न्यायालय को नमन
भारत की आज की राजनीति और राजनेताओं का जो चरित्र बन चुका है वह हमें सोचने पर विवश कर देता है कि जिस समय
भारत माता के अनगिनत लाल भरी जवानी में फाँसी के फन्दे को चूम रहे थे वे क्या ऐसे ही भारत का स्वप्न देख रहे थे? कदापि
नहीं। ‘राजनीति में आप क्यों आये हैं?’ यह पूछने पर ‘समाज सेवा के लिए’ यह उत्तर देते समय नेताओं के मन मस्तिष्क में कुर्सी
से जुड़े अधिकार व उसकी बदौलत प्राप्त होने वाले ऐशोआराम के रंगीन स्वप्न तैर रहे होते हैं। अधिकार लिप्सा सर्वापरि हो गई
है। वरना समाज सेवा के क्षेत्र में तो आज भी ऐसे सहस्रों लोग लगे हैं जो खामोशी के साथ अपना काम कर रहे हैं। पर कितने
राजनेता यह कार्य कर रहे हैं यह चिन्त्य है।
कुछ समय पूर्व जयपुर में एक रैली के विशाल परिदृश्य पर एक संवेदनात्मक नाटक हुआ। मंच पर माँ ने बेटे को राजनीति में आने
की हरी झंडी दी। अश्रुधाराएँ बहाई गईं। कहा गया देश के लिए जहर पिया जा रहा है। सारा वातावरण ऐसा बनाया गया कि जैसे
कोई अभूतपूर्व बलिदान राष्ट्र के लिए देने जा रहा है। यहाँ प्रश्न उठता है कि जब आप सुनिश्चित उत्सर्ग मान रोने की हद तक
दुःखी हैं तो फिर कदम आगे बढ़ाने की बाध्यता ही क्या है? पर हर कोई जानता है यह ड्रामेबाजी है। असली मुद्दा कुर्सी का है। वह
कुर्सी जिसे पाने हेतु कुछ भी कर गुजरने पर नेता लोग अमादा हैं। वह कुर्सी जिसे पाकर राष्ट्रहित को भी बेचने के लिए तैयार हैं।
इस कुर्सी तक पहुँचने का जो रास्ता बनाया गया है वह तिकड़मभरा और अनैतिकता की हद को स्पर्श करता हुआ है। आखिर क्या
कारण है कि 30 प्रतिशत से भी अधिक राजनेता ऐसे हैं जिन पर गंभीर किस्म के आपराधिक मुकद्दमे चल रहे हैं और फिर भी वे
हमारे नेता हैं और क्योंकि उन्होंने धनबल, बाहुबल और आपसी स्वार्थों पर आधारित समूहबल प्राप्त कर लिया है। अतः उनकी
नेतागिरी की दीर्घता भी सुनिश्चित रहेगी। श्रीमती मायावती जी की घोषित सम्पत्ति 1100 करोड़ रुपये है और आय से अधिक
सम्पत्ति की जाँच करते हुए जाँच संस्थाएँ उन्हें क्लीन चिट दे रही हैं। क्या कोई समझ पायेगा कि एक निर्धन परिवार में जन्म लेने
वाली नेत्री ने ऐसा क्या कार्य किया कि 1100 करोड रु. अर्जित कर लिये। कौन-सा ऐसा तरीका है कि चार साल में धन तीन गुना
हो जा? इससे पूर्व मुलायम सिंह जी को भी इसी प्रकार के मामले में यह तोता क्लीन चिट दे चुका है।
जाहिर है ये सभी वे तिकड़म हैं जिनसे तेरी भी चुप मेरी भी चुप। देश व नैतिकता जाये भाड़ में। मैं तुझे और तू मुझे नैतिकता का
प्रमाण पत्र देता रह। ऐसे में जनता का हताश होना स्वाभाविक है। सत्ता ईमानदारों तक किस प्रकार जायेगी यह यक्ष प्रश्न है? एक
विचित्र बात यह है कि जिन नेताओं के ऊपर गंभीर जघन्य आपराधिक मुकद्दमे चल रहे हैं और जिनको दोषी भी न्यायालय द्वारा
घोषित किया जा चुका है, वे ऊपरी अदालतों में अपील की अर्जी लगाकर मूँछों को ऐंठते हुए निर्दाष बनकर दनदना रहे हैं और
वर्तमान जनतंत्र की जो चुनाव प्रणाली है उसमें जुगत भिड़ाकर पुनः पुनः निर्वाचित होकर आ रहे हैं। जागरूक मतदाता यह सब
ठगा हुआ देख रहा है। पर उसके पास इसका कोई इलाज नहीं है।
इसका सम्पूर्ण समाधान तो नहीं हाँ, इस दिशा में कुछ राहत माननीय उच्चतम न्यायालय के 10 जुलाई के निर्णय ने दी है। जिन
नेताओं को किसी अपराध में दोषी पाया जाकर उन्हें दो साल की सजा सुनाई गई है वे न तो वर्तमान पद पर रह सकेंगे और न ही
चुनाव लड़ सकेंगे। इसका नतीजा भी तुरन्त दिखाई पड़ा। राजनेता सकते में रह गए। हड़कम्प मच गया। केन्द्रीय मंत्री रशीद मसूद
तथा लालू प्रसाद यादव पर तलवार लटक गई। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए इस क्रान्तिकारी निर्णय को सदैव की
भाँति निष्प्रभावी करने हेतु विधायिका सक्रिय हो गई। इस कार्य में सभी दल एकजुट दिखे। सभी बड़े नेताओं ने उच्चतम न्यायालय
के उक्त निर्णय से होने वाली हानि का विशद् वर्णन किया। स्पष्ट है कि सभी राजनीतिक दल यह मानते हैं कि ऐसे दागी भ्रष्ट
नेतागणों की जरूरत है और यह भी कि उक्त निर्णय यदि प्रभावी हो गया तो वे कभी न कभी स्वयं भी इसकी चपेट में आ सकते
हैं। स्वयं प्रधानमंत्री महोदय भी कोलगेट में पाक साफ नहीं दिखते। अतः जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन लाने की कार्यवाही
आरम्भ हुई।
किन्हीं कारणों से सत्तारूढ़ दल को इसे लाने की इतनी शीघ्रता थी कि एक अध्यादेश राष्ट्रपति महोदय के सम्मुख भेज दिया गया।
स्पष्ट नजर आ रहा था कि उसके मंत्री रशीद मसूद को बचाना था और क्योंकि लालू प्रसाद यादव पर उनके खिलाफ फैसला आने
की संभावना थी और सत्तारूढ़ दल ने जिस प्रकार मुलायम सिंह तथा मायावती को क्लीन चिट देकर इस उपकार के बदले 2014
के चुनावों में उनके समर्थन की संभावना को जीवित रखा उसी प्रकार उक्त अध्यादेश पारित करवाकर लालू-सहयोग को भी जीवित
न्यायालय को नमन
रखना था।
परन्तु न जाने क्या हुआ कि युवराज राहुल ने ठीक उस समय जब पार्टी प्रवक्ता अजय माकन अध्यादेश की शान में कसीदे पढ़े रहे
थे अचानक नमूदार हो, कुर्ते की बाहें चढ़ाकर इस अध्यादेश को फाड़ फेंकने योग्य बताकर सभी को हतप्रभ कर दिया। इसके बाद
अन्दर खाने की गतिविधियाँ तेजी से चली । एक बार फिर यह साबित करते हुए कि सत्तारूढ़ दल केवल एक वंश का दल है, सारी
की सारी पार्टी युवराज के सुर में सुर मिलाकर जनता की भावनाओं की व स्वच्छ राजनीति की पेरोकार बन गई।
जानकार लोग यह प्रश्न अवश्य सामने रख रहे हैं कि अगर राहुल जी ने यह फैसला जनता की आवाज सुनकर लिया तो वह
आवाज कॉमनवैल्थ, टूजी, कॉलगेट, राबर्ट वाड्रा के समय क्यों न सुनी? मुजफ्फरनगर की आवाज उन तक नहीं पहुँची? एक बात
यहाँ हम अवश्य कह दें कि चाहे यह राजनीतिक तिकड़म हो परन्तु इसकी परिणिति अच्छी हुई। इसके लिए राहुल गाँधी को
धन्यवाद दिया जा सकता है। जो भी हो माननीय उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान व्यवस्था सुधार के क्रम में एक अवसर पैदा किया
है।
उससे पूर्व भी न्यायालय ने जातिगत रैलियों पर प्रतिबंध लगाकर जातिगत राजनीति रूपी भारतीय नासूर का ऑपरेशन करने
का प्रयास किया था। यद्यपि राजनेता इस गन्दी राजनीतिक व्यवस्था को बनाए रखने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। परन्तु पूर्व मुख्य
चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने चुनाव प्रणाली में जिस सुधार को प्रारम्भ किया था वह बिल्कुल ही निष्फल नहीं हुआ, यह कहा जा
सकता है। चुनावों में पूर्वापेक्षा हिंसा भी कम हुई है। बूथ कैप्चरिंग भी उतना आसान नहीं रहा है। हाँ! जातिगत तथा अल्पसंख्यक
तुष्टीकरण की राजनीति अभी भी सुरसा के समान मुँह फैलाए खड़ी है। पर अब जनता को भी तो कुछ करना पड़ेगा।
‘राइट टू रिजेक्ट’ के निर्देश भी दिए जा चुके हैं परन्तु ध्यान रक्खें कि इस निर्देश का लाभ तभी है जब मतदान शत-प्रतिशत तक
पहुँचे। जब तक ऐसी अनिवार्य व्यवस्था कानूनन नहीं होती तब तक जनता को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी और वह जिम्मेदारी
यह होगी कि बिना जाति-पाँति, बिना आर्थिक-प्रलोभन, बिना आलस्य-प्रमाद के किसी भी परिस्थिति में ईमानदार, स्वच्छ चरित्र
वाले प्रत्याशियों को वोट अवश्य करें।
एक भी संदिग्ध चरित्र वाला व्यक्ति विधायिका में न जाने पावे इस हेतु सुचिन्तित, सुविचारित मतदान करें। मतदान शत-प्रतिशत
हो यह हम सबकी जिम्मेदारी है। हो सकता है इससे देश की तकदीर बदल जाये।