इतिहास विरुद्ध क्या है?
गत दिनों शंकराचार्य जी ने एक बयान दिया तो मीडिया पर कोहराम मच गया। शंकराचार्य जी का कथन था कि विश्व के आठ आश्चर्यों में सम्मिलित ताजमहल वस्तुतः तेजोमहालय था जिसे जयपुर नरेश से शाहजहाँ ने लिया तथा उसमंे कुछ परिवर्तन करा अपने नाम से मशहूर किया , यहाँ अग्रेश्वर महादेव के नाम से एक शिव मंदिर भी था। इस बयान पर एक न्यूज चेनल के सम्पादक का कथन था कि बिना किसी प्रमाण के इस तरह के बयान क्यों दिए जायँ। वे बड़े ही उत्तेजित थे तथा शंकराचार्य जी पर ‘इतिहास-विरुद्ध’ कथन करने का आरोप लगा रहे थे। ऐसा लगता है कि एंकर महोदय ने अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया वरन् उन्हें पता होता कि केवल डा. पी एन ओक ही नहीं अन्य कई इतिहासकारों ने ऐतिहासिक प्रमाणों, पुरातात्विक प्रमाणों को प्रस्तुत कर बहुत मजबूत पक्ष इस संदर्भ मंे यह प्रमाणित करने हेतु रखा है कि ताजमहल एक हिन्दू मंदिर था। उनके द्वारा दिए अनेक प्रमाणों में से कुछ हम संकेत रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। ताजमहल के केन्द्रीय भवन की चोटी पर जो चिँ है वह जिसे लोग चाँद तारा समझते हंै वह एक कलश और उसके ऊपर आम्र की पत्तियाँ हैं और सबसे ऊपर नारियल टिका है। जो त्रिशूल है जिस पर शाहजहाँ द्वारा अल्लाह गुदवा दिया है। इसका क्लोजप देखने पर यह बिलकुल साफ दिखायी देता है जिसे नकारा नहीं जा सकता। यह चिँ भी अष्ट धातु का बना हुआ है। परिसर में अष्टकोणीय टावर हैं। ये सब मुगल शैली के विपरीत जाते हैं। ताजमहल में जितना संगमरमर लगा है वह खरीदा गया इसका कोई सबूत दरबारी हिसाब-किताब में नहीं है। राजा जयसिंह से संगमरमर तथा कारीगर माँगने का जिक्र आता है पर वह इतना कम था कि उससे ताजमहल का निर्माण नही किया जा सकता था। ताजमहल में एक शानदार नक्कारखाना है। अगर वहाँ मस्जिद होती जैसा कि कहा जाता है तो वहाँ मुस्लिम परम्पराओं के अनुसार नक्कारखाना होने का प्रश्न ही नहीं होता। ताजमहल में यमुना की ओर से पता चलता है सफेद मार्बल के अतिरिक्त लाल पत्थर की दो निचली मंजिल हैं। पुरातत्वविद मानते हैं कि इसमें 22 कमरे बन्द हैं जिन्हें अगर खुलवाया जाय तो सत्य इतिहास सामने आ जाय। पर आज नेताओं ने देश की स्थिति ऐसी बना दी है कि इनकी खुदाई को मुस्लिम विरोधी माना जाता है अतः हर सरकार को डर है, कोई इस ओर कदम नहीं बढ़ाना चाहता। जिस देश में एक स्वप्न के आधार पर सरकार की ओर से खुदाई कराई जाती है और देश पूरे विश्व में हँसी का पात्र बन जाता है वहीं ठोस साक्ष्य होते हुए एक बहुत बड़े सत्य को सामने लाने से बचा जा रहा है। पहिले एक अदालत ने याचिका खारिज कर दी थी अब पुनः एक अदालत में इस खुदाई हेतु याचिका लगायी गयी है। क्या होता है इसकी प्रतीक्षा रहेगी। उपरोक्त प्रकाश में स्थिति यह है ताजमहल के निर्माण के बारे में इतिहासकारों के दो पक्ष हैं। एक यह कि ताजमहल शाहजहाँ ने बनवाया था दूसरा यह कि यह हिन्दू नरेश का था। कोई लेखक या वक्ता एक पक्ष का समर्थन करते हुए लेखन या कथन करता है तो वह समीक्ष्य तो हो सकता है पर उसे ‘इतिहास-विरुद्ध’ कहना समीचीन नहीं, क्योंकि वह निराधार नहीं है। यह संक्षिप्त विवरण इसलिए दिया है कि कई बार यह आवश्यक नहीं कि प्रचलित धारणा सत्य ही हो । स्पष्टतः उन लेखकों को दोषी नहीं कहा जा सकता जो प्रचलित तथ्य को ही सत्य मानकर अपनी रचनाओं में उसी को उद्धृत करते हैं परन्तु यह भी है कि जब ठोस आधारों पर संकेत मिलते हैं तो उसकी खोज अवश्य करनी चाहिए , इसी से सत्य का मार्ग प्रशस्त होता है। प्रचलित घारणाएँ किस प्रकार दोहरायी जाकर गहराई से अपनी जड़ें जमा लेती हैं इसका एक उदाहरण देखिये- लार्ड मैकाले के बारे में कहा जाता है कि २ फरवरी 1835 को उसने भारत की शिक्षा पद्धति के बारे में ब्रिटेन के हाउस आफ कामन्स में एक वक्तव्य दिया था – ‘मैं भारतवर्ष में दूर-दूर तक घूमा हूँ , मैंने एक भी भिखारी नहीं देखा। एक भी चोर नहीं देखा। इस देश में जो चारित्रिक उच्चता व योग्यता मैंने देखी है मेरा विश्वास है कि हम इस देश को जीत नहीं सकेंगे। इसके लिए हमें इस देश की रीढ़ अर्थात् यहाँ की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक परम्परा को तोड़ना होगा। अतः मैं प्रस्ताव करता हूँ कि इस देश की प्राचीन शिक्षा पद्धति एवं संस्कृति को बदल दिया जाय जिससे हर भारतीय विदेशी भाषा अंगे्रजी तथा संस्कृति को अपने से उच्च मानने लगे और उनमंे अपनी संस्कृति के प्रति हीन भावना उत्पन्न हो जाए तब वे वह हो जायेंगे जो हम चाहते हैं अर्थात् एक पूर्णतया आधीन राष्ट्र।’ उपरोक्त ‘पैरा’ सैकड़ों स्थानों पर उद्धृत हमने देखा है। किसी पुस्तक में इसे देख अन्य लेखक भी लिख ही देता है। यह तथ्य नहीं है यह तो कोई कल्पना नहीं कर सकता। अब हर कोई व्यक्ति ब्रिटिश संसद के क्वबनउमदज तो नहीं देख सकता। ऐसी स्थिति में लेखक जो इस फनवजंजपवद को दे रहा है, को गलत किसी भी दृष्टिकोण से नहीं कहा जा सकता। उसके सामने जो सूचना का स्रोत है उसमंे यह है, वहीं से लेखक ‘कोट’ कर रहा है। कहा जाता है कि राष्ट्रपति मान्य ए. पी. जे. अब्दुल कलाम साहब ने भी इसे प्रयुक्त किया है। हाँ! भविष्य में शोध होने पर अन्यथा तथ्य सामने आने पर उस पर विचार करना तो बनता है पर इससे पूर्व प्रचलित धारणा के आधार पर जो विद्वान् अपने ग्रन्थों में उसे उद्धृत कर चुके हैं उन्हें कोसना, इतिहास विरुद्ध लेखक घोषित करना उचित नहीं। उक्त वक्तव्य के सन्दर्भ में भी ऐसा ही कुछ है। कुछ लेखकों का शोध है कि उपरोक्त बात मैकाले ने कभी कही ही नहीं। उनका कहना है यह भाषण ब्रिटिश पार्लियामेन्ट की विषय वस्तु ही नहीं है अतः उसमे पढ़े जाने का प्रश्न ही नहीं था। यह शिक्षा के स्वरूप तथा उसपर किये जाने वाले खर्च के बाबत् था तथा इसे गवर्नर जनरल की कौंसिल में मैकाले द्वारा २ फरवरी 1835 को पढ़ा गया। भाषण के तथ्य भी विपरीत थे अर्थात् भारतीयों की प्रशंसा में उद्धृत किये जाने वाले विचार मैकाले ने कभी नहीं कहे। वस्तुतः मैकाले फरवरी 1835 में ब्रिटेन में था ही नहीं वह 1834 से 1838 तक भारत में था और गवर्नर जनरल की कौंसिल में विधिक सदस्य था। इनका कहना है कि मैकाले की राय भारत के बारे में इतनी उच्च कभी नहीं रही जैसी कि उद्धरण में व्यक्त की गयी है इसके विपरीत उसका मानना था कि भारत में अधिकांश लोग मूर्ख और बेईमान हैं जिसका कारण क्रूर शासक और मूर्तिपूजक धर्म है। यह एक अलग ही दृष्टिकोण है अतः जब तक स्पष्ट प्रमाणों के आधार पर कोई एक धारणा सिद्ध नहीं हो जाती तब तक लेखकगण जब भी इस बारे में लिखेंगे वे स्वमति के आधार पर कोई भी पक्ष उद्धृत करेंगे तो उन्हें ‘तथ्य-विरुद्ध-लेखन’ का या ‘तथ्य-विहीन-कथन’ का अपराधी नहीं बनाया जा सकता। वस्तुतः इतिहास का अर्थ ही यह बताया जाता है कि जो निश्चय से हुआ हो। पर हम सोचते हैं कि क्या यह सदा सर्वदा संभव है कि बिना किसी संदेह के निश्चयात्मक कथन किया जा सके। यह निश्चय है कि शोध से ही सत्य समक्ष आ सकता है। परन्तु कई बार घटनाओं का वर्णन पूर्वाग्रह युक्त हो स्वपक्ष को प्रमाणित करने के लिए किया जाता है। ऐसा व्यक्ति दूसरे प्रमाणों को अनदेखा कर देता है। दूसरे हम यह भी देखते हैं कि शोध के परिणाम बदलते रहते हैं। पहले चन्द्रमा पर जल के संकेत भी हंै ऐसा वैज्ञानिक नहीं मानते थे। तत्समय में महर्षि दयानन्द के इस कथन कि ‘अन्य लोकों पर भी सृष्टि है’, की कुछ लोग आलोचना करते थे। आज निरन्तर हो रहे शोधों के फलस्वरूप अन्य लोकों में बस्ती बनाने की योजनाएँ चल रहीं हैं । इसी प्रकार एक सज्जन ने हमें लिखा कि वनस्पति विज्ञान से सम्बन्धित एक तथ्य ऋषि ने ठीक नहीं लिखा। हमारा उनसे यही निवेदन था कि वह दिन शीघ्र आवेगा जब शोध महर्षि-लिखित तथ्य को प्रमाणित करेंगे क्यांेकि शोधों के परिणाम बदलते रहते हैं। फिर दूसरी बात है कि यह तथ्य लिखते समय ऋषि के समक्ष क्या स्रोत रहे होंगे यह नहीं कहा जा सकता पर यह निश्चय है कि अपने ज्ञान के आधार पर उन्होंने सत्य ही लिखा होगा। स्वामी दयानन्द ने व्यास ऋषि के पाताल में होने का वर्णन किया है, वहाँ उद्देश्य केवल द्वीप-द्वीपान्तरों की यात्रा तत्कालीन भारत में निषिद्ध नहीं थी, यह दिखलाना था। उदाहरण महाभारत से दिया। महाभारत में ही अर्जुन द्वारा महर्षि उद्दालक को पाताल से लाने का वर्णन मिलता है, जब अर्जुन आदि का यूरोप-पाताल जाना प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित है तो व्यास जी क्यों नहीं आ-जा सकते। उस समय की भौगोलिक स्थिति समुद्र और स्थल की स्थिति आज से भिन्न थी। यह शोध का विषय अवश्य हो सकता है आलोचना का नहीं। मेरु पर्वत की स्थिति अनेक विद्वानों ने उत्तरी धु्रव को माना है। सम्मति इसके विपरीत हो सकती है पर कोई लेखक मेरु पर्वत को उत्तरी धु्रव लिखता है तो आप उसे ‘इतिहास-विरुद्ध’ या ‘भूगोल-विरुद्ध’ नहीं कह सकते। इतिहास से सम्बंधित एक घटना स्मरण हो रही है। कौन बनेगा करोड़पति धारावाहिक से सभी पाठक परिचित होंगे। उसके सीजन 3 में 16 अप्रैल 2007 को एक प्रश्न आया था कि गीतगोविन्द के रचयिता जयदेव का जन्म कहाँ हुआ था। उसमें सही उत्तर के रूप में जयदेव को बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन का दरबारी कवि बताया गया। इस पर उड़ीसा के लोगों ने जयदेव को उड़ीसा का बताते हुए कड़ी आपत्ति दर्ज की और शो के होस्ट शाहरुख खान को झूठी अफवाह फैलाने वाला बताया। उड़ीसा सरकार ने भी इस पर कड़ी आपत्ति जतायी और शो के कत्र्ता-धत्र्ताओं से माफी माँगने को कहा। यह स्थिति तब है जबकि जयदेव के सम्बन्ध में अनेक साक्ष्यउपलब्ध हंै। यह मसला अभी तक निर्विवाद रूप से नहीं सुलझा है। एक जयदेव दक्षिण के भी हैं। तो वास्तविकता यह है कि ऐतिहासिक, भौगोलिक, आदि तथ्यों के सन्दर्भ में अनेक में विद्वानों में एकमत्य नहीं है। ऐसे में किस लेखक ने किस स्रोत से तथ्य उल्लिखित किया यह देखने का विषय हो जाता है , नुक्ताचीनी का नहीं। अनेक बार घटनाएँ जनमानस में इस प्रकार बद्धमूल हो जातीं हैं कि उद्धृत कर दी जाती हैं। सीता स्वयंवर के अवसर पर रावण के आने की बात छोड़ भी दें तो इतना तो प्रायः सभी मानते हैं, कहते हैं, लिखते हंै कि धनुष भंग की घटना राजाओं की सभा में हुई थी और जब सभी राजा धनुष उठाने में असफल रहे थे तब श्रीराम ने धनुष भंग किया था। वाल्मीकि रामायण में केवल इतना उल्लेख है कि बहुत से राजा धनुष भंग के लिए प्रयास कर असफल रहे थे। जब श्री राम अयोध्या आये तब उन्होंने यह कार्य किया और सीता से उनका विवाह हुआ। वहाँ राजाओं से भरी सभा का कोई जिक्र नहीं है। ऐसी सभी बातों का ख्याल समालोचक को रखना चाहिए। इतिहास की स्थिति तो यह है आर्यसमाज की स्थापना तिथि को लेकर भी विवाद है। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा अधिकृत मानली है, पर पंचमी विद्वानों द्वारा स्वीकृत है। महर्षि का अज्ञात जीवन अभी तक स्पष्ट नहीं है। योगी का आत्मचरित्र नाम से जो इतिहास सामने आया जिसमंे इस काल में महर्षि द्वारा 1857 की क्रान्ति में सक्रिय भूमिका निभाने की बात बलपूर्वक कही गयी है, को आर्य समाज के इतिहासकारों ने नकार दिया। स्वामी पूर्णानंद जी ने ‘योगी का आत्मचरित्र एक षड्यंत्र है’ नामक पुस्तक ही लिख दी। परन्तु तथ्य यह है कि आर्य समाज के रिसर्च स्कालर उस ढाई वर्ष के इतिहास को अभी तक खोज कर सामने नहीं रख पाए हैं, जो इतिहासविद् होने का दावा करते है उन्हें यह कार्य करना चाहिए। आज तक सैंकड़ों इतिहासकार जोधा बाई को अकबर की पत्नी बताते रहे हैं अखबारों में यही छपता रहा है, विद्यालयों में यही पढ़ाया जाता है, छोटे परदे पर भी यही स्थिति है। अतः किसी लेखक द्वारा इस तथ्य का उल्लेख ‘इतिहास-विरुद्ध’ कैसे कहा जावेगा बाबजूद इसके कि अकबरनामा में कहीं भी जोधाबाई का नामोल्लेख नहीं है बल्कि यह भी कि जहाँगीरनामा में जहाँगीर की बीबी का नाम जोधाबाई कहा गया है। इतिहास ऐसी विसंगतियों से भरा पड़ा है कि इसमें सत्य का चयन अत्यधिक कठिन है। परन्तु मुगलों तथा अंग्रेजों के प्रभाव में, पश्चात् तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों के प्रभाव में जो इतिहास लेखन हुआ है उसके तथ्यों को प्रस्तुत करने वाले लेखकों तथा वक्ताओं को ‘इतिहास-विरुद्ध’ भी कहना उतना ही कठिन है जितना कि इन तथ्यों के विपरीत प्रस्तुतियों को। अतएव ‘इतिहास-विरुद्ध’ का ‘फतवा’ आत्मसंयम की भी माँग करता है।