लालच, स्वार्थ और विनाष
भवयतम मकान
उसपर टायर का निषान
आप जरा किसी नवनिर्मित कॉलोनी में एक चक्कर लगावें। एक से एक शानदार मकान आपको दिखेंगे। वस्तुतः उपलब्ध संसाधनों
के आधार पर प्रत्येक मनुष्य सबमें अलग दिखे ऐसा मकान बनाना चाहता है, जिसे देख बार-बार ‘वाह’ निकल पड़े। परन्तु एक
और सामान्य चीज आपको दिखेगी वह यह कि प्रायः प्रत्येक भवन के ऊपर एक काला टायर लटका नजर आयेगा। जैसे मखमल
में टाट का पैबन्द हो। विचारणीय है कि इस कुदृश्य को क्यों लगाया जाता है? उत्तर यह मिलता है कि ‘नजर न लग जावे’-
इसलिए। लीजिए साहब! मकानों को भी नजर लगने लगी। यह कुछ ऐसा ही है जैसे आज से 50-60 वर्ष पूर्व तक बच्चों के नाम
कालिया, घसीटा इत्यादि इस कारण रखे जाते थे कि उनको नजर न लगे। महर्षि दयानन्द द्वारा प्रवर्तित
‘सुन्दर-सारगर्भित-नामकरण-क्रान्ति’ के पश्चात् आज एक से एक सुन्दर नाम रखे जाते हैं। परन्तु आज बालकों की औसत आयु
बढ़ी ही है। अतः नजर का लगना, व्यर्थ का भय है। वस्तुतः बचपन से ही हमारे भीतर ऐसे संस्कार प्रविष्ट हो जाते हैं कि अनिष्ट
की आशंका से सदैव भयभीत हम, हर उस बात को अपनाने के लिए उद्यत हो जाते हैं जो त्राण देने वाली बतायी जाती है, चाहे वह
कितनी भी हास्यास्पद अथवा मूर्खतापूर्ण क्यों न हो। हम पढ़ लिख कितना भी गए हों पर स्थिति यह है कि जीवन का हर क्षण
अन्धविश्वासों के शिकंजे में है। वास्तुशास्त्र के नाम पर हम ऐसी ही अनेक मान्यताओं के जाल में जकड़े हैं। हमारे एक प्रोफेसर
मित्र हैं। वे वास्तुशास्त्र के आधार पर सम्पूर्ण दोष निवारण के चक्कर में एक वर्ष तक तो भवन का नक्शा ही तैयार नहीं कर पाये।
बनने के बाद भी बदलाव किए। विशेष कोण में ‘स्टडी रूम’ बनवाने पर भी बेटा आई.आई.टी. में प्रवेश नहीं ले सका।
वस्तुतः वास्तुशास्त्र का जितना पक्ष भवन निर्माण में वातानुकूलन, वायु प्रवेश, सम्पूर्ण शाला में यथेष्ठ प्रकाश हेतु दिशाओं का चयन
कर द्वार, खिड़कियों का निर्माण, सुगन्ध, सुन्दरता, सुदृढ़ता, नयनाभिरामता(समचौरसता आदि), यथायोग्य परिणामयुक्तता आदि
से संबंधित है वही वस्तुतः वास्तुशास्त्र है, वह अत्यावश्यक है। परन्तु ऐसे निर्देश कि पढ़ने का कमरा विशेष दिशा में रखने से बच्चे
परीक्षा में अच्छे परिणाम लायेंगे अथवा विशेष कोने में सोने से जिनका विवाह नहीं हो पा रहा हो उनका विवाह हो जावेगा,
मूर्खतापूर्ण ही नहीं संपूर्ण बौद्धिक विनाश के जनक तथा पुरुषार्थ की हत्या करने की प्रेरणा देने वाले हैं। ऐसे काम हमारे विचार में
सामाजिक अपराध की कोटि में आते हैं। ऐसे बौद्धिक विनाशकर्ता को निश्चित सजा मिलनी चाहिए।
देखिए ऐसे दो दावे ऐसे ही वास्तुशास्त्रों में दृष्टव्य हैं-
1. एक सज्जन के यहाँ लाख प्रयत्न करने के बाद भी उसके बच्चे के नम्बर 60 प्रतिशत से ज्यादा नहीं आ रहे थे। सिर्फ बच्चे के
पढ़ने के स्थान को बदलने मात्र से अब 80 प्रतिशत से ज्यादा नम्बर आ रहे हैं। ईशान दिशा सही होना बच्चों के पूर्ण विकास के
लिये अत्यन्त आवश्यक है। कमजोर बच्चों को विशेषकर ईशान दिशा वाले कक्ष में पढ़ाई की व्यवस्था करायें तो आप खुद
आश्चर्यजनक परिणाम देखेंगे ऐसा संभव ना हो तो घर के पश्चिम दिशा वाले कमरे में उन्हें पूर्वमुखी होकर पढ़ायें, वांछित परिणाम
निकलने लगेंगे।
2. अविवाहित युवक हो या युवती जिसका विवाह नहीं हो रहा है और अनेक बाधाएँ आ रही हैं, उन्हें घर के नैऋत्य कोण अर्थात्
दक्षिण-पश्चिम दिशा वाले कोण में सोना चाहिए, इससे शीघ्र विवाह योग बनेंगे। यदि किसी परिवार में अलग से कमरा न हो तो वह
नैऋत्य कोण वाली जगह में सोएँ और लाभ पाएँ।
अपने को ंनजीमदजपब बताने के लिए वास्तुशास्त्र की साइट्स पर वेदादिशास्त्रों के समर्थन की बात कही जाती है।
हम प्राचीन शास्त्रों के नाम पर मनगढ़न्त बातें बना स्वार्थ सिद्धि में लगे हुए हैं। जैसे दावे ये तथाकथित वास्तुशास्त्री करते हैं वेदादि
शास्त्रों में वैसा कुछ नहीं है। वस्तुतः ऐसी परिपाटी बन गयी है कि संस्कृत में जो कुछ कह दिया जाता है उसे वेदवाक्य समझ लिया
जाता है।
सुप्रसिद्ध वैदिक विद्वान् डॉ. सम्पूर्णानन्द जी ने अपने ग्रन्थ ‘ब्राह्मण सावधान’ में एक वास्तविक घटना लिखी है।
एक सायं काशी के कोई महामहोपाध्याय पदवी वाले पण्डे जी उनसे भेंट करने आये। पर्याप्त समय तक वार्ता चली अन्ततः पण्डे जी
ने विदा चाही। जाते-जाते लघुशंका की इच्छा भी जाहिर की। गृहपति के द्वारा बताये स्थान की ओर जाने लगे, पता नहीं उस समय
सम्पूर्णानन्द जी को क्या सूझा, यकायक यह श्लोक उच्च स्वर में निकल गया ‘लघुशंका न कर्त्तव्या सायं प्रातर्जनाधिप’ (सायं तथा
प्रातः लघुशंका नहीं करनी चाहिए) इस श्लोकांश को सुनते ही पण्डे जी के मानो पाँव तले धरती चिपक गयी। कान पर चढ़ाया
जनेऊ उतार कर घर जाने को उद्यत हुये। इस पर मंद-मंद मुस्कराते हुये सम्पूर्णानन्द जी ने श्लोक का उत्तरार्द्ध भी सुना दिया
भवयतम मकान
उसपर टायर का निषान
‘अवश्यमेव नरके वासो भवति इति शुश्रुम’ (सायं प्रातः लघुशंका करने वाले को अवश्य ही नरकवास मिलता है, ऐसा हमने सुना है)
यह सुनकर तो धर्मभीरु पण्डे के पाँवो तले जमीन ही खिसक गयी। वे जब जाने लगे तो सम्पूर्णानन्द ने उन्हें आश्वस्त किया कि ये
श्लोक स्वनिर्मित था। उन्होंने इसलिए उच्चारित किया ताकि वे जान सकें कि महामहोपाध्याय उपाधिधारी पंडित भी मात्र
‘बाबावाक्यं प्रमाणम्’ को मानने वाले हैं।
महर्षि दयानन्द जी महाराज ने संस्कार विधि में ‘शाला निर्माण’ के संदर्भ में जिन वेद मंत्रों के उद्धृत किया है उनके भाष्य में
वास्तुशास्त्र के सही स्वरूप का दिग्दर्शन होता है। कुछ बिन्दु पाठकों के चिन्तन हेतु ऋषि-भाष्य में से प्रस्तुत हैं।
1. (घर) सब प्रकार की उत्तम उपमायुक्त कि जिसको देखके विद्वान् लोग सराहना करें।
2. वह शाला चारों ओर के परिमाण से समचौरस हो।
3. उसके (शाला के) बन्धन और चिनाई दृढ़ हो।
4. शाला के चारों ओर स्थान शुद्ध हो।
5. शाला में सूर्य का प्रतिभास आवे।
6. उस घर का विशेषमान परिमाणयुक्त लम्बी, ऊंँची छत और भीतर का प्रसार विस्तारयुक्त होवे।
7. सब ऋतुओं में सुख देने वाली हो(यह बिन्दु शिल्पी के अनुभव व योग्यता को इंगित करता है।)
8. चारों ओर का शुद्ध वायु आवे, अशुद्ध वायु निकलता रहे।
यह है विशुद्ध वास्तुशास्त्र का संकेतात्मक स्वरूप जो वेदादि शास्त्रों में मिलता है। वहाँ अविश्वसनीय दावों का कोई स्थान नहीं है।
वस्तुतः शिल्पी के समक्ष यही चुनौती होनी चाहिए कि उसकी ड्राइंग में द्वारादि की दिशा तदनुरूप हो ताकि उक्त अभीष्ट की प्राप्ति
हो सके।
वेद में ‘वास्तोष्पते’ (ऋ.मं.7 सूक्त 54) में तथाकथित वास्तुशास्त्र के खोजने वाले जान लें कि वहांँ ‘वास्तोष्पते’ से गृह के
रक्षकरूप में परमपिता परमात्मा ही अभिप्रेत है। निठल्लों को धन प्राप्त कराने हेतु कोण निर्धारण का विवरण नहीं है। ईकोफ्रेन्डली
भवन बनाना ही सच्ची वास्तु कला है। अस्तु।