समीक्षा और सदाषयता
लगभग 10-11 वर्ष पूर्व मैं पुराणों के सन्दर्भ में कुछ कार्य कर रहा था। पुराणों में विद्यमान सैंकड़ों असंभव, अप्राकृतिक व
अश्लील श्लोकों में से कुछ को उद्धृत करने की आवश्यकता अनुभव कर रहा था। इसके लिए मैंने सरल रास्ता अपनाने का
निश्चय किया । प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् पंडित मनसाराम ‘वैदिक तोप’ पुराणों के तलस्पर्शी विद्वान् थे इसमें किसी को कोई संदेह
नहीं। उनकी दो पुस्तकें पुराणों पर हैं जिनमें पुराणों के अनेक श्लोक प्रमाण पते सहित उद्धृत कर पंडित जी ने अपनी बात
कही है। मैंने उसी में से संदर्भों का चयन कर लिया। यह तो स्वप्न में भी नहीं सोचा जा सकता था कि पंडित जी गलत उद्धरण
देंगे। कार्य के बीच में यह उत्कंठा तीव्र हुयी कि मूल पुराणों में इन संदर्भों को एक बार अवश्य देखा जाय।
न्यास के पुस्तकालय में गीताप्रेस गोरखपुर से हमने सम्पूर्ण पुराण मँगाए हुए थे। उनसे जब मिलान करने बैठे तो खोपड़ी हवा
में नर्तन करने लगी, कारण पंडित मनसाराम जी की पुस्तकों में दिए गए पतों पर उद्धृत अनेक श्लोक वहाँ थे ही नहीं। बड़ा
तीव्र धक्का विश्वास को लगा और निश्चय होने लगा कि प. मनसाराम जी ने गलत उद्धरण दिए हैं। पर दिल इस बात से
सहमत नहीं हो रहा था कि पंडित जी जानबूझकर गलत उदाहरण क्यों देंगे और यदि उन्होंने गलत सन्दर्भ दिए थे तो पौराणिक
जगत् ने उनका खंडन कर उन्हें झूठा क्यों नहीं बताया। विचार हुआ कि कहीं पुराणों के अर्वाचीन संपादकों ने उन कालिख
साबित हो रहे श्लोकों को निकाल दिया हो, ऐसा तो नहीं? हमने पुराणों के पुराने संस्करण निकाल जब मिलान किया तो वहाँ
वे श्लोक थे। अब बताइये हमने यदि पुराणों के पुराने संस्करणों से मिलान नहीं किया होता और यह धारणा बना ली होती कि
पंडित मनसाराम जी ने अपने ग्रंथों में अशुद्ध उद्धरण दिए हैं तो क्या यह लेखक के साथ न्याय होता? संभवतः यह एक प्रकार
का हमारे द्वारा कारित पाप होता। यहाँ फिर हम सोचते हैं कि अगर हमारे पास उपलब्ध पुराने संस्करणों में भी ये श्लोक नहीं
होते तो क्या यह मान लेना चाहिए था कि पंडित जी ने गलत उद्धरण दिए थे? आज सोचता हूँ तो मेरा उत्तर तो नकारात्मक
है। कारण इन पुराने ग्रंथों की कितनी प्रकाशित-अप्रकाशित पांडुलिपियाँ हैं यह अभी तक विद्वान् निश्चित नहीं कर सके हैं।
फिर संदर्भित भाग लिखते समय लेखक के सामने कौनसा संस्करण था यह जाने बिना तथा उसी संस्करण से तुलना किये बिना
लेखक के प्रति विपरीत धारणा बना लेना उसके प्रति अन्याय ही है।
उदाहरण के लिए
एक स्थान पर उद्धृत निम्न श्लोक महाभारत के आदिपर्व में गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण में नहीं मिलता है। जबकि ठव्त्प्
(भण्डारकर ओरिएण्टल शोध संस्थान) के क्रिटिकल संस्करण में उपलब्ध है और श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने इसका अर्थ
किया है।
अनावृताः किलपुरा स्त्रिय आसन् वरानने।
कामचार विहारिण्यः स्वतन्त्राष्चारूलोचने।। आदिपर्व 1-113-4
महाभारत में दीर्घतमा ऋषि से सम्बंधित पूरा एक अध्याय संभवपर्व में है पर गीता प्रेस संस्करण में सिरे से नहीं मिलता। अगर
कोई लेखक इस प्रसंग को महाभारत के सन्दर्भ से उद्धृत करता है और हम गीता प्रेस संस्करण को देख घोषणा कर दें कि यह
महाभारत में है ही नहीं तो क्या यह हमारी सदाशयता होगी? कदापि नहीं। जिस ग्रन्थ की सहस्रों प्रतियाँ हांे उसके सन्दर्भ में
यह बात विशेष रूप से लागू होती है।
अभी बहुत समय से रामायण तथा महाभारत को लेकर कुछ कार्य करने का प्रयास कर रहे हंै तो यह निश्चय हुआ है कि इन
ग्रंथों के सैंकड़ों प्रकाशित तथा अप्रकाशित संस्करणों का वर्णन विद्वानों ने किया है, इनमंे से अधिकांश प्रतियाँ एक-दूसरे से
हूबहू नहीं मिलतीं। इनमें श्लोकों के प्रमाण पते न मिलना तो मामूली बात है क्योंकि पर्व बदल गए हैं, काण्ड बदल गए हैं,
अध्याय बदल गए हैं तो फिर प्रमाण पते क्योंकर मिल सकेंगे? महाभारत का उदाहरण देकर हम अपनी बात स्पष्ट करना
चाहेंगे। जब पूणे के भंडारकर ओरिएण्टल शोध संस्थान ने महाभारत का क्रिटिकल संस्करण निकालना चाहा तो महाभारत की
1159 पांडुलिपियों पर उन्होंने कार्य किया। ये 1159 ही अंतिम संख्या है यह दावा भी नहीं किया जा सकता। संख्या इनसे भी
अधिक हो सकती है। इनमंे दो को प्रमुख माना गया। उत्तरीय तथा दाक्षिणात्य। इन दोनों की भी कई पांडुलिपियाँ हैं। ठव्त्प्
संस्करण कैसे तैयार हुआ यह इस आलेख में प्रासंगिक नहीं है परन्तु मोटे तौर पर जब हम शोधकर्ताओं के प्रिय ठव्त्प्
आत्म
निवेदन
मई 2015
समीक्षा और सदाषयतासंस्करण की, सर्वाधिक प्रचलित गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण की तथा अधिक मान्यता प्राप्त दाक्षिणात्य संस्करणों की परस्पर
तुलना करते हैं तो दिमाग का कचूमर बन जाता है। संकेत हेतु उदाहरण-
महाभारत सभापर्व के अध्याय 28 ( गीता प्रेस) का मिलान जब अन्य दोनों संस्करणों से करते हैं तो पता चलता है कि
महाराजा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से पूर्व अर्जुन की विजय यात्राओं से सम्बंधित दिग्विजय नामक अध्याय ठव्त्प्संस्करण
में 25वें अध्याय में तथा दाक्षिणात्य (कुम्भकोणम) में अध्याय 29 में मिलता है। यह भी है कि कुम्भकोणम संस्करण में इस
अध्याय में 80 श्लोक हैं जबकि ठव्त्प्में केवल 20। गीता प्रेस में अलग स्थिति है इसमंे कुम्भकोणम से 59 श्लोक आहरित
कर लिए है पर नम्बरिंग नहीं की है इतना अवश्य उपकार किया है कि इस तथ्य का उल्लेख कर दिया है कि 59 श्लोक
दाक्षिणात्य संस्करण से लिए गए हैं। अब पाठक विचार करें कि हम अगर किसी मनीषी के ग्रन्थ में महाभारत से उद्धृत श्लोक
के प्रमाण पतों की ही चर्चा करें और एक संस्करण को देखकर उन पर टिप्पणी कर गलत करार देदें तो यह उचित नहीं कहा
जा सकेगा। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं
उत्तरं हरिवर्षं तु स समासाद्य पाण्डवः।
इयेष जेतुं तं देशं पाकशासनंदनः ।।
इस श्लोक का पता दाक्षिणात्य कुम्भकोणम संस्करण में 2-29-66 है जबकि बोरी में 2-25-7 है तथा गीता प्रेस संस्करण में
नम्बरिंग ही नही की है। अब जिस लेखक की कृति में हम प्रमाण पते चेक कर रहे हैं इन सब बातों का ध्यान रखे बिना यह
कार्य उत्तम रीति से कैसे करेंगे ?
ध्यान रखना होगा कि दाक्षिणात्य संस्करणों में अधिकतम 125000 श्लोक हंै तथा उत्तरीयों में लगभग 85000 जबकि
ठव्त्प् में 75000 ही प्राप्त हंै। ऐसे में किसी लेखक ने अपनी कृति में एक ऐसा श्लोक दिया है जो कि अन्य दो में नही है
और हम बिना इस बात का विचार किये लेखक की आलोचना कर देते हैं तो क्या उचित होगा? सत्य तो यह है कि हम ऐसी
टिप्पणी देने के किंचित अधिकारी तब भले ही बन पाते हंै जब कम से कम ज्ञात 1159 पांडुलिपियों में परीक्षण कर लें।
एक बात और दाक्षिणात्य संस्करणों में 30-35 सहस्र श्लोक अधिक हंै इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उनमंे का हर श्लोक
उत्तरीय में मिल ही जाएगा। वस्तुस्थिति यह है कि अनेक श्लोक उत्तरीय में हैं और कुम्भकोणम में नहीं । उदाहरण-
ष्वेतपर्वतमासाद्य जित्वा पर्वतवासिनः।
स ष्वेतं पर्वतं राजन् समतिक्रम्य पाण्डवः।। यह गीता प्रेस में है पर कुम्भकोणम में नहीं।
शृंगवन्तं….समासाद्य पाण्डवः 2-29-63 कुम्भकोणम संस्करण में है, परन्तु गीता प्रेस में नहीं।
किन्नरद्रुम पत्रांश्च….लेभे धनंजय 2-29-65 दक्षिणात्य पाठ में है जबकि गीता प्रेस में नहीं।
स्पष्ट है कि किसी लेखक ने अपनी कृति में कोई ऐतिहासिक, भोगोलिक, सामाजिक या अन्य इसी प्रकार का कोई तथ्य दिया
हो तो उस पर टिप्पणी करने में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है अन्यथा लेखक के प्रति अन्याय हो सकता है। उदाहरण के
लिए कोई लेखक अपनी किसी रचना में लिखता है कि अर्जुन ने केतुमालवर्ष को विजित किया। अब यह बात महाभारत
कुम्भकोणम संस्करण में तो निम्न श्लोक मंे स्पष्ट कही है –
तं गन्धमाधनं राजन्नतिक्रम्य ततोऽर्जुनः।
केतुमालं ददर्षाथ वर्षं रत्न समन्वितम्।।
सेवितं देवकल्पैष्च नारीभिः प्रिय दर्षनैः
तं जित्वा चार्जुनो राजन् करे च विनिवेश्य च।। सभा पर्व 2/29/39-40
अब हम ठव्त्प् संस्करण जोकि शोधार्थियों में अत्यन्त प्रसिद्ध है को देखें और कह दंे कि रचनाकार द्वारा उद्धृत यह तथ्य कि
अर्जुन ने केतुमालवर्ष विजित किया था- इतिहास विरुद्ध है, तो यह प्रशस्त नहीं। महाभारत के अन्य संस्करणों में यह घटना
है, और बात तो यहाँ तक है कि यह घटना इन तीनों संस्करणों में भी न हो तो भी अन्य 1159 पांण्डुलिपियों में भी नही है
ऐसा नहीं कहा जा सकता।
इसी प्रकार ऐसे श्लोकों में जो दो या तीन संस्करणों में पाए जाते हैं, यह भी देखा गया है कि उनमें परस्पर पाठान्तर मिलते हैं।
अब कोई लेखक अपनी रचना में किसी एक पाठ के अनुसार श्लोकादि उद्धृत करता है और हम उसके दूसरे पाठ को देखकर
यह लिखते हैं या धारणा बनाते हैं कि लेखक ने शुद्ध श्लोक नहीं लिखा तो यह भी उचित नहीं ।
हम महाभारत के सभापर्व के अध्याय 28 (कुम्भकोणम् संस्करण में 29) में पाए जाने वाले श्लोकों में, दो भिन्न संस्करणों में
पाए जाने वाले पाठान्तर अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए नीचे दे रहे हैं – पाठान्तर स्पष्ट हैं। अतः किसी की रचना मेंप्रचलित ग्रन्थ से तुलना करने पर अगर श्लोक यथावत् न हो तो इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह यथावत्
रूप में उसी ग्रन्थ की ज्ञात-अज्ञात अन्य पांडुलिपि में हो। अतः इन सब बातों पर ध्यान दिए बिना किसी महात्मा सत्पुरुष की
कृति के संदर्भ में अकारण ऐसी नुक्ताचीनी करना उचित नहीं। ऐसा करने में हमारी विद्वता का प्रदर्शन तो संभवतः हो जावे,
पर सर्वज्ञानयुक्त न होने से हो सकता है हम उस महात्मा के प्रति ही नहीं अपने प्रति भी न्याय न कर रहे हों। ऐसी ही स्थिति
नामों व सम्बन्धों के सन्दर्भ में देखी गयी है। महाभारत में प्रसिद्ध नाम अम्बिका के लिए कौसल्या नाम भी आता है। विदुर
शान्तनु पौत्र थे पर उन्हें अत्रि पौत्र भी माना है। प्राचीन ग्रंथों के सन्दर्भ में ऐसी स्थितियाँ सर्वत्र आती हैं। सीता जनकात्मजा भी
हैं, अयोनिजा भी हैं तो रावण-पुत्री भी कही गईं हैं। लेखक का सूचना स्रोत क्या था यह जानना आवश्यक है। अतः
निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि जिस लेखक की हम जाँच पड़ताल कर रहे हैं वह सन्दर्भ लिखते समय उसके सामने
ग्रन्थ की कौन-सी पांडुलिपि उपस्थित थी। अतः जिस लेखक की हम जाँच पड़ताल कर रहे हंै वह सत्यनिष्ठ है तो उस लिखे
हुए तथ्य या सन्दर्भ की खोज करनी चाहिए, न कि सीमित ज्ञान के प्रकाश में विपरीत टिप्पणी। यही समीक्षा में सदाशयता कही
जाती है।