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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / नो इट्स आल्वेज नाॅट योर च्वाईस

नो इट्स आल्वेज नाॅट योर च्वाईस

अभी हाल में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण द्वारा अभिनीत एक वीडिओ चर्चा में है। चर्चा वीडिओ के कथ्य व उसको सपोर्ट करते दृश्यों को लेकर है। वस्तुतः यह एक विचारधारा है जो अपने शरीर, अपने दिमाग, अपने मन के ऊपर तथा उनके द्वारा असीम, निरंकुश, अबाधित अधिकार के प्रयोग करने के सम्बन्ध में उन्मुक्तता की घोषणा करती है। यौन सन्दर्भ को विशेषरूप से इसका केन्द्रीय बिन्दु बनाया गया है जहाँ सम्पूर्ण यौन स्वतंत्रता की बात कही गयी है। देखा जाय तो यह विचारधारा कुछ नयी नहीं है। यह वही वाममार्गीय विचारधारा है जो कि भारत में, विशेष रूप से पिछले 2500 वर्षों में विभिन्न कालखण्डों में काफी प्रभावशाली रही है। भारतीय साहित्य में ऐसी मानसिकता के व्यापक परिदृश्य दिखायी देते हैं।
महाभारत में एक स्थल पर प्रसंग आता है कि श्वेतकेतु ऋषि के सामने ही जब उनकी माता परपुरुष के साथ जाने लगती है तो उनको बड़ा क्रोध आता है पर श्वेतकेतु के पिता इसे सनातन धर्म बताते हैं। महाभारत के कुछ संस्करणों में प्राप्त यह घटना ऐसी मानसिकता को प्रदर्शित करती है जब नारी की उसी अबाधित स्वतंत्रता को स्वीकार किया गया है। चार्वाक नामक विचारक ऐसी ही उन्मुक्त प्रणाली को जीवन पद्धति स्वीकार करता है।
यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योर्गाेचरः।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।
वाममार्गीय मानसिकता इन्द्रिय सुख व मनमाने आचरण को ही मोक्ष प्राप्ति का साधन बताती रही है।
मद्यं मासं च मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।
एते प´्च मकाराः स्युर्माेक्षदा ही युगे युगे।।
यहाँ हम एक बात कहना चाहते हैं कि अगर समाज के मूल्यों और उपयोगिता की बात करें तो यह विचारधारा इतिहास में कभी भी अपना औचित्य सिद्ध नहीं कर पायी है।
यह आलेख हम इस विचारधारा के नैतिक पक्ष को लेकर नहीं लिख रहे अतः इसमें अभी सुखिऱ्यों में आये एक और बयान की चर्चा करना चाहेंगे, जिसमें हम क्या खाएँ इसे भी मौलिक अधिकार माना है। सन्दर्भ है महाराष्ट्र सरकार द्वारा गौवंशवध पर रोक लगाना। इनका कहना है कि हम क्या खाएँ- मांस या शाक, मांस में किसका मांस खाएँ। गाय का, सूअर का अथवा अन्य किसी का यह निर्णय करना हमारा निरपेक्ष अबाधित अधिकार है उसमंे सरकार या अन्य कोई एजेंसी बाधा नहीं डाल सकती।
हम इन दोनों बयानों को व्यक्ति और समाज के मध्य में अधिकारों और कर्तव्यों के सन्दर्भ में हिस्सेदारी की समस्या के रूप में देखते हैं। यह समस्या कोई आज पहली बार नहीं उठी है। इस पर अनेक समाजशास्त्री अपनी राय रख चुके हैं। अनेक प्रकार के वादों का सृजन हो चुका है।
हम सीधे सच्चे रूप से अपनी बात इस आलेख में रखेंगे। सबसे पहले हम कहना चाहते हैं कि आपके शरीर, मन व आत्मा पर आपकी ंइेवसनजम तिममकवउ की बात मानी जा सकती है जब यह प्रमाणित हो सके कि इनके निर्माण में किसी अन्य का कोई सहयोग नहीं है। पर मुझे भय है कि यह कभी प्रमाणित नहीं हो सकता। कम से कम आपके माता-पिता की भूमिका आपके निर्माण में जो रही है उसे नकारा नहीं जा सकता। साथ ही वे सभी लोग जो आपके ज्ञानार्जन में सहायक रहे हंै उनके सहयोग को नहीं नकारा जा सकता। अतः उनके प्रति, उनके सम्मान के प्रति आपका दायित्व तभी निर्धारित हो जाता है जब आप गर्भ में आये थे। इसीलिये भारतीय मनीषियों ने इस बात को इस रूप में कहा था ‘मातृमान् पितृवान् आचार्यवान् पुरुषो वेद’ स्पष्ट है कि मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्माण में इन तीनों की भूमिका है अतः अधिकारों और कर्तव्यों की विवेचना इनके स्पर्श किये विना नहीं हो सकती।
वस्तुतः मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी इसीलिए कहा है कि उसका जीवन कदम-कदम पर समाज के विना संभव नहीं है। वह समाज के बीच में रहता है। चैबीस घंटों में से आधे से ज्यादा समय वह किसी न किसी के संपर्क में रहता है अतः वह जो कुछ करता है, कहता है चाल-ढाल, भाव-भंगिमा रखता है वह सब न्यूनाधिक अन्य को प्रभावित करता ही है अतः आपका अधिकार निरपेक्ष नहीं हो सकता। हाँ ऐसे वे पल जब आप पूर्णतः अकेले हंै आप अगर चाहें तो पूर्ण स्वतंत्रता ले सकते हैं कि आप क्या पहनें, कम पहनंे या ज्यादा पहनंे या पहनें भी या न पहनें। जैसा आज के समय में विशेष रूप से बाॅलीवुड में ऐसा कहना और नो इट्स आल्वेज नाॅट योर च्वाईसकरना भी फैशन बन गया है, प्रगतिशीलता और नारी सशक्तिकरण की पहचान माना जा रहा है। किसी अभिनेत्री ने अपने शरीर के एक अंग को उद्धृत करते हुए कहा था यह मेरे अंग हंै, इसे मैं उघाडूँ यह मेरी मर्जी है, जिसे देखना हो वह देखे, जिसे न देखना हो वह न देखे। ठीक है, आप यदि किसी बंद स्थल पर यह प्रदर्शन करतीं हैं तो जो देखने जावे वह जाय जो नहीं जाना चाहते, वे न जायँ। परन्तु जब आप परदे पर यह सब दिखाते हैं तो बताइये विपरीत विचार रखने वाला भी कब तक, और कैसे बचेगा? दुर्भाग्य है कि यह सब छोटे परदे पर भी पैर पसार चुका है अतः परिवार जब साथ बैठकर कोई कार्यक्रम देखता है और ऐसे दृश्य आते हैं तो सदस्यगण नज़रंे झुकाते हैं अथवा चैनल बदलते नजर आते हैं पर सभी चैनलों पर ऐसे दृश्यों की भरमार है। अतः यहाँ आपकी निरपेक्ष स्वतंत्रता की बात जायज नहीं है। क्योंकि वह अन्यों की रुचि के ऊपर आपकी Choice थोप रही है। यह बात केवल महिलाओं के सन्दर्भ में ही हम नहीं लिख रहे पुरुषों के साथ भी यही बात है क्योंकि अब पुरुष भी बदन उघाडूँ दौड़ में शामिल हो गए हैं। कुल मिलाकर हम निवेदन यह करना चाहते हैं कि ज्योंही एक भी व्यक्ति के आप संपर्क में आते हंै तो आपका यह अधिकार उसकी अनुकूलता-प्रतिकूलता से बाधित होता है।
यहाँ हम विनम्रता के साथ यह भी निवेदन करना चाहते हंै कि धर्म के नाम पर अथवा किसी साधना की आवश्यकता मानकर अथवा जितेन्द्रियता के प्रदर्शन के निमित्त से अथवा किसी प्रथा के अंतर्गत आप निर्वस्त्र रहना चाहते हैं तो सत्य तो यही है कि आप पूर्ण एकांत में अपनी रुचि अथवा अपने विचार के अनुसार रहें किसी को आपत्ति नहीं है पर जब आप समाज के सदस्यों के बीच आते, उठते-बैठते हंै तो फिर आपको वस्त्र धारण करने ही चाहिए। आप इन्द्रिय-जयी हो सकते हैं, आप काम पर पूर्ण विजय प्राप्त किये हो सकते हैं पर जिनके बीच आप विचरण कर रहे हंै उनके बीच में हर आयु के, हर लिंग के छोटे-बड़े सदस्य हो सकते हैं, जिनपर आपको वस्त्रहीन देखकर अलग-अलग मनोवैज्ञानिक प्रभाव हो सकते हैं और यह भी कि हर समाज में सभ्यता के दायरे में एक सीमा तक ही वस्त्रों के सन्दर्भ में खुलापन स्वीकृत होता है और साधू हो या सामान्य स्त्री-पुरुष जब तक वे समाज के मध्य हैं उन्हें यह ध्यान रखना ही चाहिए। यही उनकी महानता है। हाँ जब वे पूर्ण एकांत मे हों निज स्वीकृत साधना को, अबाधित करें।
यहाँ हम प्रसिद्ध समाज सुधारक महर्षि दयानन्द का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहते हैं। वे संन्यासी थे और प्रचलित संन्यास परम्परा के अनुसार कौपीन-मात्र पहनते थे। जब वे कलकत्ता गए तो ब्राह्मसमाज के नेता बाबू केशव चन्द्र सेन ने उन्हें परामर्श दिया कि आप अब समाज के विभिन्न लोगों के वीच वक्तृता के लिए जाते हैं अतः आपको योग्य है कि आप पूर्ण वस्त्र धारण करें। महर्षि ने न तो संन्यास परम्परा की दुहाई दी न कम वस्त्रों को किसी साधना के लिए आवश्यक बताया, तुरन्त केशव बाबू का सुझाव स्वीकार कर लिया तथा आजन्म पूरे वस्त्र पहनते रहे। यह होता है सत्य स्वीकार करना।
कोई व्यक्ति काम को कितना अपने वश में कर लिया है इसके परीक्षण के लिए एकांत में यदि निर्वस्त्र शयन करे तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होगी परन्तु अपने प्रयोग में यदि वह किसी अन्य महिला को शामिल करे तो यह नितान्त अनुचित है बाबजूद इसके कि वह व्यक्ति महिला को हाथ भी न लगाए। सम्बंधित महिला किसी भी कारण से इस स्थिति को स्वीकृत कर ले पर इस परिस्थिति का महिला पर क्या मनोवैज्ञानिक प्रभाव पडे़गा यह भी क्या अंकित करने की बात है?
यहाँ हम कहना चाहेंगे कि समाज में रहते हुए न तो निरपेक्ष असीमित स्वतंत्रता संभव है और न ही व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हितकारी। आप विवाहेतर सम्बन्ध बनाने को अपनी Choice मानते हैं, ठीक है पर यही स्वतंत्रता आपके पार्टनर को भी है, वह भी जब चाहे आपको छोड़ सकता है। पारस्परिक विश्वास, स्नेह, प्रतिज्ञाएँ इन सबका ऐसे में क्या मूल्य होगा? हर क्षण विश्वासघात के साए में जीवन कैसा होगा इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है।
अतः सुनिश्चित है कि अपनी स्वयं की भलाई हेतु भी कतिपय बंधन आवश्यक हैं। आपने नया वाहन लिया है आपकी Choice है कि आप तेज स्पीड में ड्राइव करें। सुनसान स्थान पर, आपकी अपनी हानि न हो इस सीमा तक, आप की Choice चल सकती है परन्तु जहाँ अन्य लोग भी आ जा रहे हों और हम तो कहेंगे लोग ही क्यों पशु भी आ जा रहे हों, वहाँ आपकी Choice नहीं चल सकती। अन्य को कोई चोट न पहुँचे इस सीमा तक इसी उद्देश्य को लेकर बनाए गए ट्रैफिक नियमों की अनुपालना आपको करनी होगी। कल्पना कीजिए किसी चैराहे पर गुजरने वाले वाहन चालक ट्रैफिक सिग्नल्स की परवाह न कर निरपक्ष्े ा स्वतत्रं ता को अपना अधिकार मान चलंेतो शाम हाते -े हाते े मरने वालांेआरै घायलांेकी कितनी सख्ं या हागे ी? अभी जब यह लेख लिख रहा हूँ घर के बाहर गली में कुछ किशोरवय लड़के क्रिकेट खेल रहे हैं उनका यह कहना है कि यहाँ खेलना उनकी Choice है। तभी एक लड़के ने शाॅट मारा गेंद जाकर एक घर के शीशे पर लगी कीमती खूबसूरत शीशा टूट गया यह तो गनीमत रही कि किसी को लगी नहीं पर ऐसी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। क्या ऐसी अबाधित स्वतंत्रता आप देना चाहेंगे। भाई मैदान खेल के लिए हैं, वहाँ जाकर खेलिए। स्पष्ट है आपकी Choice निरपेक्ष नहीं होसकती। आपकी ऐसी Choice जो अन्यों के लिए हितकारी नहीं है उनके अथवा सभ्य समाज के लिए उपयुक्त नहीं है उसे बंधन सहना ही चाहिए। यहाँ केवल मनुष्यों के हित तक की बात नहीं है वरन् प्राणिमात्र के हित को देखना होगा। ऊपर बीफ खाने का जिक्र किया था। हम यहाँ केवल गौ अथवा गौवंश की बात नहीं करेंगे वरन् प्राणिमात्र की बात करेंगे। आपको अपने स्वाद के लिए किसी को भी मारने का कोई अधिकार नहीं है। स्वाद के लिए ही क्यों किसी भी हेतु से मारने का अधिकार नहीं है। अगर कोई धर्म या मत पंथ के नाम पर ऐसी हिंसा करता है तो वह धर्म ही नहीं है। मनुष्य ही नहीं प्राणिमात्र को जीने का नैसर्गिक अधिकार है, उसके इस अधिकार को केवल इस कारण से आप छीन नहीं सकते कि वह आपसे कमजोर है। यदि ऐसा है तो इसे जंगल राज कहेंगे। किसी तथाकथित धर्म के नाम पर यदि पशुबलि जायज कही जावेगी तो फिर नरबलि को भी मान्यता प्रदान कीजिए। पशु, पक्षी, मछली आपकी संपत्ति नहीं हैं आपने उन्हें जीवन नहीं दिया है आपको किसी भी दृष्टिकोण से उन्हें मारने का अधिकार नहीं पहुँचता है। अतः किसी भी प्राणी का मांस आप खाते हंै तो उस प्राणी के जीने के अधिकार का हनन होता है अतः यहाँ आपकी Choice बाधित होनी ही चाहिए। एक बात और पशु-पक्षी के मारने से सम्पूर्ण समाज का भी अहित होता है। गाय, बैल, भैंस, भैंसे आदि उपकारक पशुओं की हत्या से तो सीधा-सीधा नुक्सान है पर सामान्य रूप में पशुओं की संख्या कम होने से जैविक संतुलन बिगड़कर नाना प्रकार की विपरीत परिस्थितियों को पैदा करता है जो मनुष्य जीवन पर विपरीत प्रभाव डालती हैं। अतः प्राणिमात्र की हिंसा किसी की Choice हो, स्वीकृत नहीं की जानी चाहिए।
अब हम वातावरण की भी बात कर लें। आपकी Choice यदि वातावरण को प्रतिकूलता से प्रभावित करती है तो भी बाधित होनी चाहिए। किसी की Choice धूम्रपान है वह स्वयं का नुक्सान तो करता ही है ‘पैसिव स्मोकिंग’ के द्वारा अन्यांे के स्वास्थ्य पर निश्चित रूप से विपरीत प्रभाव डालता है। धुँए के गुब्बार छोड़तीं गाडियाँ इसी कारण स्वीकृत नहीं की जा सकतीं। थोड़ी गहराई में जाकर अगर वातावरण को प्रदूषित करने वाले कारकों की बात की जाय तो प्रत्येक मनुष्य द्वारा पसीने, मल-मूत्र के विसर्जन के द्वारा वातावरण को प्रदूषित किया जाता है पर ये तो अनिवार्य हैं इनपर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता। इसीलिए मनीषियों ने व्यवस्था की कि प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन उतनी सुगन्ध अवश्य फैलावे (अग्निहोत्र के माध्यम से) जितना उसने बिगाड़ा किया है। ष्प्जश्े उल Choice की बात करने वालों ने कभी यह विचारा है समाज की इस Choice के बारे में।
स्पष्ट है कि किसी भी विवेकशील समाज में व्यक्तिगत Choice यदि वह अन्य के हितों पर तनिक भी प्रतिकूल प्रभाव डालती है स्वीकृत नहीं की जा सकती। यह भी हम निवेदित करना चाहेंगे कि ऐसी Choice जो किसी के लिए अहितकारी न हो क्या वे अबाधित हो सकतीं है जैसे कोई कहे मेरी मर्जी है मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ, गौर से देखें तो यह भी ऐसी Choice है जो कुछ व्यक्तियों पर सीधे-सीधे प्रतिकूल प्रभाव डालती है और वो भी गलत सन्देश के रूप में व्यापकता के साथ समाज पर। तो क्या व्यक्ति को कोई स्वतंत्रता नहीं है। है, निश्चित है। जो-जो भी उसके लिए हितकारी है और अन्यों का अहित नहीं करता उसे करने में वह स्वतंत्र है। अपने शरीर, आत्मा की उन्नति के लिए खान-पान-विचार का वह चयन कर सकता है, अनिवार्य शिक्षा के अंतर्गत विषयों का चयन उसकी Choice है, अच्छे गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर मित्रों का चयन वह करे।
इस सन्दर्भ में जो “Golden Rule” महर्षि दयानंद ने आर्यों के समाज (Society of Noble Person) के लिए बनाया है उसे उद्धृत करना चाहेंगे जो हमारी राय में व्यक्ति तथा समाज के मध्य अधिकारों तथा कर्तव्यों की सर्वाधिक सटीक मीमांसा करता है। ‘प्रत्येक मनुष्य को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।’
एक बात और, उक्त वीडिओ के सन्देश को नारी सशक्तिकरण से जोड़ा जा रहा है। समझ नहीं आता कि स्वतन्त्र यौनिक आचरण को ही नारी सशक्तिकरण से क्यों जोड़ा जा रहा है। सही है कि नारी को परदे में रखना, मुख्य धारा से काट देना यह मध्यकालीन पुरुषवर्ग की ज्यादती थी पर यह कहाँ तक उचित है कि उसकी प्रतिक्रया में कपडे़ न्यूनतम करने को ही नारी सशक्तिकरण कहा जाय। नारी सशक्तिकरण के तो निम्न बिन्दु हो सकते हैं- कन्या भू्रण की हत्या न हो सके, परिवार व समाज में बच्चों में लिंग के आधार पर विभेद न हो, कन्या को अनिवार्यतः जितनी शिक्षा वह चाहे उसे मिले, उसे अपना कैरिअर चुनने का अधिकार मिले, गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर उसकी प्रसन्नता व सहमति से पति चुनने का अबाधित अधिकार, ऐसी सामजिक व्यवस्था का परिवेश जिसमें अपनी प्रतिष्ठा, जीवन व अपनी अस्मिता की सुरक्षा का उसको पूरा यकीन हो, आदि। क्या अपाला, घोषा, रोमशा, दुर्गावती, लक्ष्मी बाई, इन्दिरा गाँधी आदि नारियाँ सशक्त नारी का उदाहरण नहीं हैं। इन्हांेने तो अपना जिस्म कभी नहीं उघाड़ा। वस्तुतः कपडे़ उघाड़ना नारी अथवा पुरुष के सशक्तिकरण की नहीं विशुद्ध व्यावसायिकता की चासनी में लिपटी स्व-स्वार्थ सिद्धि हेतु समाज की समरसता को तहस-नहस करने की अनैतिक योजना है। समय रहते देश के कर्णधारों को चेतना चाहिए।