी भी म्गजतमउम तक जा सकता है। आपने देखा होगा कि अनेक लोग सप्ताह महीनों तक पूर्ण उपवास करते हैं, तो खा-खाकर मरने वाले भी मनुष्य आपने देखे-सुने होंगे। एक ताजा अध्ययन तो यहाँ तक कहता है कि कुपोषण से मरने वालों से अधिक खाकर मरने वालों की संख्या ज्यादा है। जहाँ तक निद्रा का प्रश्न है दिन भर सोते आलसियों के साथ, केवल आवश्यक निद्रा के पश्चात् प्रातः ब्रह्ममुहूर्त्त से ही पुरुषार्थ में रत् व्यक्ति देखे जा सकते हैं। भयभीत, आशंकित लोगों की भीड़ में कम ही सही परन्तु सर्वथा निर्भय, लोकोपकार के लिए हँसकर मृत्यु-आलिंगन करने वाले भी प्रत्यक्ष हैं। यद्यपि काम मनुष्य का सबसे प्रबल शत्रु है। जिसको वश में करना सर्वाधिक दुष्कर कार्य है, पुनश्च महर्षि दयानन्द सदृश महापुरुषों की पंक्ति भी हमारे समक्ष है जिन्हांने काम को अपने समक्ष फटकने भी नहीं दिया।
संक्षेप में कहें तो राष्ट्र चाहे, समाज चाहे, परिवार चाहे तो जैसा चाहे वैसा मनुष्य निर्मित किया जा सकता है। वेद माता तभी आदेशित करती है- ‘मनुर्भव जनया दैव्यं जनम्’- मनुष्य बनो और मनुष्यता के दिव्य गुणों से युक्त सन्तानों का निर्माण क्यों आए इस देष में लाडो करो।
दिव्य गुण से युक्त सन्तान कैसी होगी इसके दर्शन महर्षि दयानन्द की दी हुई मनुष्य की परिभाषा में कर सकते हैं- आप सोचें कि उपरोक्त मनुष्य किफ्चित् मात्र अधर्म भी नहीं करेगा। अब प्रश्न यह है कि क्या उपरोक्त वर्णित मनुष्य-निर्माण सम्भव है? तो उत्तर है-हाँ। भारतीय संस्कृति उपरोक्त मनुष्य-निर्माण के लिए अत्यन्त उर्वरा सिद्ध हुयी है। राम, कृष्ण, दयानन्द, विवेकानन्द, महावीर, बुद्ध आदि महामना जीवन्त उदाहरण हैं। आप कहेंगे कि ये तो अंगुलियों पर गिने जा सकने वाले नाम है तो राष्ट्र-रक्षा में अनगिनत सपूतों द्वारा दी गई शहादत को स्मरण कर लें। कुछ लोगों की बात तो क्या यहाँ का जन-सामान्य भी ऐसा ही था। तभी तो सम्राट् अश्वपति घोषणा कर सके थे- ‘मेरे राज्य में कोई चोर नहीं, कोई व्यसनी नहीं, कोई ऐसा नहीं जो यज्ञ न करता हो, कोई व्यभिचारी नहीं तो किसी स्त्री के व्यभिचारिणी होने का तो प्रश्न ही नहीं।’ ‘परद्रव्येषु लोष्ठवत्’ की भावना यहाँ की माटी में रची बसी थी। यूनानी दूत मेगस्थनीज ने लिखा है कि उसने भारत में घरों में ताले नही लगे देखे।
2 फरवरी 1835 को ब्रिटेन की संसद में मैकाले के भारत के प्रति विचार और योजना मैकाले के शब्दों में- ‘मैं भारत के कोने कोने में घूमा हूँ । मुझे एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई दिया, जो भिखारी हो ,जो चोर हो, इस देश में मैंने इतनी धन दौलत देखी है, इतने ऊँचे चारित्रिक आदर्श और इतने गुणवान मनुष्य देखे हैं, कि मैं नहीं समझता कि हम कभी भी इस देश को जीत पाएँगे, जब तक इसकी रीढ़ की हड्डी को नहीं तोड़ देते जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है और इसलिए मैं ये प्रस्ताव रखता हूँ कि हम इसकी पुराणी और पुरातन शिक्षा व्यवस्था, उसकी संस्कृति को बदल डालें, क्यूँकि अगर भारतीय सोचने लग गए कि जो भी विदेशी और अंग्रेजी है वह अच्छा है, और उनकी अपनी चीजों से बेहतर है, तो वे अपने आत्मगौरव और अपनी ही संस्कृति को भुलाने लगेंगे और वैसे बन जाएंगे जैसा हम चाहते हैं । एक पूर्णरूप से गुलाम भारत ।
प्रश्न यह है कि फिर हम इतने बर्बर कैसे हो गये? उत्तर मैकाले के उपरोक्त कथन में छिपा है कि मनुष्य निर्माण की आवश्यकता को सिरे से भूल जाने के कारण। हमने स्कूल-कॉलेज खोले-प्रत्येक क्षेत्र में सराहनीय उपलब्धियाँ प्राप्त कीं, पर हमारे नागरिकों के नैतिक उत्थान पर ध्यान नहीं दिया।
वेद माँ ने हमें मानव-निर्माण का राजपथ दिखाया है-
उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम्।
सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ।। (अर्थव. 8/4/22)
आधुनिक प्रगतिशील कहे जाने वाले लोग इससे सहमत नहीं हो सकते हैं पर यह ध्रुव सत्य है कि जैसा परिवेश होगा, वैसे ही संस्कार बालक-बालिका पर पड़ेंगे। हम वैदिक दर्शन के स्थान पर चारवाक्-विचारधारा को स्थापित कर उदात्त, उच्चतम नैतिक मूल्यों की स्थापना करना चाहते हैं तो यह खामख्याली है, दिवा स्वप्न है।
‘मन को पिंजरे में मत डालो, मन का कहना मत टालो,
मन तो है एक उड़ता पंछी जितना उड़े उड़ालो ।’
वाली विचारधारा का बीजवपन करेंगे तो फलस्वरूप जो पौध प्राप्त होगी उसमें दसवीं कक्षा के छात्र-छात्राएँ अश्लील एम.एम. एस बना प्रसारित करेंगे तो आश्चर्य ही क्या? नैतिकता का बन्धन नहीं, समाज तथा लोक-लाज की बातें रूढ़िवादी तो फिर 1. वह प्रत्येक कार्य मनन पूर्वक करेगा। अर्थात् उचित-अनुचित, सत्य-असत्य तथा परिणाम की श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता पर विचार पूर्वक करेगा।
2. अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को स्वात्मवत् समझेगा।
3. अन्यायकारी का पूरी ताकत व सामर्थ्य से विरोध करेगा चाहे वह कितना ही बलशाली, प्रभावशाली क्यों न हो।
4. जो धर्मात्माजन हैं न्याय के पथ पर हैं चाहे वे निर्बल व सामर्थ्यहीन क्यों न हों, उनका सर्वसामर्थ्य से सहाय करेगा। 5. उपरोक्त मनुष्यरूपी धर्म के निर्वहन में चाहे उसे कितना भी कष्ट क्यों न हो, मृत्यु-भय भी क्यों न आवे वह अपने इस श्रेष्ठ मार्ग से विरत् नहीं होगा।
काम, क्रोध, अभिमान, लोभ, मोह जैसे विकार मनुष्यत्व प्राप्ति में बाधक हैं अतएव वेद भगवान आज्ञा देते हैं- दृढ़तापूर्वक कुचल डाल।
उनको
प्रसिद्ध पत्रिका ‘इण्डिया टूडे’ के सर्वेक्षण (छात्र-छात्राओं के मध्य उन्मुक्त सम्बन्धों के बारे में) के अत्यन्त विस्मित कर देने वाले परिणामों को किस आधार पर दरकिनार करेंगे?क्या वास्तव में आज के माता-पिता को इस बात की परवाह नहीं कि उनके बेटे-बेटी भी उक्त सर्वेक्षण के एक पात्र हैं या नहीं? या कबूतर की तरह आँख बन्द कर लेना ही हमने नियति मान ली है।
इस आलेख को लिखते-लिखते घटी कुछ ऐसी ही बर्बर घटनाएँ- लखनऊ- 4 जनवरी – 15 वर्षीया बच्ची के साथ गैंगरेप, दिल्ली- 6 जनवरी- 15 वर्षीया बालिका जो कि नवीं कक्षा की छात्रा थी, के साथ दो व्यक्तियों द्वारा बलात्कार, आठ वर्षीया बच्ची के साथ बलात्कार तथा पत्थर मार-मारकर नृशंस हत्या। (राजसमन्द- 18 फरवरी 13)
बलात्कार को केवल पुरुष मानसिकता का ही परिणाम मान लेने वाली धाराएँ बाँसवाड़ा (राजस्थान) के त्रिकोण प्रेम प्रसंग के चलते छात्राओं द्वारा ही छात्रा को जलाकर लोमहर्षक तरीके से मार देने को किस प्रकार व्याख्यायित करेंगी? यह भी ध्यान रखें कि ये छात्राएँ केवल 11 वीं कक्षा की थीं। तो फिर? रास्ता लम्बा है, रास्ता कठिन है, रास्ता समाज की आज की धारा के विपरीत भी है पर ‘कुप्रवृत्तियों पर कठोर नियंत्रण’ स्थापना के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द को डिक्शनरी से निकाल फैंकने की लालसा रखने वाले एक दिन इसके महत्व को समझेंगे ।
सम्पूर्ण समाधान ऋषियों की व्यवस्था ही है जिसे महर्षि दयानन्द ने भी प्रस्तुत किया। अति संक्षेप व संकेत में कहें तो- जब इस प्रकार का श्रेष्ठ परिवेश विद्या-ग्रहण काल में होगा तथा समाज में भी नैतिक सदाचारयुक्त वातावरण होगा तभी समाज की सारी समस्याओं का सम्पूर्ण हल होगा।
अर्थात् मानव-निर्माण ही स्वस्थ राष्ट्र की कुफ्जी है।
आज क्या हो रहा है?हम उक्त पद्धति से विपरीत दिशा में अत्यन्त तीव्र गति से भाग ही नही रहे इसी पथ को उन्नति का राजमार्ग भी समझ रहे हैं तो फिर दामिनी-काण्ड जैसे बर्बर नृशंस काण्ड को रोक पाना भी कठिन है। वस्तुतः हमने अपार उन्नति (भौतिक) तो की है पर जिसके लिए यह सब है उस मानव-निर्माण के कार्य को पूर्णरूपेण भुला दिया है। हमारे पाठक कहेंगे कि यह आदर्शों के दिवा स्वप्न हैं जो कभी भी संभव नहीं हैं। वस्तुतः धारा के विपरीत तैरना सदैव ही असंभव जान पड़ता है। ठान लिया जाय तो सब प्राप्य है। उक्त सभी बातों को जो नितान्त रूढ़िवादी कहेंगे उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता है, परन्तु आने वाला समय उनकी मानसिकता में अवश्य परिवर्तन लावेगा।
(2) रक्षात्मक- उत्प्रेरकों का स्थान- अघटित घटने की प्रक्रिया में दूषित संस्कारों के फलस्वरूप सर्वप्रथम ‘कुविचार’ जाग्रत होता है। प्रेरक परिस्थितियों का इस कुविचार को जन्म देने में महत्वपूर्ण स्थान होता है। घर से बाहर मर्यादित शालीन कपड़ों में जब आप जाते हैं, कार्यस्थल पर कार्य करते हैं तो ‘काम’ के उत्प्रेरक तत्व की न्यूनता के कारण ‘कुविचारों’ के जाग्रत होने की संभावना अपेक्षाकृत न्यून हो जाती है। इसके विपरीत मर्यादाहीन स्वच्छन्द पहिनावा व व्यवहार कुविचारों को उत्प्रेरित करता है तथा यह भी कि सहकर्मी/सहपाठी/सहयात्री के व्यक्तित्व के बारे में भी कई बार गलत धारणा बना लेने का अवसर भी देता है।
‘कुविचार’ सदैव कुकर्म में परिणित हो जाय ऐसा नहीं होता। लोकलाज, समाज में अपमानित होने का भय, सबसे बड़ा ‘दण्ड’ का भय आपको पतन के मार्ग पर जाने से रोक लेता है। प्रक्रिया मानसिक पाप तक सीमित रह जाती है। यही मनुष्य जीवन में 1. बालक में गर्भावस्था से ही नैतिक संस्कार डालें। अब यह आधुनिक विज्ञान भी मानने लगा है कि गर्भ में शिशु पर संस्कार पड़ते ही हैं। इसीलिए गर्भाधान-पूर्व से ही माता-पिता स्वयं सदाचारी बनें। विवेक को नष्ट कर देने वाले मद्यादि पदार्थों का सेवन सर्वथा त्याग दें।
2. शाला-प्रस्थान से पूर्व जब तक बालक घर में रहे पूर्ण नैतिक वातावरण में रहे। माता उसे उदात्त मानवीय मूल्यों के आभूषण पहनावे।
तत्पश्चात् शिक्षा कैसी हो, आचार्य कैसे हों, शिक्षणालय कैसे व कहाँ हों, अध्ययनकाल में बिना राजा और रंक के भेद किए समान आसन, खान-पान आदि का व्यवस्था हो पूर्ण नैतिक परिवेश हो, की विशद् चर्चा महर्षि दयानन्द ने अपने महान् ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में की है।
3. सम्पूर्ण अध्ययन काल में पूर्ण ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन विद्यार्थी करें। शिक्षक इसका विशेष ध्यान रखें। सम्पूर्ण काल में माता-पितादि भी न मिलें।
4. शिक्षा सम्पूर्ण करने के पश्चात् ही पूर्ण युवावस्था में विवाह हो। बाल्यावस्था में विवाह दण्डनीय अपराध हो।
5. सब प्रकार के व्यसनों, विकारों से मुक्त विद्यार्थियों का व्यक्तित्व हो ऐसा प्रयास करना गुरुजनों का कार्य है।
‘विवेक’ का महत्व है। क्योंकि जैसे ही कुविचार आया, उपरोक्त स्थितियों का ध्यान कर उन्हें कुचल देने का कार्य मनुष्य का विवेक करता है। जब विवेक नष्ट हो जाता है तो कुकार्य के कुफल का भय भी समाप्त हो जाता है। और कुविचार हावी होकर कुकर्म में परिणित हो जाता है।
यूँ तो इस अंकुश अर्थात् विवेक के नष्ट हो जाने के कई कारण हैं पर हम दो की चर्चा यहाँ करेंगे। परिवेश की चर्चा कर ही चुके हैं।
(1) मादक द्रव्य सेवन (2) अवसर की उपलब्धता
इस प्रकार बुरे कार्य करने में जो भय, शंका, लज्जा के भाव उत्पन्न होने के रूप में परमात्मा की ओर से सँभल जाने की दस्तक होती है उसे नष्ट-विवेक व्यक्ति पूर्णतः अनसुना कर देता है। कौरवों की उस सभा का ध्यान कीजिए जिसमें एकवस्त्रा कौरव कुलवधू द्रौपदी को अपमानित किया जा रहा था। दूषित अन्न सेवन से नष्ट-विवेक भीष्म पितामह, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य जैसे मनीषी गर्दन झुकाए बैठे थे। अतः राजस्व हानि क्यों न हो स्वस्थ समाज-निर्माण हेतु ऐसे पदार्थों को पूर्ण प्रतिबन्धित कर देना चाहिए । प्रायः अपराधी शराब सेवन किए हुए पाये जाते हैं।
यही बात महिलाओं के प्रति अपराध में लागू होती है। अगर रात के 12 न बजे होते, सुनसान इलाका न होता, बस में अन्य सहयात्री भी होते तो दामिनी काण्ड घटित होने की सम्भावना भी कम हो जाती। और महिलाएँ ही क्यों किसी भी अपराध में अपराधी के लिए अवसर की अनुकूलता या ऐसी स्थितियाँ जिसमें अपराधी के मन में कुविचार तीव्रतर हो जाय (उदाहरण के तौर पर यात्राएँ करते समय सोने के गहनों से लदे होना, आदि) अपराध घटित होने में सहायक बन जाती हैं। या तो आपके राष्ट्र की कानून व्यवस्था व दण्ड प्रावधान और उसे लागू करने वाली कार्यपालिका, न्यायपालिका आदि
इतने दक्ष व कर्त्तव्यनिष्ठ हों कि अपराधी अपराध करने से पूर्व परिणाम सोचकर दहल जाये तो ठीक,
अन्यथा ऐसा अवसर उत्पन्न करने से, जिससे कुविचार उत्पन्न हो, तीव्र हो, उसे क्रियान्वयन का अनुकूल
अवसर दुष्कर्मी को प्राप्त हो, बचना ही श्रेयस्कर है । यह रक्षात्मक उपाय है । जो हमारे देश में अत्यावश्यक है क्योंकि कानून व्यवस्था पूर्णतः पंगु तथा बन्धक है।
मूल बात यह है कि अपराधी के मन में दण्ड का इतना भय हो और वह दण्ड मिलना सुनिश्चित माने कि अपराध करते समय वह जिस तथाकथित इन्द्रिय सुख की इच्छा से दुष्कर्म में प्रेरित हो, उसी समय भयंकर लाल आँखें किए दण्ड उसके समक्ष घूमने लगे कि ‘कुविचार’ दुम दबाकर भाग ले।
1. – मादक द्रव्य, मद्य, हेरोइन, एल.एस.डी., अफीम आदि विवेक को नष्ट कर देने वाले पदार्थ हैं। कहा है- ‘बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारी तदुच्यते।’ इनका सेवन किया हुआ व्यक्ति अन्तरात्मा की आवाज को अनसुनी कर देता है। महर्षि दयानन्द ने लिखा है- ‘अच्छे कर्मों को करने में भीतर से आनन्द, उत्साह, निर्भयता और बुरे कर्मों में भय, शंका, लज्जा उत्पन्न होती है; वह अन्तर्यामी परमात्मा की शिक्षा है ।’ (सत्यार्थ प्रकाश पृ. 243) 2.अवसर की उपलब्धता- कानून के उल्लंघन का विचार, अनैतिक सोच, कुविचार अवसर मिले तो सिर उठा लेते हैं। उदाहरण के तौर पर आप कहीं जा रहे हैं। सामान्यतः आप कानून का पालन करने वाले तथा नैतिकता का उल्लंघन न करने वाले नागरिक हैं। अचानक आपकी दृष्टि 100-100 के 5-6 नोटों पर पड़ती है, जो सड़क पर पड़े हैं। आप इधर-उधर देखते हैं अगर सुनसान स्थल है, दूर-दूर तक कोई नहीं है, अंधेरा भी है जिसके कारण किसी के द्वारा आपको देख लिए जाने की संभावना न्यून है तो, उन नोटों को उठा लेने का कुविचार यदि आपके मन में पनपा वह कार्यरूप में परिणित होने की ओर कदम बढ़ा देता है। और आप अन्तरात्मा में उठने वाले भय, शंका, लज्जा के भावों को यह सोच कुचल देते हैं कि कोई देख थोड़े ही रहा है, किसी को पता भी नहीं चलेगा। लालच जीत जाता है नैतिकता हार जाती है । यही दिन का समय होता कुछ लोग आ जा रहे होते तो आप चोरी के इस कुविचार को बलपूर्वक दबा देते। 90 प्रतिशत से अधिक लोगों की यही स्थिति होती है। परमात्मा को सर्वव्यापक जान, वह सब कुछ सदैव देख रहा है यह स्मरण कर ऐसी परिस्थिति में लोभ को कुचल चोरी से बच जाना तो विरलां के बस की बात है।
(3) दण्ड व्यवस्था- ऊपर हमने एक आदर्श समाज के निर्माण का संकेत किया है। पर यह कहना अनुचित होगा कि जब तक उपरोक्त स्थिति प्राप्त नहीं होती, तब तक कुछ भी नहीं हो सकेगा। अपराध व अपराधी मनोवृत्ति पर दण्ड ही अंकुश लगा सकता है। मानसिक रूप से अपराधी कुछ भी करने का विचार करता रहे, पर निश्चित दण्ड उसको अपने कुविचारों को दबा लेने हेतु विवश करेगा। इसमें केवल कानून-निर्माण से कार्य न चलेगा उसे दृढ़ निश्चय के साथ जब तक लागू नहीं किया जावेगा तब तक सुशासन नहीं कहा जा सकता।
मादक द्रव्य सेवन
रिश्वत लेते समय यदि परिवेश का माहौल इस प्रकार का होगा कि भ्रष्टाचारी यह जानेगा कि वह रिश्वत देकर, भाई-भतीजावाद या अन्यान्य उपायों से दण्ड से बच जावेगा, तो लालच के अपने कुविचार को अन्तरात्मा की आवाज पर हावी हो जाने देगा परन्तु यदि उसे यह निश्चय होगा कि रिश्वत लेकर जो थोड़ा लाभ वह लेगा उससे कई गुना ज्यादा दण्ड निश्चय से उसे मिलेगा तो शायद वह रिश्वत न ले। मनु महाराज ने इसीलिए दण्ड के विषय में कहा है।
‘बिना दण्ड के सब वर्ण दूषित और सब मर्यादा छिन्न-भिन्न हो जॉय। दण्ड के यथावत् न होने से सब लोगों का प्रकोप हो जावे।’
‘जहाँ कृष्ण वर्ण-रक्तनेत्र-भयंकर पुरुष के समान पापों का नाश करनेहारा दण्ड विचरता है वहाँ प्रजा मोह को प्राप्त न होके आनन्दित होती है परन्तु जो दण्ड का चलाने वाला पक्षपात रहित विद्वान् हो तो । -मनुस्मृति
परन्तु आज क्या स्थिति है?अपराधी उलटा यह निश्चय से जानता है कि वह छूट जाएगा, तो फिर अपराध क्यों न बढ़े?समाज में घृणा का पात्र समझा जाना भी कोई कम दण्ड नहीं है। पर आज का परिवेश भी बदल गया है। दुष्कर्मी ज्यादा से ज्यादा उपेक्षा का ही पात्र बनता है। अव्वल तो समाज में कुछ उथल पुथल होती ही नही। सब कुछ सामान्य मान लिया जाता है। दामिनी-काण्ड तो मीडिया के कारण व्यापक चर्चा का विषय बना, आक्रोश का कारण बना (जो कि होना भी चाहिए) परन्तु दामिनी-काण्ड से 15 दिन पूर्व की तथा बाद की क्राइम रिपोर्ट उठाकर देख लें क्या इन दिनों में बलात्कार जैसे दुष्कर्म नहीं हुए?
समाज की स्मृति भी अल्प होती है। कुछ दिनों में इस केस को लोग भूल जाएँगे। मीडिया पर कुछ नया आ जावेगा, दामिनी पीछे टूट जावेगी। परन्तु भय तथा आशंका मुक्त समाज-निर्माण का चिन्तन तथा उस दिशा में कदम बढ़ाने का कार्य कभी नहीं रुकना चाहिए। यह विचार इसी भावना से प्रस्तुत किए हैं। बलात्कार के अपराधियों को क्या दण्ड हो बहस चल रही हैं तो पुनः मनु महाराज को उद्धृत करेंगें। (व्याभिचारी) पापी को लोहे के पलंग को अग्नि से तपा के लाल कर उस पर सुलाके जीते को बहुत पुरुषों के सम्मुख भस्म कर देवें ।
चुपचाप सजा देने से समाज में दण्ड का भय व्याप्त नहीं होता। इसीलिए मनु ने सार्वजनिक रूप से दण्ड-विधान किया है। कसाब की तरह का चुपचाप मृत्युदण्ड अपराधियों में दण्ड का खौफ उत्पन्न नहीं करता। यदि आप ऐसी व्यवस्था बना पाने में असमर्थ हैं जिसमें ६ वर्ष की बालिका भी दुष्कर्म से सुरक्षित नहीं कही जा सकती तो कुक्षि में पल रही बालिका का यह प्रश्न नाजायज कैसे कहा जा सकता है कि- ‘क्यों आए इस देश में लाडो’? आश्वासन हमें देना है, गारण्टी हमें देनी है। जबाबदेह हम ही हैं।