लालच, स्वार्थ और विनाष
महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन चरित्र को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उन्होंने गृह-त्याग के पश्चात् के वर्षां में उत्तराखंड के
हिमालयी अंचल में योगियों तथा ज्ञानीजनों की खोज में भ्रमण किया था। उस समय यह यात्रा कितनी कष्टकारी थी, यह ऋषि
द्वारा अलकनन्दा पार करने के वर्णन में स्पष्ट होकर हृदय के छू जाती है। तब हिमालय शान्ति ज्ञान और वैराग्य का स्थल
था परन्तु आज पिकनिक स्पॉट बन गया है। अभी गत सदी के अंतिम दशक तक भी यह परम्परा थी कि यात्रियों को रात्रि में
केदारनाथ रुकने नहीं दिया जाता था। गौरीकुण्ड यात्रियों के लिए अंतिम पड़ाव था। वहाँ से 14 किमी. का उबड़ खाबड़,
चढ़ाई वाला मार्ग तय करके यात्री केदारनाथ जाते थे और उसी शाम को लौटकर गौरीकुण्ड वापस आते थे।
धर्म की मार्केटिंग इस युग की विशेषता है। जितने ज्यादा यात्री मंदिर जायेंगे उतना ही अधिक लाभ होगा, होटल मालिकों को,
दुकानदारों को, यहाँ तक कि मंदिर के पुजारियों को भी लाभ होगा। अतः केदारनाथ ही नहीं ऐसे सभी स्थलों की विशद्
पब्लिसिटी ने इन्हें मीडिया क्रान्ति के साथ धार्मिक स्थल से अधिक ‘टूरिस्ट-हब’ बना दिया है। मार्केटिंग के प्रभाव के लिए हम
पाठकों को स्मरण करायेंगे कि एक समय एक फिल्म आयी थी- ‘जय संतोषी मांँ।’ जिस संतोषी माँ को कोई नहीं जानता था,
घर-घर पर केवल और केवल सन्तोषी माता का साम्राज्य हो गया। जिसे देखो शुक्रवार का व्रत कर रहा था। जगह-जगह
उद्यापन होने लगे थे। आज मीडिया से सन्तोषी माता गायब हैं तो जनता के बीच में से भी। ऐसा लगता है कि जैसे सन्तोषी
माता अस्तित्वहीन हो गई हो। फिर बारी आयी वैष्णोदेवी की। गाना आया-‘चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है’ अब कोई
क्यों माने कि उसे माता ने नहीं बुलाया है, परिणाम वैष्णोदेवी के मंदिर में भक्तों की बढ़ती भीड़।
अब धंधेबाजों के सामने एक समस्या आई। कष्ट सहकर मंदिर-दर्शन की अभिलाषा वाले तो अत्यल्प थे। भीड़ में भारी हिस्सा
उनका था जो घूमने फिरने की इच्छा से आते थे। दर्शन लाभ तो मुफ्त की चीज थी। ऐसे लोग सुविधा भोगी थे। ऐसे स्थलों पर
माल, स्पा जैसी सुविधाएँ इस धारणा को पुष्ट करती हैं। ये चढ़ाई भरे मार्ग पर नहीं चढ़ सकते थे। इन्हें ढोने हेतु पहले गरीब
मनुष्य, फिर खच्चर, फिर कारें/एस.यू.वी./बसें सामने आईं। ऐसे लोग लग्जीरियस यात्रा का आनन्द लें इसलिए ठीक मंदिर
तक पहाड़ों के सीने को चीरकर चौड़े मार्ग बनाए गए। इस सबमें लालच व स्वार्थ में अंधे होकर हमने प्रकृति से छेड़छाड़ के
फलस्वरूप परिणामी आसन्न विनाश को अनदेखा कर दिया। जिस केदारनाथ के 14 किमी. तक कोई निवास नहीं कर सकता
था। आज मंदिर से 100 मीटर दूर होटल बने हुए हैं। यहाँ तक कि मंदिर के पास हैलीपेड बना है। अति विशिष्ठ लोग तथा
अति धनाढ्य वर्ग इस सुविधा का प्रयोग करता है। कहा जाता है कि उत्तराखण्ड में इस निमित्त 25 हैलीकॉप्टर कम्पनियाँ
आपरेट कर रही हैं। लोगों की इस श्रद्धा के दोहन की दौड़ में अनेक एजेन्सियाँ भागीदार हैं। बिना स्वीकृति के ये होटल कैसे
बने यह प्रश्न भ्रष्टतम भारत में बेमानी है। यह स्वार्थ लालच व लोगों की आस्था के दोहन का दुष्परिणाम है कि प्रलयंकारी
घटना घटित हुई, हजारों लोग काल के क्रूर गाल में समा गए, कई गाँव ऐसे विनष्ट हो गए जैसे कि वे थे ही नहीं। धर्म की इस
मार्केटिंग का प्रबल प्रमाण है केदारनाथ की यात्रा को चारधाम कहा जाना। सभी जानते हैं कि बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, द्वारिका
तथा रामेश्वर चारधाम कहलाते हैं। ये चार दिशाओं में अवस्थित हैं। व्यक्ति चारधाम का पुण्य लूटना चाहता है पर इस निमित्त
उसे या तो अलग अलग समय में चार दिशाओं में जाना पड़ेगा या फिर लम्बे समय का कार्यक्रम बनाना पड़ेगा। आज के समय
में इतना समय किसके पास है?अतः एक ही ऐसा स्थान विकसित करने की योजना बनी, जहांँ एक साथ चारधाम की यात्रा का
लाभ मिल गया ऐसा सन्तोष भक्त को मिल सके। अतः उत्तराखण्ड में केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री को ‘छोटा
चारधाम’ कहा जाने लगा। ‘छोटा’ कब हटा दिया गया पता ही नहीं चला। फलतः 2-4 दिनों में चारधाम दर्शन से पुण्य लाभ
के आशार्थी भारी संख्या में यहांँ आने लगे । कहते हैं कि इनकी संख्या एक करोड़ से ज्यादा हो जाती है। इन यात्रियों की
सुविधाओं के लिए पर्यावरण संरक्षण को ताक में रख इंतजाम किए जाने लगे और किए जा रहे हैं। होटलों का निर्माण, हैलीपैड
का निर्माण, चौड़ी-चौड़ी सड़कें, यहाँ तक कि माल तथा स्पा जैसी सुविधाएँ विकसित हुईं। प्रश्न उठता है कि इनका अध्यात्म से
क्या संबंध ? उत्तर यही है कि इसके केन्द्र में ‘केदार’ नहीं टूरिज्म है। ये करोड़ों पर्यटक अपने पीछे भीषण कचरा छोड़कर जाते
हैं जो चिन्त्य है।
लालच, स्वार्थ और विनाष
उधर उत्तराखण्ड में अनेकानेक जल विद्युत परियोजनाएंँ प्रारम्भ हैं/ की जा रही हैं। अनेक डैम बन गए अनेक बन रहे हैं।
जाने माने अर्थशास्त्री डॉ.भरत झुनझुनवाला का मत है कि उत्तराखण्ड में प्रति मेगावट बिजली परियोजना लगाने हेतु संबंधित
मंत्री एक करोड़ ले रहे हैं। इस प्रकार अब तक स्वीकृत 40000 मेगावट का हिसाब लगाया जा सकता है। बिना विचारे
इनकी स्वीकृति जारी हो रही है। एक स्थल पर तो इतनी चौड़ी सुरंग बनाई गई है कि एक साथ तीन ट्रेन उसमें से निकल
सकें। इस सब में विस्फोटकों के प्रचुर प्रयोग से पहाड़ खोखले होने ही थे। इन पहाड़ों के अंदर बाहर का पानी रिसने लगा।
इससे जहाँ पीने के पानी की कमी हुई वहांँ पहाड़ कमजोर भी हुए। जानकारों का मानना है कि यह ऐसी दुर्घटना है जिसे आज
नहीं तो कल घटना ही था। इस क्षेत्र में जिस बेदर्दी से पहाड़ों तथा भूमि का सीना छेदा जा रहा है यह तबाही उसी का ही
दुष्परिणाम है।
विकास के हम विरोधी नहीं पर यह देखना ही पड़ेगा कि तथाकथित विकास के चक्कर में प्रकृति से इतनी छेड़छाड़ न करें कि
आपदा आ जाए। गत मास हुआ भी वही। अतिक्रमण इस सबके मूल में है। वस्तुतः मन्दाकिनी नदी केदारनाथ मंदिर से पूर्व ही
एक बड़े विशाल चट्टानी अवरोध के कारण कई सदियों से दो धाराओं में बहती थी। गत वर्षां में पश्चिमी धारा प्रवाह बन्द हो
गया, केवल पूर्वी धारा बहने लगी। अब अतिक्रमणकारियों की बन आई। नदी के उस डूब क्षेत्र में धड़ाधड़ अतिक्रमण हुए,
निर्माण हुए।
17 जून 2013 को पिछले कुछ दिनों से हो रही बारिश अचानक काफी तेज हो गई। भारीमात्रा में जो भारी अवरोध था वह
टूट गया तथा मंदाकिनी पश्चिमी धारा में बह निकली। वहांँ तो अनगिनत निर्माण हो चुके थे। कहते हैं कि पानी अपना रास्ता
बना लेता है और मंदाकिनी नदी ने यही किया। फलतः सहस्रों निर्माण तिनके की तरह बह गये तथा प्रलयंकारी विनाश के दृश्य
हमारे समक्ष उपस्थित हो गए। वेग का आलम यह था कि कई किलोमीटर दूर ऋषिकेश में गंगा में स्थापित शिव प्रतिमा तक
बहाव में बह गई।
अब इस प्रलय के कारणों पर विचार हो रहा है। ऐसा लगता है कि प्रकृति के इस ताण्डव के पश्चात् भी हमें अक्ल नहीं आई
है। कोई कह रहा है कि यह धारी देवी का प्रकोप है। जिस दिन उसकी प्रतिमा विस्थापित की गई उसी दिन यह प्रलय हुई। एक
कारण यह भी बताया जा रहा है कि केदारनाथ मंदिर के कपाट शुभ मुहूर्त में नहीं खोले गए। अगर हम इस दुःखद त्रासदी के
अवसर पर उपरोक्त मूर्खतापूर्ण वक्तव्यों पर टिप्पणी करेंगे तो उचित नहीं होगा। ऐसे में एक पर्यावरणविद् ने एक टीवी चैनल
पर ठीक ही कहा है कि ‘मनुष्य ने मन्दाकिनी के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। प्रशासन ने इस कार्य को रोकना था, उसको सही
करना था, नहीं किया तो मंदाकिनी ने स्वयं अपना रास्ता बना लिया।’ अतः इस प्रलयंकारी विनाश के लिए अगर केई
जिम्मेदार है तो वह है मनुष्य का लालच और स्वार्थ। अगर अब भी सबक न लिया तो और भी ज्यादा खतरनाक परिणाम
सामने आ सकते हैं।