E.N.S
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे राष्ट्र नायकों ने इस प्रकार के कोई प्रयास करने की आवश्यकता ही नहीं समझी जिसकी वजह से आने वाली पीढ़ी अपने महान् देश के गौरव को आत्मसात कर गौरव का अनुभव कर सके और इसे अंगीकार करने हेतु प्रयत्नशील हो। परिणामतः मैकाले की शिक्षा पद्धति अबाध गति से दिन प्रतिदिन पुष्टि को प्राप्त हो रही है। पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भारतीयोें पर यूँ तो अनेकानेक क्षेत्रों में पड़ा है परन्तु ‘भारतीय पारिवारिक प्रणाली’ विशेष रूप से प्रभावित हुई है। हमारी पारिवारिक संस्था में स्वभावतः यह क्रम रहा है कि माता पिता प्राण प्रण से सन्तान का पालन पोषण करते हैं तथा जब वे वृद्धावस्था को प्राप्त होते हैं तो सन्तान स्वभावतः ही उनकी हर प्रकार से देखभाल व आत्मीयतापूर्वक सेवा करती है। यह सन्तान का ऐसा दायित्व होता था जो सन्तान को बोझ नहीं लगता था। भारतीय परम्परा तो कवि ओम व्यास के शब्दों में जीवन पद्धति के रूप में स्वीकार करती रही है किः- ‘वो खुश नसीब हैं, माँ-बाप जिनके साथ होते हैं। क्योंकि माँ-बाप की आशीषों के हजारों हाथ होते हैं’।। यह भावना पाश्चात्य संस्कृति-सम्पर्क से निश्चित रूप से दरकी है, धूमिल हुई है, क्षीण हुई है। वर्तमान युग के महान् सुधारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि- ‘ वह कुल धन्य! वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्! जिसके माता और पिता धार्मिक, विद्वान् हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता है, उतना किसी से नहीं। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम, उन का हित करना चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं करता।’ महर्षि का यह निर्देश ‘भारतीय परिवार संस्कृति’ की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। निष्कर्षतः माता-पिता अपनी सन्तान के हितार्थ सम्पूर्ण जीवन झोंक देते हैं। माँ-बाप की स्वाभाविक रूप से अभिलाषा होती है कि जब वे अशक्त हो जावें तो उनकी सन्तान जिनके योग-क्षेम के लिए उन्होंने अपना सब कुछ लगा दिया हो वे प्रीतिपूर्वक उनकी देखभाल करें। एक फिल्मी गीत में इसी भावना को व्यक्त किया गया था। आ अंगुली थाम के तेरी, तुझे मैं चलना सिखलाऊँ, तू हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ। वृद्धावस्था किसी भी मनुष्य के लिए सहज नहीं होती। कल तक वह अर्जन करता था। सारे परिवार का भरण-पोषण करता था। मुखिया के रूप में उसका वर्चस्व था। उसकी आज्ञा पूरे परिवार के लिए स्वभावतः मान्य होती थी। माता भी चाहे अर्थार्जन करती न करती, उसकी स्थिति भी कमोबेश ऐसी होती थी। एकाएक सब कुछ बदल जाता है। वह अब अर्जन नहीं करता। कल तक जिसके पास व्यस्तताओं का अम्बार था यकायक वह ‘ठाला’ हो जाता है। जब वह इस परिवर्तन से मानसिक तादात्म्य बिठा ही रहा होता है कि परिवार के केन्द्र से उसकी च्युति हो जाती है। धीरे-धीरे अब वह परिवार का मुखिया नहीं रहता। बच्चों के निर्णय उस पर भारी पड़ने लगते हैं। इसमें यद्यपि अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है और यह स्थिति माता-पिता पर भारी भी नहीं पड़ती यदि सन्तान अपने व्यवहार को इस प्रकार रखें कि माता-पिता एक क्षण को भी अपने को अन्य पर बोझ न समझें। स्वाभाविक रूप से उसका सम्मान पूर्ववत् ही नहीं पूर्वापेक्षा बढ़ जाय। सन्तान दिन प्रतिदिन पितृऋण सम्पन्न करती रहे। यही ‘भारतीय परिवार संस्कृति’ का ध्येय है, यही खूबसूरती है यही सन्तुलन है। (आज के युग में वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम उपेक्षित प्रायः है।) परन्तु भारतीय परिवार से उपरोक्त सामफ्जस्य तिरोहित होता जा रहा है। इसमें कुछ तो कारण तेजी से परिवर्तित हो रहा सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य है। कुछ परिवार संस्कृति से विमुखता है। यह आश्चर्य का विषय है कि आज के युग में भी भारतीय माता-पिता अपनी सन्तान के प्रति तो संवेदनशील हैं पर संवेदना और आत्मीयता का वह स्तर माता-पिता के साथ नहीं है। जबकि वे यह तो जानते ही होंगे कि स्थिति यही रही तो जब वे स्वयं वृद्ध होंगे तो उनकी सन्तान व उनके रिश्ते भी ऐसे ही होंगे जैसे उनके अपने माता-पिता के साथ हैं। जैसाकि हमने लिखा है कि वर्तमान आर्थिक-सामाजिक ढांचा भी इसके लिए जिम्मेदार है। पहले जमाने में सन्तानों की संख्या ज्यादा होती थी। कुछ बाहर नौकरी इत्यादि हेतु चले भी जाते थे तो भी कोई न कोई बेटा माता-पिता के साथ रह जाता था। पर आज सन्तान एक अथवा दो ही होती हैं। उच्च शिक्षा के पश्चात् अधिकांश में यही संभावना होती है कि कुछ महानगरों में ही उन्हें नौकरी मिलेगी। अतः माता-पिता के सामने दो ही विकल्प रह जाते हैं या तो वे अपने मूल निवास स्थान पर अकेले रहें अथवा बेटे-बहू के साथ रहने चले जायें। पर दोनों ही स्थितियाँ सहज नहीं होतीं। प्रथम में वृद्धावस्था में अकेले में जीवन अत्यन्त दुष्कर होता है। हमारे एक मित्र हैं अत्यन्त उच्च शिक्षित। उनकी सभी सन्तानें महानगरों में नौकरी कर रही हैं। सेहत खराब होने पर तो बात क्या, छोटे-छोटे कार्यों के लिए भी उन्हें अन्यों का मोहताज होना पड़ता था। जब ईसवाल स्थित दयानन्द धाम पर वृद्धाश्रम निर्माण की बात चल रही थी तो वे काफी रुचि ले रहे थे। कारण वृद्धावस्था की समस्याओं से अकेले जूझना आसान नहीं। दूसरी स्थिति में बेटे-बहू का सान्निध्य तो मिल जाता है। पर जीवन का अधिकांश समय जिस जगह गुजारा है जहाँ सैंकड़ों मित्र, परिचित बन चुके हैं वह जगह छोड़कर सर्वथा अनजान जगह मन लगाना आसान नहीं। उस पर भागती-दौड़ती जिन्दगी में बेटे-बहू काम पर प्रातः निकल कर रात को आते हैं। ऐसे में उनका सान्निध्य भी क्या वास्तविक होता है? यहाँ भी अगर सन्तान का माता-पिता के प्रति व्यवहार आत्मीयता से भरपूर है तब तो अकेलापन भी सह लिया जाता है अन्यथा वे अपने को पोते-पोतियों की ‘आया’ से अधिक नहीं समझते। और इस मनोवैज्ञानिक व्यथा को वे ही बेहतर समझते हैं जो भुगत रहे हैं या जिन्होंने भुगता है। यह तो रही उन माता-पिता की बात जिनके बच्चे देश में ही अन्य शहरों में हैं। परन्तु ऐसे माता-पिताआंे की कमी नहीं जिनके बच्चे विदेशों मंे बसे हैं। इनकी स्थिति और भी विकट है। अनेक घटनाएँ ऐसी देखी गई हैं कि अन्तिम समय में भी उचित देखरेख के अभाव में वे संसार से प्रयाण कर जाते हैं। उनके मित्रगण शव को मुर्दाघर मंे रखवाते हैं। दो एक दिन में बेटे के आने पर अंतिम संस्कार किया जाता है। कई शहरों में तो ऐसी स्थिति में एक दूसरे को संभालने हेतु एनआरआई सन्तानों के माता-पिताओं ने एसोसिएशन भी बनाई हैं। वृद्धावस्था में अकेले रहने का दर्द कम नहीं होता। कुछ वर्ष पूर्व अहमदाबाद के जीवाजी पार्क में रहने वाले आयुर्वेदिक काॅलेज के पूर्व प्राचार्य दत्तात्रेय गिरि तथा उनकी पत्नी भावना ने आत्महत्या कर ली। उनके दो पुत्र हैं। एक नागपुर में प्रोफेसर हैं दूसरा यू.एस.ए. में डाॅक्टर। उन्होंने अपने अकेलेपन का दर्द अपने सुसाइड नोट में लिख छोड़ा था, जिसकी कल्पना भी कर रूह काँप जाती है। वृद्धों के इस अकेलेपन को मनोवैज्ञानिकों ने म्उचजल Empty Nest Syndrome का नाम दिया है। एक युगल घोंसला बना सन्तान को पालता-पोसता है बड़े होने पर सन्तान घोंसले को छोड़ चली जाती है। और पीछे रह जाने वाले माता-पिता को यह खालीपन काटता रहता है। ‘ई.एन.एस.’ से ग्रसित वृद्धों में पति-पत्नी दोनों हों तो फिर भी ठीक है अगर कहीं कोई अकेला रह गया तो उसके दुःख का कोई पारावर नहीं। आज वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या इस नई चुनौती का दस्तावेज है। प्रश्न यह है कि इस समस्या का समाधान क्या है? अच्छी नौकरी अच्छा वेतन जहाँ भी मिले वहाँ पुत्र जावे इसमें अनुचित क्या है? अधिकांश माता-पिता भी अपनी सन्तान की प्रगति में बाधक नहीं बनना चाहेंगे। बात इतनी है कि पाश्चात्य संस्कृति-संपर्क-जनित ‘न्यूक्लीयर फैमिली’ की अवधारणा को दूर करना होगा। आपके परिवार में जहाँ सन्तान को दिलोजान से स्थान प्राप्त है, वहीं वृद्ध माता-पिता का भी स्थान स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। ष्ॅपजी थ्ंउपसलष् की परिभाषा में पति-पत्नी-बच्चों के साथ खिसकते हुए माता-पिता का पुनर्वास होना चाहिए, ठोस रूप में स्थापित होना चाहिए क्योंकि वे सदैव परिवार के स्वाभाविक घटक हैं। वृद्धावस्था की यह समस्या धीरे-धीरे चुनौती प्रस्तुत कर रही है। जिन भारतीय पारिवारिक संस्कारों के कारण यह दुःखद स्थिति उत्पन्न नहीं होती थी उसकी सुदीर्घता के प्रयासों की आवश्यकता न समझ केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों ने ऐसे कानून बना दिए हैं जिनकी सहायता से माता-पिता सन्तान से भरणपोषण प्राप्त कर सकते हैं। इनका भी स्वागत है। हो सकता है यह क्षणिक समाधान हो। इससे तन का पोषण हो जायगा पर मन के पोषण का क्या? जबर्दस्ती प्राप्त किए धन से मन कदापि तृप्त नहीं हो सकता। अतृप्त मन का तन भी कुम्हलाने में देर नहीं करेगा। वस्तुतः भारतीय पारिवारिक संस्कृति का केन्द्र है प्यार, आत्मीयता, सम्मान, प्रीति। माता-पिता दूर हों या पास, अगर सन्तान के मन में स्वभावतः उनके प्रति उक्त भाव हों तो ‘ई.एन.एस.’ उनके पास भी नहीं फटक सकेगा। और वे समय परिस्थिति के अनुसार अपना मार्ग चुन सकेंगे। भारतीय गृहस्थाश्रम की विशेषताओं को अपने अमरग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ में उकेरित करते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती पितृयज्ञ के क्रम में पितरों केा परिभाषित करते हुए (जिनमें माता पिता सम्मिलित हैं) लिखते हैं कि- ‘उन सबको अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यान आदि देकर अच्छे प्रकार जो तृप्त करना अर्थात् जिस-जिस कर्म से उनका आत्मा तृप्त औरशरीर स्वस्थ रहै, वह ‘श्राद्ध’ और ‘तर्पण’ कहाता है।’ यहाँ स्पष्ट है कि गृहस्थ पितरों को तृप्त करेे उन्हें सब कुछ उनकी आवश्यकता का दे, परन्तु दे कैसे? बोझ समझ कर नहीं, लोकलाज के वशीभूत नहीं। क्योंकि वह सब कृत्रिम होगा। ऋषि कहते हैं ‘श्रद्धा ही नहीं अत्यन्त श्रद्धा से दे’ और बाद में प्रीतिपूर्वक लिखकर अपना आशय पूर्ण स्पष्ट कर दिया कि वे माता-पिता भी प्रसन्न नहीं होते जिन्हें धनिक सन्तान सब कुछ देती है पर इस देने में श्रद्धा का, प्रीति का, आत्मीयता का अभाव रहता है। अन्यत्र ऋषि ने लिखा है- ‘अपने माता-पिता और आचार्य की तन मन धनादि उत्तम-उत्तम पदार्थों से प्रीतिपूर्वक सेवा करे।’ ऋषि के उपरोक्त दोनों निर्देशों में ‘प्रीतिपूर्वक’ शब्द का विद्यमान रहना द्योतित करता है कि वे मानव मनोविज्ञान के कितने बड़े ज्ञाता थे। बिना प्रीति के सन्तान सारे सुख साधन जुटा दे, वे दुनिया भर के नौकर-चाकर रख दे सेवा-सुश्रूषा करने के लिए, परन्तु स्वयं माता-पिता के लिए दो मिनट भी न निकालें, प्यार से दो बोल भी न बोलें, तो ऐसा परिवेश दुनियाँ के लगभग सभी पितरों को स्वर्ग कदापि नहीं लग सकता। और प्यार व सम्मान से खिलायी गई सूखी रोटी भी उन्हें छप्पन भोग का हिस्सा लगेगी इसमें सन्देह का कोई स्थान नहीं। महर्षि दयानन्द का यह उद्धरण पूरा का पूरा ऋषि के आशय को ही स्पष्ट नहीं करता वरन् भारतीय परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। निष्कर्षतः वही सन्तान पितृऋण से उऋण हो सकती है जो सभी प्रकार से माता-पिता की सेवा करे, उन्हें तृप्त करे, और यह तभी संभव है जब यह सेवा कार्य स्वाभावतः हो, श्रद्धापूर्वक हो, अत्यन्त प्रीतिपूर्वक हो। तब निश्चय ही पितरों के आशीर्वाद फलित होंगे। कवि अब्दुल जब्बार (चित्तौड़गढ़) ने ठीक ही कहा है- इन बुजुर्गों की आँखें कभी नम न हो, इन फरिश्तों की यादें कभी कम न हो। इनके कदमों में जन्नत रजा आपकी, खूब खिदमत करो अपने माँ-बाप की।। हमें निम्न श्लोक को सदैव स्मरण रखना चाहिए अभिवादनषीलस्य नित्यं वृðोपसेविनः चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायषोबलम्।