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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / सबसे बड़ा षत्रु अज्ञान

सबसे बड़ा षत्रु अज्ञान

एक साथ दो खबर पढ़ने को मिलीं मन विषाद से भर गया। यूँ देखा जाए तो दोनों समाचारों का आपस में कोई संबंध नहीं है। परन्तु हमारा यह मानना है कि दोनों घटनाओं के पीछे कारक एक ही है और वह है समाज के अन्दर अन्धश्रद्धा और अन्धविश्वास का दृढ़ता से कदम जमा लेना। एक तरफ एक विख्यात् सन्त के द्वारा सोलह वर्षीय लड़की के यौन शोषण का समाचार तथा दूसरी ओर अपने चिकित्सा व्यवसाय को भी तिलांजलि देकर गत बीस सालों से ‘अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति’ की स्थापना कर उसके माध्यम से समाज में व्याप्त अन्धविश्वास, काला जादू, जादू टोना और ऐसी ही समस्त कुरीतियों को जड़ मूल से उखाड़ने के संकल्पवीर डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की कायरतापूर्ण हत्या। इन दोनों घटनाओं के पीछे ‘अज्ञान’ कारक है। अज्ञान-जन्य स्वार्थ ने ही डॉ. दाभोलकर की नृशंस हत्या की तो इसी अज्ञान-जन्य अन्धश्रद्धा ने आसाराम बापू को सर्व-शोषण का हथियार दिया। धर्म के नाम पर स्वार्थी तत्त्वों द्वारा नाना प्रकार के बाह्य आडम्बरों की संरचना का क्रम जब एक बार चल पड़ा तो इस लहराती आत्मघाती नदी की डूब में अपने को आने से रोकने वाले विरले ही लोग रहे। इस प्रबल धारा के वेग को रोकने का साहस जागरूक समाज सुधारक भी नहीं कर पाए और उन्होंने इस ओर चुप्पी साधना ही श्रेयस्कर समझा। 19वीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने धर्म के सच्चे स्वरूप को प्रस्तुत करते हुए पार्थिव उपासना और इससे जुड़े अन्धविश्वासी क्रियाकलापों, अवतारवाद, चमत्कारवाद का तर्क के धरातल पर जाकर प्रबल विरोध किया। एक ऐसी आँधी तर्क की चली जिसने ऐसे विश्वासों की नींव को हिलाकर देश को सत्य सूर्य के दर्शन कराये। इन सब अन्धविश्वासों के मूल में कुलबुलाते पाप क्षमा सिद्धान्त को ऋषि दयानन्द ने पूर्णतः ध्वस्त कर दिया। परन्तु स्वार्थी तत्त्वों ने सच्चाई को कब आसानी से उन्मुक्त होने दिया है। गैलीलियो, बू्रनो, सुकरात और न जाने कितने सत्यशोधकों को षड्यन्त्र के हलाहल का पान करना पड़ा। ऋषि दयानन्द का बलिदान भी इन्हीं तत्त्वों द्वारा किए गए षड्यन्त्र के फलस्वरूप हुआ। ऋषि दयानन्द ने अपने द्वारा स्थापित आर्य समाज से पाखण्ड खण्डन का कार्य निरन्तर करते रहने की आशा की और आर्य समाज के प्रारम्भिक समय में जान पर खेलकर भी हमारे शूरवीर पूर्वजों ने सत्य के दीपक को जलाये रखा। आज स्थिति बहुत परिवर्तित हो गई है। ऋषि की फहरायी पाखण्ड-खण्डनी पताका को अब सबल दण्ड और सबल हाथों की अपेक्षा है। परन्तु उनकी उपस्थिति दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। कारण, सत्याधारित इस समाज में भी स्वार्थ का विषधर फन फैलाकर खड़ा हो गया। अन्धविश्वास को निर्मूल करने के संबंध में आर्य समाज में जो पद्धति आज है वो मंच और कलम तक सिमट गई है। आधुनिक वैज्ञानिक चिन्तन के समय में अन्य प्रकार अपनाने बहुत आवश्यक हैं।
हमने अपने पुराने किसी निवेदन में दो संस्थाओं की चर्चा की थी। जो आर्य समाज से संबंधित तो नहीं परन्तु पाखण्ड-खण्डन के क्रम में असरदार तरीके से कार्य कर रही हैं। उनमें से एक श्री सनत के नेतृत्व में ‘रेशनल सोसायटी ऑफ इंडिया’ तथा दूसरे ‘अन्धश्रद्धा निर्मूलन समिति’ जिसके संस्थापक अध्यक्ष की निर्मम हत्या की बात से हमने अपना यह आलेख आरम्भ किया है। डॉदाभोलकर जहाँ पूर्णकालिक रूप से ऐसे सभी ढोंगी मठाधीशों के खिलाफ असरदार ढंग से कार्य कर रहे थे वहीं जनता में व्याप्त
अन्धश्रद्धा के चलते हुए उपरवर्णित सन्त धन, यश और सम्मान के स्वामी तो बन गए परन्तु वस्तुतः नैतिक आधारों पर उनकी हैसियत निकृष्टतम सोपान पर है। डॉ.दाभोलकर महाराष्ट्र सरकार से कानून बनवाने के लिए प्रयासरत थे जिसके द्वारा ऐसे सभी लोगों पर अंकुश लगाया जा सके जो लोगों को बहकाकर, गलत प्रलोभन देकर, तांत्रिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करके या अन्य किसी प्रकार की प्रक्रियाओं के अपनाकर धर्म का धन्धा कर रहें हैं उनको नियमित किया जा सके। परिणाम उनके बलिदान के रूप में हमारे समक्ष आया। समाज के जागरूक सदस्यों को निश्चित रूप से वहाँ से प्रारम्भ करना चाहिए जहाँ से डा.दाभोलकर छोड़ कर गए हैं।
वस्तुतः भारतीय समाज में एक ऐसे जड़त्व का प्रादुर्भाव हो चुका है जहाँ आस्था के नाम पर किए जा रहे किसी भी कार्य की संवीक्षा से हम बचना चाहते हैं। ऐसे प्रकरणों में तर्क का और सामान्य बुद्धि का प्रयोग भी हम वर्जित मानते हैं। संभवतः इसलिए कि इन कृत्यों को करने वाले व्यक्ति क्योंकि उनके साथ हजारों की संख्या में लोग खड़े हुए हैं, इसलिए क्या पता वे धर्म के सच्चे प्रतिपादक हों और उनकी बुराई करने से हमारा कुछ अनिष्ट हो जाय प्रायः ऐसा सोचा जाता है। ऐसी मानसिकता हमें तब स्पष्ट दिखाई देती है जब रामपालदास जैसा जूनियर इंजीनियर की नौकरी से रिटायर व्यक्ति अनेक प्रकार के लाभ दिलवाने का लालच देता हुआ एक सन्त के रूप में हमारे सामने आता है और हम उसके व्यक्तित्व की समीक्षा कर सत्य निर्णय से बचने का प्रयास सबसे बड़ा षत्रु अज्ञान
करते हैं। अनेक तथाकथित सन्त अब तक हमारे समक्ष ऐसे रूप में आ चुके हैं जिन्होंने श्रद्धालुओं की आस्था का अनुचित लाभ उठाकर बलात्कार जैसे जघन्य कांड किए। जेल भी गए और आश्चर्य तब कि बाहर निकलकर उनको भी महामण्डलेश्वर की पदवी अन्य सन्त दे देते हैं। ऐसे सारे लोग न सन्त कहलाने के लायक हैं न धर्म से इनका दूर-दूर तक का कोई वास्ता हैं। इसे जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक समाज में यह तत्त्व भी उन लोगों की जमात में शामिल रहेगा जो कि हर हथकण्डे अपनाकर दूसरों का शोषण करते हैं। विचार करें कि यदि बालिका के माता-पिता तंत्र-मंत्र में विश्वास रखने वाले अन्धविश्वासी न होते तो आसाराम जी को दुष्कर्म का अवसर ही न मिलता। आसाराम जी के संदर्भ में जाँच रिपोर्ट का क्या नतीजा निकलेगा यह तो समय बतायेगा परन्तु स्थान विशेष पर अपनी उपस्थिति बाबत ही तीन तरह के बयान देकर वे साबित कर चुके हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ अवश्य है। इन्हीं तथाकथित सन्त का एक वीडियो हमने पूर्व में देखा था जिसमें एक स्टिंग ऑपरेशन के तहत आर्थिक अपराधों से भागी एक विदेशी युवती को अपने यहाँ छुपाने में इन्होंने कोई झिझक व्यक्त नहीं की। यहाँ सवाल सन्त विशेष का नहीं है, मानसिकता का है। एक तरफ हम डॉ., प्रोफेसर, इंजीनियर इत्यादि के रूप में अपने को विशेष बुद्धि सम्पन्न मानते हैं परन्तु दूसरी ओर अगर कोई मदारी के रूप में हाथ घुमाकर कोई वस्तु हमारे समक्ष उपस्थित कर देता है तो वहाँ हमारी सारी बुद्धि घास चरने चली जाती है। यही कारण है कि अच्छे-अच्छे बुद्धिवादी प्रखर राजनेता ऐसे लोगों के चरणों में बैठे नजर आते हैं और जब ऐसे उच्च स्तरीय व्यक्ति भी तथाकथित सन्तों से मंत्रादि लेकर स्वयं को दीक्षित करने की लाइन में लग जाते हैं तो जनसाधारण यह सोचकर कि इतने बड़े-बड़े लोग इस बाबा पर श्रद्धा रखते हैं तो यह कैसे गलत हो सकता है? नतीजतन वे भी भीड़ में सम्मिलित हो जाते हैं। मैं यह नहीं कहता कि सारे सन्त फ्राड हैं परन्तु हाँ, आज जब ऐसे सन्तों को राजसी वैभव व ठाठबाट में डूबा देखते हैं, दुनियाभर के आडम्बरों में रत् देखते हैं तो लगता यही है कि सन्तधर्म से इनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं। एक समय था जब भारत का संन्यासी छोटी सी पर्ण-कुटी में ईश्वर के सानिध्य में सत्य के दर्शन करता था और कौपीन मात्र में सर्दी-गर्मी के द्वन्द को सहते हुए भी जन साधारण का मार्ग प्रदर्शित करता था, वहाँ आज के साधुगण जिनके लिए मेलों में ऐसे-ऐसे तम्बुओं की संरचना की जाती है जहाँ राज दरबार भी शरमा जाए तो हमारे मन में प्रश्न अवश्य उठते हैं। दूरदर्शन पर लच्छेदार भाषण देते हुए, वैराग्य का उपदेश देते हुए, माया को महाठगनी बताते हुए ये लोग स्वयं स्टूडियो में आने से पहले नाना प्रकार के मेकअप का प्रयोग अपने ऊपर इस भावना से करवाते हैं कि उनके वक्तव्य के साथ उनके व्यक्तित्व का भी प्रभाव लोगों पर पड़े तो हमारे मन में संदेह उपजते हैं।
आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द जी महाराज समाज में सन्तों संन्यासियां की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि समाज में संन्यासी की आवश्यकता उसी प्रकार है जिस प्रकार शरीर में सिर की आवश्यकता होती है क्योंकि जो समस्त ऐषणाओं से ऊपर उठ चुके हैं, संसार का धन, वैभव, प्रतिष्ठा जिनके लुभाने की वस्तु नहीं रह गई है, आत्मा की
अजरता-अमरता को जान मृत्यु का भय जिनको स्वप्न में भी नहीं सताता, ऐसे निर्भीक, निष्कपट, वीतराग संन्यासी सत्योपदेश के द्वारा सत्यमार्ग का परिचय, सही जीवन पद्धति का उपदेश जन सामान्य को करते हैं। पूर्णतः सांसारिक राग-द्वेष व वैभव में लिपटे सन्तगण जो व्याख्यान भी बुलेटप्रूफ केबिन से देते हों उक्त कार्य को कभी नहीं कर सकते। केवल अपने-अपने हथकण्डों से, चतुराई से, होशियारी से, वक्तव्य कला से, लोगों की कामनाओं को अनायास पूरी करने के प्रलोभन से, अपने के स्थापित करने वाले ये लोग केवल भ्रमित ही करते हैं और स्वयं का घर भरते हैं।
यूँ तो हमने देखा कोई घटना होती है, हमारे देश में कुछ दिन, कुछ सप्ताह उसकी चर्चा रहती है फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। परन्तु हमें यदि मानव जीवन के रूप में मिले इस अमूल्य अवसर को अपनी चिरलक्षित यात्रा के साधन के रूप में परिणित करना है तो जागना तो पड़ेगा। आएँ धर्म के सच्चे स्वरूप को समझें। धर्म के नाम पर जितने भी पाखण्ड हैं उनका समूल नष्ट करने में जुट जायें क्योंकि बौद्धिक सर्वनाश सबसे बड़ी चोट होती है। हम कैसे सोच सकते हैं कि आज धर्म के नाम पर बलि देकर किसी के जीवन को नष्ट किया जा सकता है, किसी मासूम का सिर काटा जा सकता है, प्रतिमाएँ दूध पी सकती हैं, अश्रुपात कर सकती हैं, स्थान विशेष मोक्षदायी हो सकता है? अन्त में एक बात और अगर हम अन्धविश्वास के संदर्भ में एक तर्कहीन बात के मानते हैं तो दूसरी से भी इंकार नहीं कर सकते। सृष्टि में सृष्टिक्रम से विरुद्ध कुछ भी होना असंभव है। हम ध्यान रखें सृष्टि के नियमों के अनुसार ही कार्य होते हैं। अगर इससे विपरीत कहीं कुछ हो रहा है तो उसके पीछे कोई न कोई जालसाजी है। परन्तु यह भी है कि ऐसे संस्कार देने वाला परिवेश बचपन से ही जब तक प्राप्त नहीं होगा तब तक कुरीतियों के बीज कब हमारे हृदय में स्थान बनाकर उग आयेंगे हम नहीं कह सकते। इसीलिए महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में स्पष्ट लिख दिया कि बचपन से ही बालक के मस्तिष्क का विकास इस प्रकार किया जाए कि वे चमत्कारी, तर्कहीन, सृष्टिक्रम से विरुद्ध बातों पर विश्वास नहीं करे। जब हमारा मानस ऐसा हो जायेगा तो भोग विलासी सन्त भी आप देखेंगे कि हमारे मध्य से गायब हो जायेंगे।