हाँ! डर तब लगता है
अब यह तय है कि जातिप्रथा तथा मजहबी सोच भारत से कभी विदा नहीं होगी, यद्यपि तमाम बुद्धिजीवी, सभी नेतागण इनकी
भत्र्सना करते हैं तथा करते रहेंगे परन्तु उनके वोट बैंक के मायाजाल को इन्हीं के रक्त से पोषण मिलता है अतः कोई भी
घटना-दुर्घटना घटे सबसे पहले यह सोचा जाता है कि क्या इसे जातिवादी अथवा मजहबी रंग दिया जा सकता है? अगर हाँ,
तो बाक़ी सारे तथ्य नेपथ्य में चले जाते हैं और चर्चा में रह जाती है जाति अथवा मजहब। वह भी तब जबकि घटना में
तथाकथित अल्पसंख्यक अथवा दलित जाति का इन्वोल्वमेंट हो। अगर घटना का पात्र केवल तथाकथित सवर्ण है अथवा
बहुसंख्यकों से सम्बंधित है तो फिर घटना की ‘न्यूज वेल्यू’ नहीं रहती।
यही आज के हिन्दुस्तान का सच हो गया है। समाचार देने की पद्धति यही हो गयी है। किसी लड़की के साथ रेप हुआ, अगर
वह दलित है तो समाचार छपेगा कि ‘एक दलित लड़की से बलात्कार।’ अब मुख्य अपराध बलात्कार गौण हो जाता है लड़की
का दलित होना महत्वपूर्ण। रेपिस्ट के लिए वह केवल लड़की थी जिसके साथ उसे अपनी हवस मिटानी थी संयोग था कि वह
दलित वर्ग की थी। अब सारा जोर उसके दलित होने पर लगाया जाता है, अपने-अपने स्वार्थ की राजनीतिक रोटियाँ सिकने
लगती हैं। विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में आत्महत्या की कितनी ही घटनाएँ होती रहती हैं, गत वर्षों में दबाब, तनाव,
रेगिंग आदि कारणों से कितने ही छात्रों ने आत्महत्या की है परन्तु उनमें से जिनमें उक्त तत्व नहीं थे वे मीडिया के लिए टीआर.पी. बढ़ाने वाले न होने से और नेताओं के लिए वोट खींचने वाले न होने के कारण सुखिऱ्यों में न आ सके। परन्तु
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित के केस में सारा मसाला था। हमें एक छात्र की आत्महत्या का पूरा अफ़सोस है
परन्तु हम घटना के राजनीतिकरण की चर्चा कर रहे हैं अत दुःखी मन से ही सही यह लेखन करना पड़ रहा है। समाचार छपा
दलित छात्र द्वारा आत्महत्या। इस दुर्घटना में मीडिया तथा राजनेताओं के लिए पूरा अवसर है अतः पूरे देश में सुर्खी लिए
सबसे बड़ी खबर है। केजरीवाल जी दौरा कर आये हैं, हमें ध्यान नहीं कि वे इससे पूर्व आई.आई.टी. तथा मेडीकल काॅलेजों
में आत्महत्या करने वाले छात्रों के यहाँ कभी गए थे और यहाँ केजरीवाल जी ही क्यों राहुल जी भी अनषन में सहभागिता
दिखा आए। आत्महत्या नहीं रोहित के दलित होने को भुनाया गया जबकि एक खबर यह भी है कि रोहित दलित नहीं वल्कि
सुशील जिसकी रोहित तथा उसके साथियों ने पिटायी की थी और जिसके बाद इस केस में क्रमिक कार्यवाहियाँ हुयीं थीं उसकी
भाँति पिछड़े वर्ग का सदस्य था (रोहित के चाचा तथा दादी ने भी स्वयं को वडेरिया समुदाय (पिछड़ा वर्ग) का होना बताया है।
अर्थात् रोहित तथा सुशील जिनका झगड़ा हुआ था दोनों ही पिछड़ी जाति के सदस्य थे, हाँ दोनों अलग-अलग राजनीतिक
विचारधारा से जुड़े थे। इसमें भी सुशील का अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से जुड़ा होना राजनेताओं के मन को भा गया।
सुशील का आरोप है कि रोहित और उसके साथी केवल अम्बेडकर विचारधारा तक सीमित नहीं थे। सोशल साइट्स से पता
चलता है कि रोहित ने याकूब मेनन की फाँसी का विरोध और बीफ पार्टी का समर्थन किया। झगड़े की मुख्य वजह थी उनके
द्वारा नारे लगाना कि तुम एक याकूब को मारोगे हर घर से याकूब पैदा होगा। सुशील ने इनका विरोध किया तो 40-45 लोगों,
जिनमंे रोहित भी शामिल था, ने सुनील की पिटायी कर उससे माफीनामा लिखवाया। सुशील की माँ ने अधिकारियों का
दरवाजा खटखटाया। बाद में रोहित आदि का निलंबन, मानव संसाधन द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा जानकारी हेतु पत्र
तथा स्मरण पत्र लिखना आदि घटे। मंत्रालय ने केवल जानकारी माँगी किसी प्रकार की कार्यवाही के कोई निर्देश नहीं दिए, यह
स्पष्ट है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने रोहित व पाँच अन्य को निष्कासित किया वह भी कक्षाओं से नहीं। बाद में रोहित वेमुला ने
आत्महत्या कर ली। अपने सुसाईड नोट में किसी को आरोपित नहीं किया। अब राजनीति का कार्य प्रारम्भ हुआ और स्तीफों
की माँग, सफाई देने आदि का क्रम चला। इस सब के बीच में मुख्य प्रश्न कि कालेजों तथा विश्वविद्यालयों में छात्रों द्वारा पढ़ाई
तथा राजनीति की कोई सीमा तय करनी चाहिए या नहीं? छात्रों के लिए क्या श्रेयस्कर है? इस पर कोई अकादमिक चिन्तन
नहीं हुआ। इसके साथ ही जातिवाद के व असमानता के जहर को पूर्णरूपेण समाप्त करना चाहिए (और उसका एक ही मार्ग है
जो महर्षि दयानन्द द्वारा दिखाया गया है) इस पर कोई सार्थक चर्चा नहीं हुयी।
यह तो रही बात जातिवादी मानसिकता के सुदृढ़ीकरण की। इससे भी अधिक चिन्त्य है मजहब के घालमेल की ।
हाँ! डर तब लगता हैपिछले महीनों में घटित घटनाओं और उनपर समाज के रहनुमाओं की प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि
जिस दिशा में देश जा रहा है चिन्ता का निश्चय विषय है। दादरी में अखलाख की हत्या हुई जो निश्चित निंदनीय थी परन्तु
उत्तर प्रदेश में घटित इस घटना को बड़ी चालाकी से इस प्रकार का रूप दिया गया कि मोदी के नेतृत्व में देश में भयंकर
असहिष्णुता पनप रही है। अचानक अनेक लेखक, कलाकार अपने पुरस्कार जिनसे उनको उनकी प्रतिष्ठा के लिए देश ने
अलंकृत किया था वापस करने लगे। मीडिया भी लाल सुर्ख हो गया। परन्तु इसके बाद पश्चिम बंगाल के मालदा में डेढ़-दो
लाख लोगों की भीड़ एकत्रित होती है और सरकारी संपत्ति को भीषण नुकसान पहुँचाती है, बी.एस.एफ़ की गाड़ियाँ भी जला
दी जाती हैं। इतनी बड़ी हिंसा का कोई नोटिस नहीं लिया जाता। कारण एक ही नजर आता है कि यह भीड़ और हिंसा की यह
कार्यवाही उनके द्वारा की गई जिनके पास एक बहुत बड़ी ताकत है वह है उनका वोट और सारे दल नदीदों की तरह उस पर
निगाह गड़ाए हुए हैं, कोई उनका विरोध नहीं चाहता अतः लीपापोती ही ठीक है। सभी चैनल्स भी खामोश हैं, धर्म निरपेक्षता
के झंडाबरदार भी जाने कहाँ गए और एवार्ड वापिसी टीम और तथाकथित वुद्धिजीवी भी अपने खोल में चले गए। अखबार में
एक आईसोलेटेड खबर पढ़ जिन्हें देश में रहने में डर लगने लगा था इतने बड़े पैमाने पर लाखों लोगों द्वारा देश की सेना पर
ही आक्रमण किये जाने को देख उन्हें कोई डर नहीं लगा। क्या यह दोहरा मानदंड नहीं है? यह कैसी धर्म निरपेक्षता है?
सारे चैनल्स की खामोशी के मध्य एक चैनल ने दृढ़ता के साथ इन प्रश्नों को रखा। आजम खान से भला कौन परिचित नहीं
होगा। उन्होंने आर.एस.एस. के लोग विवाह क्यों नहीं करते इस रहस्य के उद्घाटन में अपनी गंदी सोच को एक बार और
उजागर करते हुए उन पर समलैंगिक होने का दोष मढ़ दिया। सर्वत्र खामोशी। ‘कोई भी किसी के विरुद्ध ऐसी गिरी हुई बात
नहीं कह सकता का ढोल पीटने वाले विश्राम कर रहे थे? क्रिया की प्रतिक्रया हिन्दू जैसे सहिष्णु समुदाय को करनी ही नहीं
चाहिए यह प्रायः माना जाता है अतः कमलेश तिवारी, लखनऊ ने आजम जैसा एक बयान पैगम्बर मोहम्मद को लक्ष्य कर दे
दिया तो हंगामा बरप गया।
ख्हम न आजम खान का और न ही कमलेश तिवारी का समर्थन कर सकते हैं पर यह भी है कि ऐसे सभी लोग चाहे वह कोई
भी हांे उनके विरुद्ध देश के कानून के अनुसार कार्यवाही होनी चाहिए। दूसरे यहाँ यह अवश्य विचारणीय है कि अगर किसी
बात में सत्य व तथ्य है तो उसे प्रकट करने की स्वतंत्रता जो कि संविधान प्रदत्त है उसकी क्या सीमा होनी चाहिए अथवा होनी
भी चाहिए या नहीं। ,
कमलेश तिवारी को एन.एस.ए. के अंतर्गत गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया है, कानून आजम के केस में न सही कमलेश
के केस में अपना कार्य कर रहा है। इस देश का अपना संविधान है, अपनी न्याय प्रणाली है, उस पर किसी समुदाय का व्यक्ति
हो उसे विश्वास करना चाहिए। अतः कमलेश के खिलाफ कानून को अपना कार्य करने देना चाहिए। परन्तु अंत यहाँ नहीं
हुआ। हमें एक बड़ी भीड़ को नेतृत्व प्रदान करते हुए एक मौलाना दिखाई देते हंै वे सरे आम टी.वी.चैनल्स के सामने कहते हैं
कि या तो सरकार कमलेश को मृत्यु दंड दे, नहीं तो वे और उनके साथी उसका सर कलम करेंगे ही। इसके लिए वे एक राशि
की घोषणा करते हैं। यह एक ऐसा दृश्य है जिसे देख, यह देश किस दिशा में गति कर रहा है, इस बाबत् डर महसूस होना
चाहिए। मत-निरपेक्ष भारत में बाकई यह दृश्य डरावना है। अभी यहाँ अंत नहीं है। एक टी.वी. चैनल में चल रही बहस के
दौरान एक मौलाना टी. वी. एंकर से साफ़ कहते हैं कि तुम अभी हमारे पैगंबर को अपशब्द कहो मैं अभी तुम्हारा सर काट
कर खींच कर ले जाऊँगा।
दो राष्ट्रीय चैनलों ने इन सारे विषयों पर बहस रखी। दोनों चैनल्स पर उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ता उपस्थित हुए।
दोनों अलग-अलग थे पर दोनों का मत स्पष्ट था कि सरकार को ऐसा कानून बनाना चाहिए कि किसी भी धर्म का किसी के
द्वारा भी अपमान किया जाय तो उसे मृत्युदंड देना चाहिए। वही बात जो सड़कों पर कही जा रही थी किंचित शालीनता से
राजनेताओं द्वारा चैनल पर कही जा रही थी। पर सोचना यह है कि संविधान बनाते समय हमारे नेताओं ने देश का चेहरा मत
निरपेक्षता का रखा था, ऐसे में ईश-निंदा जैसे कानून की माँग क्या संविधान विरोधी नहीं है? जो भी हो देश के राजनेताओं
तथा समाज के एक वर्ग की यह बदलती सोच वास्तविक डर तथा चिंता उत्पन्न करती है। आज मेरे देश में याकूब मेनन की
फाँसी को रुकवाने तथा ईश निंदा जैसे कानून के समर्थन की उठती माँग वास्तविक डर पैदा करती है। शार्ली हेब्दो की घटना
के बाद मेरे देश का जिम्मेदार नेता जब उसे ‘टिट फार टेट’ कहे तो चिंता की बात तो है ही, साथ में प्रष्न भी उपस्थित करती
है कि कश्मीर से उजड़ कर सहस्रों की संख्या में शरणार्थी बने कश्मीरी पंडितों के सन्दर्भ में मूक रहने वाले ऐसे सभी
बुद्धिजीवी और राजनेता किस प्रकार अपने को निष्पक्ष कह पायेंगे? प्रख्यात् कलाकार एम. एफ़. हुसैन द्वारा हिन्दू देवी
देवताओं के अत्यन्त आपत्तिजनक चित्र बनाने पर रोकना तो दूर उन्हें सिक्योरिटी प्रदान करना क्या निष्पक्ष कदम था? वेंडीडोनिगर द्वारा अपनी किताब में भारतीय महापुरुषों के संदर्भ में ऐसी ही बातें लिखने पर जब अदालत ने किताब पर रोक
लगाने के साथ बिकी हुईं किताबों को वापस लेने का आदेश दिया तो इस देश के धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी वेंडी के पक्ष में उतरे
तथा अदालत के निर्णय को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हत्या का दर्जा दिया। ऐसी सलेक्टिव धर्मनिरपेक्षता तो उचित नहीं
कही जा सकती। एक सज्जन खुले आम मोहम्मद बिन कासिम जिसने राजा दाहर को जीतने के बाद सिंध में कत्लेआम किया
तथा दाहर की बेटियों को उठवा लिया, मुहम्मद गौरी जिसने भारत के गौरव पृथ्वीराज चैहान को धोखे से बंदी बना लिया,
अकबर जिसने चित्तौड़ में 30000 प्रजाजनों की नृशंस हत्या की ऐसे सभी को अपना हीरो बता सकते हैं इस आधार पर कि
मुझे अपना मत रखने और उसे अभिव्यक्त करने की पूर्ण आजादी है तो फिर आप किसी को गोडसे को अपना हीरो कहने से
कैसे रोक सकेंगे? और अगर रोकते हैं तो क्या यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं होगा?
आज देश के प्रबुद्ध लोगों को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में एक विचारधारा की सत्यता को समझना ही होगा और सही निष्पक्ष प्रतिक्रया
देनी होगी। आई.एस. आई.एस. वाले तमाम बर्बर जुल्मांें व इंसानियत को शर्मशार कर देने वाली हरकतों को सच्चा इस्लाम
कहते हैं। अभी हाल में आश्चर्य हुआ जब अल-अजहर विश्वविद्यालय, मिश्र की एक प्रोफ़ेसर वह भी महिला ( प्रो. सऊद
सालेह) बिना किसी झिझक के इस आशय का बयान देती हैं कि खुदा ने मुस्लिम मर्दों को यह अधिकार दिया है कि वे गैर
मुस्लिम औरतों का रेप कर सकें। ऐसे बेहूदे बयान पर सारे बुद्धिजीवियों की खामोशी क्या कहती है? इसी चेहरे को सामने
रख सीरिया आदि स्थानों से जान बचाकर भागे शरणार्थियों को शरण देने में योरोपीय देशों को झिझक हो रही थी। एक मासूम
बच्चे की लाश के चित्र को देख सहानुभूति की जो लहर विश्वभर में फैली उसके तहत जर्मनी, स्वीडन आदि ने शरणार्थियों के
लिए अपने द्वार खोल दिए। पर शरणार्थियों ने क्या हरकत की? जर्मनी के कोलोन में नववर्ष की पूर्व संध्या पर सुनियोजित रूप
से सैकड़ों जर्मन लड़कियों को घेरकर उनके कपडे़ उतार शर्मनाक हरकतें कीं। कहते हैं यह ‘तहार्रुष’ है। बताइये कोई
आपको घर दे, कपडे़ दे, स्कूल दे आप यह प्रतिफल दें? इस पर भी उसी देश के एक मौलाना यह कहें कि कोलोन में सही हुआ
क्योंकि वे औरतें और लड़कियाँ छोटी स्कर्ट पहने तथा पफ्र्यूम लगाए थीं। ऐसे में सर्वत्र मौन, सोचने को मजबूर करता है।
भारत में स्थिति विचित्र है। यहाँ के बुद्धिजीवी की ‘सोच’ ‘सलेक्टिव’ है। वह दादरी में डर महसूस करता है पर 2 लाख की
भीड़ थाने और सेना की गाड़ियाँ फूँक देती है, उसे डर नहीं लगता। पहले में उसे देश में असहिष्णुता बढ़ती दिखायी देती है,
दूसरे में नहीं। पश्चिम बंगाल के ही एक ग्राम में एक मुस्लिम अध्यापक मदरसे में राष्ट्रगान सिखा रहा था। ट्रस्टियों द्वारा उस
अध्यापक की जमकर पिटायी की गयी पर ममता सरकार अध्यापक को ही दोषी मान रही है। आज भारत में राष्ट्रगान
सिखाना अपराध हो गया? यह तथाकथित बुद्धिजीवियों की रुचि का मसला नहीं? इस पर कोई अवार्ड नहीं लौटाया जावेगा?
यह भयावह स्थिति आज है जो अनेक प्रकार से समाज को बाँट रही है। और निष्चित रूप से डर पैदा करती है। ऐसे में देश
के नेताओं को वोट बैंक की राजनीति का मोह देश-हित में त्याग अपने हृदय पर हाथ रख आत्मा की अर्थात् सत्य की आवाज
को सुनते हुए करणीय कर्तव्य का पालन करना चाहिए अन्यथा यह देश आसन्न संकट से जूझने वाला है यह समझ लेना
चाहिए।