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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / रामपाल सन्त अथवा ……….?

रामपाल सन्त अथवा ……….?

के लिए ध्वंस भी आवश्यक होता है। मकान का निर्माण करना है तो प्रथम नींव खोदनी पड़ेगी। भूमि के सीने को चीरे बिना उससे कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता। कपड़े को काटे बिना दर्जी भला सूट सिल सकता है?कभी नहीं। ठीक इसी प्रकार सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग साथ साथ होता है। अन्धकार में लिपटे रहने की लालसा रखने वाला प्रकाश-पथ को प्राप्त नहीं हो सकता। मन में निर्मल विचारों के प्रवेश के लिए दुर्विचारों को समूल नष्ट करना आवश्यक है। इस सिद्धान्त को एक कथानक के माध्यम से सरलता से समझा जा सकता है। एक साधु एक गृहस्थ को यही समझाना चाहता था इसीलिए एक दिन जब गृहस्थ ने साधु को भोजन के लिए आमंत्रित किया तो साधु बोला कि तुमने जो मिष्ठान्न स्वरूप खीर बनाई है वह मेरे कमण्डलु में डाल दो। गृहस्थ जब कमण्डलु में खीर डालने लगा तो देखा कि कमण्डलु में गोबर भरा था। गृहस्थ बोला‘महाराज आप अपना कमण्डलु मुझे दे दें इसमें गन्दगी है, मैं इसे भली भाँति धोकर साफ कर दूँ तब फिर इसमें स्वादिष्ट खीर भर दूँगा। अन्यथा मेरी खीर भी खराब होकर खाने के अयोग्य हो जावेगी। साधु बोले यही बात मैं आपको समझाना चाहता था कि सुविचारों की स्थापना के लिए पात्र का निर्मल होना आवश्यक है,अपरिहार्य है। दुरित-निष्कासन के पश्चात् ही भद्र के लिए स्थान बनेगा। परन्तु तत्त्व की ऐसी बातें जन सामान्य समझाए बिना नहीं समझ सकता। परम्पराओं में बंधा वह अविद्या में घिरा रहता हे। अतः उसे अविद्यापई से निकालने हेतु योगी,धर्मात्मा, आप्त सत्योपदेशक की हर समाज में आवश्यकता है। यह भी समझ लें कि अनेक बार यह सत्य प्रचलित अविद्याजन्य मान्यताओं के विपरीत होता है अतः सत्यवक्ता को जनसमूह के अपार प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है। परन्तु मानव कल्याण की भावना से सत्यवक्ता अपने कर्तव्य से विरत् नहीं होता।
महर्षि देव दयानन्द 19 वीं सदी के ऐसे ही महापुरुष हुए जिन्होंने मनुष्यपन को परिभाषित ही इस प्रकार किया – ‘मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं की चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हां, उनकी रक्षा,उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ,महाबलवान और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश ,अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहाँ तक हो सके वहाँ तक अन्यायकारी के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो,चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपन रूप धर्म से पृथक् कभी न होवे।’
इस प्रकार के ‘मनुष्यपन’ को धारण करने के कारण उन्हें न केवल जीवन भर मतान्ध लोगों का विरोध अपमान, गालियाँ ही नसीब नहीं हुईं वरन् अनेक बार जीवन-हरण के कुत्सित प्रयासों का सामना भी करना पड़ा और इसी क्रम में उनका बलिदान भी हुआ। परन्तु वे सत्य कथन से कभी विरत् नहीं हुए। उनके जीवन का प्राण तत्त्व था-
निन्दन्तु नीति निपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् ।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीरा ।।२।।
अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के प्रणयन में उनका उद्देश्य केवल और केवल मानव कल्याण था,सत्य की स्थापना था। क्योंकि उनका मानना है कि सत्योपदेश के बिना मनुष्य जाति की उन्नति का और कोई कारण नहीं है। वे अपने प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ‘मेरा इस ग्रन्थ को बनाने का मुख्य प्रयोजन सत्य सत्य अर्थ का प्रकाश करना है।’ पाठकगण एक और विशिष्ट बिन्दु की ओर ध्यान दें कि सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम दस समुल्लासों में महर्षिवर ने मानव निर्माण की रूपरेखा व्याख्यायित की है। जब मनुष्य का निर्माण हो गया उसमें यह पात्रता आ गई कि वह सत्यासत्य का विवेक कर सके तब महर्षि ने तत्समय में प्रचलित मतमतान्तरों की समीक्षा की है। महर्षि दयानन्द के अतिरिक्त भी जितने परोपकारी सन्त हुए हैं उन्होंने अपने अपने प्रकार से समाज में प्रचलित बुराइयों व आडम्बरों पर प्रहार किया है। अगर सन्त कबीर को ही लें ते उन्होंने भी बुराइयों व आडम्बरों पर सीधी व कड़ी चोट की है। दृष्टव्य –
२. कंकड पत्थर जोड के मस्जिद लई बनाय, तामे मुल्ला बॉग दे क्या बहरा हुआ खुदाय? ़ ़
रामपाल सन्त अथवा ……….?
३. मूढ़ मुड़
ाए हरि मिले तो सब कोई लेय मुड़
ाय, बार बार के मूढ़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ।
परन्तु क्यांकि ऐसे सभी महापुरुषों में निम्न गुण सामान्य रूप से पाए जाते हैं अतः असहमत व्यक्ति भी उनकी अवहेलना करने की धृष्टता नहीं करता क्योंकि वे धर्मात्मा, परोपकार की भावना से ओतप्रोत, लोक कल्याणकारी,सर्वस्वदानी, स्वार्थ व पक्षपात से पूर्णतः रहित होते हैं। वे ठीक उस पिता के सदृश हैं, जो सन्तान के कल्याण की भावना से उसे ताड़ना करता है। उसके मन में स्वसन्तान के प्रति प्यार का सागर उमड़ रहा है इसी कारण सन्तान के मार्ग की बाधा रूप दुरितों को दूर करने हेतु वह कड़वी भेषज देता है और इसी क्रम में कांटों से बिंध भी जाता है पर अपने प्रयास नहीं त्यागता।
ठीक इसी प्रकार के ये सन्त हैं। इन्हें स्वयं कुछ नहीं चाहिए परन्तु जो कुछ भी करते हैं कहते हैं मनुष्य के कल्याण के लिए। हम इनसे असहमत तो हो सकते हैं असहमति प्रकट भी कर सकते हैं पर इनके प्रति अनादर, घृणा फैलाने का कार्य, इनके अपमान का कार्य ‘पाप’ की श्रेणी में आता है।
ऐसा ही पाप गत 12-13 वर्षां से एक तथाकथित सन्त रामपाल जो हरियाणा के करोंथा स्थित सतलोक आश्रम का मुखिया बताया जाता है,विश्ववंद्य युग प्रवर्तक ऋषि दयानन्द की आलोचना अत्यन्त अपमानजनक प्रकार से पिं्रट तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से कर रहा है। दयानन्द से रामपाल की क्या तुलना?एक राजा भोज तो दूसरा गंगू तेली। ऋषि दयानन्द की प्रशंसा में विश्वभर के महापुरुषों के उद्गार यदि मैं उद्धृत करने लगूँ तो यह पूरा अंक उसी से भर जायेगा फिर भी यह क्रम समाप्त नहीं होगा। रामपाल द्वारा ऋषि दयानन्द की अलोचना सूर्य पर थूंँकने जैसी है जिसमें थूंँक स्वयं के ऊपर ही आ गिरता है।
जैसा हमने कहा कि तर्कपूर्वक अपनी बात रखने अथवा किसी से अपनी असहमति जताने का सभी को अधिकार है परन्तु कुतर्क और अमर्यादित भाषा का इस क्रम में कोई स्थान नहीं। परन्तु रामपाल इसी को अपना हथियार बनाए हुए है। वस्तुतः रामपाल द्वारा प्रवर्तित अविद्या अन्धकार को दयानन्द रूपी प्रखर सूर्य के प्रकाश के कारण आश्रय नहीं मिल पा रहा अतः लाखों रुपये खर्च कर विज्ञापन दे ऋषिवर को गलत रूप में प्रस्तुत किए जा रहा है।
इसकी सोच है कि झूठ को सौ बार बोलो तो वह सत्य बन जाता है। इस व्यक्ति की सबसे बड़ी धूर्तता है कि ऋषि के ग्रन्थों से चन्द पंक्तियाँ संदर्भ से पूर्णतः तोड़कर तथा लेखक के आशय के विरुद्ध जनता को दिखाता रहता है। आर्यजनों के शास्त्रार्थ आमंत्रण कभी स्वीकार नहीं किए और अब शस्त्र आक्रमण का सहारा ले रहा है। 2006 में एक आर्यवीर शहीद हुआ और अब उपाचार्य उदयवीर और संदीप आर्य। पर इसके किसी भी प्रकार के उपाय सफल नहीं होंगे यह तय है। दयानन्द सूर्य पर उछाली जा रही कीचड़ स्वयं इनके मुख पर मलती चली जा रही है।
एक बड़े विस्मय की बात है जनता के चरित्र की। कभी कभी बीमारी के विशेषज्ञों की उपस्थिति में भी झोला छाप डाक्टर से इलाज कराके अपनी जान जोखिम में डाल देते हैं। उक्त सन्त के तथाकथित भक्त भी ऐसा ही कर रहे हैं। रामपाल हिन्दी भी ठीक प्रकार से नहीं बोल सकता और बात वेद की करता है। मनमाने मूर्खतापूर्वक अर्थ निकाल कर जनता को गुमराह कर रहा है। हमारा तो मत है कि जिस प्रकार झूठे विज्ञापन देकर जनता को भ्रमित करने वाला झोलाछाप अपराधी है उसी प्रकार वेद के झोला छाप व्याख्याता रामपाल भी अपराधी हैं, जनता को मानसिक रूप से बीमार करने का। इस पर कानूनन रोक लगनी चाहिए। इसके वेद विज्ञान के ज्ञान की परीक्षा होनी चाहिए। यह वेद की ए बी सी डी नहीं जानता अतः प्रतिबन्ध होना चाहिए, वेद के नाम से कुछ भी कहने पर पाबन्दी लगनी चाहिए। ये कबीर का नाम वेद में बताते हैं।
रामपाल दास- सब दुकानों की एक ही कहानी
रामपाल दास का जन्म 8 सितम्बर 1951 को हरियाणा के जिला सोनीपत तहसील गोहाना गाँव धनाना में श्री भक्त नन्दराम के घर में हुआ। परिवार पेशे से किसान था। इन्होंने अभियांत्रिकी में डिप्लोमा लेकर जूनियर इंजीनियर के पद पर 1995 तक नौकरी की तत्पश्चात् तथाकथित रूप से नौकरी से त्यागपत्र देकर स्वयं ब्रह्म जैसी स्थिति प्राप्त कर नामदान देकर लोगों के कल्याण में लगे हुए हैं।
अपने स्वार्थ के लिए भोलेभाले लोगों को आध्यात्मिकता का पाठ पढ़ाने व उनके सभी कष्टों को मिटाने के लिए आज सन्तों और गुरुओं की बाढ़ आ गई है। सबका यह दावा है कि उनके असंख्य अनुयायी हैं। सबका यह दावा है कि उनके द्वारा दिए बीज मंत्र/नामदान अथवा अन्य किसी प्रक्रिया से अनुयायियों के समस्त दुःख दूर हो जाते हैं। अभाव मिट जाता है और मनचाही मनोकामना पूरी होती है। आप देखेंगे कि उनके गुरु बनने की कहानी भी कहीं न कहीं एक जैसी होती है। अचानक इनके अन्दर ईश्वर की कृपा चमत्कारिक रूप से जागृत हो जाती है जिसका उपयोग वे तथाकथित लोक कल्याण में करते हैं। आदि
रामपाल सिंह भी हरियाणा के सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर थे। एक कबीर पंथी साधु ने इनको नामदान दिया। बस चमत्कार हो गया। जो काम दुनियाभर के ग्रन्थ पढ़ने से नहीं हुआ वह ताकत इनमें अब जाग्रत हो गई और केवल इनसे ही नाम दान लेने वाले समस्त संसारी सुखों को प्राप्त करने व मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी बनते हैं ऐसा इनका दावा है। कबीर साहब को यह पूर्ण बह्म बताते हैं और अपनी बात को वजन देने के लिए हर अन्य तथाकथित महात्मा की भाँति ये भी वेद का प्रमाण देते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि एक अन्य साधु वेद में बीज मंत्रों की उपस्थिति बताते हैं। इन्होंने वेद कब, कहाँ, कैसे पढ़े? वेदार्थ करने की प्रक्रिया से ये कैसे परिचित हुए और उस पर किस प्रकार इनका अधिकार हुआ यह तो इसी से जाना जा सकता है कि वेद मंत्रोंको ये श्लोक बोलते हैंऔर इनको कहीं भी किसी मंत्र में कवि शब्द दिख जाता है तो उसका निर्वचन ये करते हैं कि देखो ! वेद में कबीर साहब को ही पूर्ण ब्रह्म कहा गया है अन्य किसी को नहीं। हमारी समझ में तो जनता को बहकाने का यह एक आपराधिक कृत्य है। इनकी अकूत सम्पिŸा के स्रोत की जाँच होनी चाहिए।’
इनके द्वारा प्रमाण स्वरूप दिए जाने वाले तीन मंत्रों को नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं। मन्त्रों में आये ‘कवि’ शब्द का अर्थ भी ऋषि के अथवा आर्य विद्वानों के वेदभाष्य से दे दिया है। पाठक जरा ध्यान दें।
उशिगसि कविरभारिरसि बम्भारिरवस्यूरसि दुवस्वाफ्छुन्ध्यूरसि
मार्जालीयः सम्राडसि कृशानुः परिषद्योऽसि पवमानो नभोऽसि।
प्रतक्वा मृष्टोऽसि हव्यसूदनऽऋतधामासि स्वर्ज्योतिः।। यजु 5/32
(कविरभारिरसि) यहाँ इसका अर्थ है कि परमेश्वर क्रान्तप्रज्ञ है, खोटे चलन वाले का शत्रु है। यहाँ पर कबीर की उपस्थिति को मानने वाले रामपाल सन्धि के सामान्य नियमों से भी अपरिचित हैं।
पुरां भिन्दुर्युवा कविरमितौजा अजायत। इन्द्रो विश्वस्य कर्मणो धर्ता वज्री पुरुष्टुतः।। ऋ. मं.-1, अनु.-4, सू.-11, मंत्र-4 (कविरमितौजा) इसका सन्धि विच्छेद करने पर कविः तथा अमितौजा प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द ने कवि का अर्थ राजनीति विद्या वा दृश्य पदार्थों का अपने किरणों से प्रकाश करने वाला तथा ‘अमितौजाः’ का अनन्त बल वा जल वाला किया है। सामान्य संस्कृत ज्ञान से शून्य रामपाल को यहाँ कबीर के सपने आ रहें हैं।
योथर्वाणं पितरं देवबन्धुं बृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्। त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत्स्वधावान्।। अथर्व. कां.-4, मंत्र-7
(कविर्देवो) यहाँ परमेश्वर के गुणों का वर्णन करते हुए उसे कविः अर्थात् मेधावी देवः अर्थात् परमेश्वर कहा है।
कवि शब्द आने से अगर इस प्रकार का निर्वचन किया जाए तो फिर वे लोग भी गलत नहीं हैं जो वेद में मुर्गा खाने व मद्य पीने की बात कहते हैं। उनका कहना है कि वेद में लिखा है ‘मुरुगाय मद्य यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः अर्थात् मुर्गे और शराब के लिए तुम टूट पड़ो तुम्हारा कल्याण होगा।’ ऐसी ही अज्ञान की बातें रामपाल करते हैं। अतः इनका कहा पूर्णतः त्यक्तव्य है।