अन्तिम इच्छा
जीवन को कैसे जिया जाय यह कितने लोग समझ पाते हैं। हमें लगता ऐसा है कि हम अधिक से अधिक संग्रह करते ही जायं।
अर्जन की एक सीमा सोचते भी हैं तो उसके पूरा होते ही एक नयी सीमा बना लेते हैं । कितना भी अर्जन कर लंे संतुष्टि नहीं
होती क्योंकि जीवन के यथार्थ का साक्षात् नहीं कर पाते। हम स्वयं के लिए ही नहीं अपनी पीढ़ियों के लिए भी अकूत संपत्ति
छोड़ जाना चाहते हैं।
यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के प्रथम मन्त्र में स्पष्ट निर्देश है-
ईषा वास्यमिद ँ्सर्वं यत्कि च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुफ्जीथा मा गृधः कस्य स्वि नम्।। – यजुर्वेद 40।1
यहाँ स्पष्ट व्याख्यान है कि धन का त्यागपूर्वक उपभोग किया जाय। गहराई से सोचा जाय तो इस त्याग में भी स्वार्थ है पर
उसको जानना और फिर मानना विरलों के बस का है। जन्म-जन्मान्तरों की इस शृंखला में आगे के जन्म में सुख-साधन मिल
सकें इसके लिए आवश्यक है इस जन्म में त्याग। इसे छोटे से उदाहरण से समझ सकते हैं। आप किसी बैंक में धन अगर जमा
करायेंगे तभी आपको समय आने पर परिपक्वता राशि मिल सकेगी, उसी प्रकार आप अपनी अर्जित क्षमता को मानवता के
कल्याण के लिए अर्पित करेंगे तभी वह क्षमता आपको कई गुना होकर मिलेगी अन्यथा नहीं। पर इस तथ्य को जानकर भी
इसका अनुकरण करना हरेक के बस की बात नहीं है। जीवन के किसी मोड़ पर जब यह बात समझ आती है तो उसके जीवन
की दिशा ही बदल जाती है। अक्सर जीवन समाप्त होने तक यह तथ्य समझ नहीं आता और आँख बंद होते समय हसरत
भरी निगाहों से पीछे छूटते धन-संपदा, आत्मीयजनों को देखने और संसार से रोते हुए प्रस्थान करने के अतिरिक्त और कोई
चारा नहीं रहता। कुछ को अंतिम समय होश आता है, पर तब -‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत’ की
कहावत लागू होती है।
कहा जाता है कि जब विश्वविजेता सम्राट सिकंदर का अंतिम समय आया तो अपनी मातृभूमि के आगोश में दम तोड़ने का
अरमान भी घुट कर रह गया। तब लाचार अशक्त पड़ा सिकन्दर अपने विश्वस्त सेनापति को अपनी अंतिम इच्छा बताता है
तथा हर कीमत पर उसे पूरी करने का निर्देश देता है। सिकन्दर अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त करता है कि उसके जनाजे के मार्ग
में उसकी सारी लूटी हुयी धन-दौलत बिखरा दी जाय तथा उसके दोनों हाथ बाहर निकाल दिए जायँ ताकि लोग यह समझ सकें
जो सिकन्दर लाशों के ढेर खड़े कर दौलत अर्जित करता रहा वह उसके साथ नहीं जा रही, वह यहीं रह रही है और सिकंदर
इस दुनिया में खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही जा रहा है। वस्तुतः इस संसार में जन्म लेने वाले हर व्यक्ति की यही
नियति है। जो महान् आत्मा इसे जल्दी जान लेते हैं वे बुद्ध और दयानन्द बन जाते हैं ।
भारतीय धरा आध्यात्मिक जीवन दर्शन के लिए उर्वरक रही है यह सत्य है, परन्तु अन्यत्र भी इस फिलासफी को हृदयंगम कर
लेने वाले महामना हैं, इनमें से कुछेक की चर्चा यहाँ करना उपयुक्त समझते हैं।
माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स को कौन नहीं जानता। गेट्स और उनकी पत्नी मेलिंडा ने गेट फाॅउन्डेशन की स्थापना
की जिसमंे अब तक मानव कल्याण के लिए 37 अरब डालर जमा किये हैं। गेट्स ने दान घोषणा पत्र की स्थापना कर अन्य
धनपतियों को भी अपनी आधी सम्पति दान करने के लिए प्रेरित किया है।
प्रसिद्ध अरबपति वारेन बफे ने अपनी 99 प्रतिशत संपत्ति जीवन काल में अथवा मरने के बाद दान करने की घोषणा की है।
‘ई- बे’ के संस्थापक ओमीदयार ने 31 वर्ष की आयु में ही अरबपतियों की सूची में अपना नाम दर्ज करा लिया था। उन्होंने
भी गेट्स तथा बफे का अनुसरण किया है । जीवन के फलसफे को समझने वालों की कतार में अनेक अरबपति मौजूद हैं। यहाँ
यह नहीं समझना चाहिए कि इन अमीर महानुभावों के संतान नहीं है और इस कारण वे चेरिटी कर रहे हैं । इन सभी के
संतान हैं पर वे अनुभव करते हैं कि उन्होंने संतानों के लिए पर्याप्त कर दिया अब उन्हें अपना रास्ता स्वयं तय करना है ।
प्रसिद्ध एक्टर जैकी चैन मानों कवि के शब्दों में कहते हैं कि – ‘पूत सपूत तो क्यों धन संचय , पूत कपूत तो क्यों धन संचय’।
इन सर्वमेधकर्ताओं की सोच है कि आवश्यकता से अधिक धन संतान के लिए छोड़ना उन्हें निकम्मा बना देगा। न्यू जर्सी के
अन्तिम इच्छामार्कस जिनकी संपत्ति डेढ़ अरब डालर है, वे सारी संपत्ति विकलांगों तथा शिक्षा के लिए छोड़ना चाहते हैं।
आपने दुनिया भर के हवाईअड्डों पर ड्यूटी फ्री दुकानें देखी होंगी। इनके सहस्वामी चक फीनी 1980 में ही अरबपति के रूप
में जाने जाते थे। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति अपने ‘अटलांटिस फिलेंथ्रोपीस’ को स्थानांतरित कर दी। आज कहा जाता है कि
उनके पास अपना घर तथा कार नहीं । फीनी का कहना है कि ‘मैं अपना अंतिम चेक जब हस्ताक्षरित करूँ तब वह बाउंस हो
जाय।’
ये कुछ नाम हमने भारत से बाहर की दुनिया के लोगों के दर्शाए हैं। भारत में भी इस श्रेणी के कुछ लोग हैं। आज जब इंसान
एक एक पैसे को भींच कर रखने का भरसक प्रयत्न करता है ( मृत्यु-पाश से पूर्व तक ) वहाँ इस प्रकार के महानुभाव आदर्श व
विरले ही कहे जावेंगे। यहाँ हम एक साधारण आय वाले असाधारण व्यक्ति पालम कल्याणसुंदरम की चर्चा अवश्य करना
चाहेंगे। पालम कल्याणसुंदरम उन चंद लोगों में से हैं जो बिना किसी चीज की परवाह किये पिछले कई वर्षों से अपनी सारी
कमाई दान करते आ रहे हैं। तमिलनाडु के मेलाकरिवेलामकुलम में पैदा होने वाले कल्याणसुंदरम अपने भोजन और रोजमर्रा
की जरूरतों को पूरा करने के लिए पार्ट टाइम नौकरी करते हैं। पुस्तकालय कर्मी कल्याणसुन्दरम अपने पेशे से प्राप्त होने वाली
महीने की सारी कमाई, बचतें, वंचितों को दान कर देते हैं। गरीबों, वंचितों के अनुभवों से रूबरू होने के लिए वो सड़कों,
प्लेटफार्मों पर सोकर रात गुजारते हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए उन्होंने शादी नहीं की। सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन के रूप में
मिले 10 लाख रुपये उन्होंने अपनी इस इच्छा की पूर्ति के लिये दान कर दिए। पुस्तकालय विज्ञान में गोल्ड मेडलिस्ट और
इतिहास व साहित्य में परास्नातक कल्याणसुन्दरम ने कई पुरस्कार जीते हैं। इन विभिन्न पुरस्कारों से अर्जित 30 करोड़ रुपये
उन्होंने बेहिचक जरूरतमंदों को दे दिये।
सही मायने में वेद की ऋचा ‘तेन त्यक्तेन भु´्जीथा’को इन्हांेने अपने जीवन में जिया है।
एक दिलचस्प प्रश्न हमारे समक्ष आया कि प्रायः मरने वाले की अंतिम इच्छा क्यों पूँछी जाती है। इस बात के अनेक उत्तर हो
सकते हैं पर अपनी बात को आगे बढाते हुए हम कहना चाहेंगे कि अपने अंतिम समय को सामने देख अनेक बार दुरात्माओं
को भी होश आ जाता है और वे पश्चाताप की आग में जलने लगते हैं। परन्तु कालचक्र को उलटा तो लौटाया नहीं जा सकता।
हाँ अंतिम इच्छा के रूप में जाने वाले को किंचित सांत्वना दी जा सकती है। सिकन्दर की अंतिम इच्छा इस तथ्य को प्रकाशित
करती है। एक अन्य उदाहरण- टेनेसी निवासी फिलिप वर्कमेंन एक अपराधी था जिसे एक दुकान लूटते समय एक पुलिस
अधिकारी की गोली मारकर हत्या करने के अपराध में मृत्यु दण्ड सुनाया गया। उसने अंतिम इच्छा व्यक्त की कि आस-पास के
निराश्रितों को शाकाहारी पिज्जा खिलाया जाय। अधिकारिओं ने पैसे बचाने की गरज से इस पर ध्यान नहीं दिया। पर यह बात
अखबार के माध्यम से फैल गयी और लोगों ने सहस्रों डालर चन्दा करके उसकी अंतिम इच्छा को पूरा किया।
इस प्रकार व्यक्ति की अंतिम इच्छा को पूरा करना नैतिक और भलाई का काम माना गया है। बहुत से लोग अपने जीवनकाल
में तो दान देने में अपना धन लगाते ही हैं पर पूरा नहीं। कारण संभवतः यह सोच रहती है कि जब तक जीवन है तब तक न
जाने कब कैसी आवश्यकता पड़ जाय अतः धन का होना भी आवश्यक है। ऐसे सज्जन दानदाता वसीयत कर जाते हंै कि
उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी इच्छानुसार उनकी संपत्ति वितरित कर दी जाय। इसका जिम्मा वे अपने सबसे भरोसे के लोगों
पर छोड़ जाते हंै, जिन्हें वसीयत का निष्पादक कहते हैं। व्यक्ति के चले जाने के पश्चात् इन निष्पादकों का परम पवित्र कर्तव्य है
कि वे मृतक की इच्छा को यथावत् पूरा करें। यह उनका नैतिक कत्र्तव्य ही नहीं, मृतक ने जो उन पर विश्वास किया उस प्रतिज्ञा
को पूर्ण करने का आवश्यक कत्र्तव्य कर्म भी है। वसीयतकत्र्ता के जीवनकाल में वह, प्रमादी अथवा विरुद्ध हो जाने वाले
निष्पादक को पृथक् कर सकता है। उदाहरण के तौर पर महर्षि दयानन्द ने मेरठ में अपनी वसीयत (प्रथम) तैयार करवाई थी।
कुछ काल पश्चात् महर्षि को ज्ञात हुआ कि उनके द्वारा वसीयत द्वारा निर्मित सभा के कुछ सदस्य धूर्त निकले। 27 फरवरी
1883 को उदयपुर में नयी वसीयत कराकर उन सदस्यों के स्थान पर नए नाम रख दिए। 30 अक्टूबर 1883 को महर्षि का
निधन हो गया , अब वे पुनः कोई परिवर्तन करने के लिए उपलब्ध नहीं थे, चाहे उनके द्वारा स्थापित सभा के सभासद कैसे भी
हों। अतः वसीयतकत्र्ता की मृत्यु के उपरान्त तो यह और विशेष दायित्व निष्पादकों का हो जाता है कि वे अक्षरशः मृतक की
अंतिम इच्छा की पालना करंे, क्योकि न करने की स्थिति में यह दायित्व अन्य को सौंपने अब वह स्वयं नहीं आ सकता।
महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि प्रतिज्ञा सोच समझकर करे फिर उसे पूरा करे, क्योंकि प्रतिज्ञा-हानि सबसे बड़ी
हानि है। व्यक्ति अगर जीवित है तो वह सामने से प्रतिज्ञा पूरी न होने पर अन्य वैकल्पिक मार्ग सोच सकता है पर दिवंगत होने
की अवस्था में वह निष्पादकों के प्रतिज्ञा भंग करने पर उनका क्या कर सकता है और न ही अन्य किसी के माध्यम से अपनी
अंतिम इच्छा की पूर्ति करवा सकता है। ऐसे में निष्पादक यदि मृतक की इच्छा का अक्षरशः पालन नहीं करते हैं तो यहविश्वास भंग रूपी पाप ही होगा।
बीकानेर की शान्ति भंडारी बहिन जी ने अपनी मृत्यु के पश्चात् उनकी संपत्ति को सामाजिक संस्थाओं में कैसे वितरित किया
जाय यह वसीयत कर उसका निष्पादक अपने भरोसे के सज्जन को बना दिया। उन्होंने इस प्रकार अपने कत्र्तव्य को निभाया
कि सभी संस्थाओं को अनुमान से ज्यादा धन प्राप्त हुआ और यह धन उन्होंने स्वयं संस्थाओं को प्रेषित कर दिया। संस्थाओं
को कुछ भी तो नहीं करना पड़ा। इसे कहते हैं वसीयत के पुण्यशील निष्पादक। पर समाज में इससे उलट भी निष्पादक होते
हैं।
एक बार ड्राइव कर रहा था। एफ.एम. पर एक कार्यक्रम में एक्टर अनु कपूर अभिनेत्री मीना कुमारी के जीवन की कुछ घटना
सुना रहे थे जिसमें वसीयत की चर्चा भी थी कि किस प्रकार मीना कुमारी जी ने अपनी वसीयत में ‘फिलेंथ्रोपी’ के लिए प्रावधित
किया था, परन्तु पीछे रहने वाले निष्पादकों व रिश्तेदारों ने उनकी इच्छा की किस तरह धज्जियाँ उडायीं, सुनकर दिल भर
आया। जो व्यक्ति आप पर विश्वास कर अपने पश्चात् आप पर सब कुछ छोड़कर गया उस दिवंगत के साथ ऐसा विश्वासघात
नैतिक दृष्टि से तो अक्षम्य ही है। मीना जी की वसीयत की दशा सुनकर ही यह आलेख लिखने का मानस बनाया। पैसा
दिवंगत का, आपको अपनी जेब से कुछ नहीं लगाना फिर भी यह प्रमाद क्यों? नहीं भूलना चाहिए कि कई उपलब्ध विकल्पों में
से मृतक ने आपका चयन किया था, आपकी आत्मीयता तथा ईमानदारी पर विश्वास करके। उस विश्वास को तोड़ना अनुचित
तथा अनैतिक है।