साहस को सलाम
वेद में माता को वीरसू कहा है। अर्थात् वह शूरवीर संतानों को जन्म देने वाली हो। महर्षि दयानन्द ने भी सत्यार्थप्रकाश में
माता-पिता को यह निर्देश दिए हैं कि बालक को योग्य और वीर बनावें। आजकल कई बार हम देखते हैं की माताएँ आदि
अकारण ही, किसी कार्य से संतान को विरत् रखने के लिए काल्पनिक हौए, किसी बहरूपिये अथवा भूत का डर दिखातीं हैं
जिनके कारण बच्चे में डर के संस्कार पर जाते हैं। महर्षि दयानन्द इसका स्पष्ट निषेध करते हैं। माता-पिता का कर्तव्य है कि
वे बालक को उत्तम शिक्षा, उत्तम व्यवहार तथा निडरता का उपदेश करें। इतिहास में माता मदालसा एवं सुभद्रा के उदाहरण
हमारे समक्ष आते हैं जो कि वेद के आदेश पर चल वीरसू बनीं। आज भी अनेक बच्चे वीरता के ऐसे उदाहरण हमारे समक्ष
उपस्थित कर जाते हंै कि उनकी वीरता पर गर्व तो होता ही है आश्चर्य भी होता है। ऐसी दो पुत्रियों के साहस की दास्तान इस
बार आत्म निवेदन में आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।
भोपाल की रीति जैन
कई बार हम अपने आसपास जब नजर डालते हैं तो अनेक अप्रिय घटनाएँ घटती दिखाई देती हैं। पर हम इनसे बच निकलने
में ही अपना कल्याण समझते हैं क्योंकि हमें अपनी हानि का भय रहता है। ऐसे में जब एक किशोरी की निडरता और
निर्भयता की दास्तान पढ़ते हैं तो अनायास मन में यह भाव आता है कि देश के सभी नागरिक अगर अन्याय के खिलाफ
थोड़ा-सा भी साहस दिखायंे तो अपराधों की संख्या काफी कम हो सकती है। इन पंक्तियों में हम ऐसी ही दो किशोरी
बालिकाओं की बहादुरी का वर्णन करने जा रहे हैं जिससे अन्यों को भी प्रेरणा मिल सके।
नवाबों का शहर भोपाल भारतवर्ष में सुप्रसिद्ध है। इसी भोपाल शहर में ‘भूमिका रेसीडेन्सी, कोलार रोड’ के एक फ्लेट में
दैनिक भास्कर में सीनियर मैनेजर श्री विकास पाटोदी अपने परिवार सहित रहते हैं। इनके परिवार में पत्नी श्वेता, बेटी रीति
एवं छोटा बेटा युग है। मार्च का महीना अभी शुरू ही हुआ था, गर्मी ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया था। घर के
वरिष्ठजनों के कार्य पर जाने के बाद फ्लेट्स में प्रायः सूनापन अलसाया सा फैला रहता है। रोज की तरह विकास पाटोदी
अपने कार्यालय को निकल गए। लगभग दोपहर 1.30 बजे श्वेता बेटे युग के साथ बाहर शाॅपिंग इत्यादि के लिए निकल गईं।
जाते-जाते 12 वर्षीय रीति को सावधान करके गई कि-‘बेटा किसी के लिए दरवाजा मत खोलना।’ आजकल शहरों मंे जिस
तरह से अकेले फ्लेट्स व मकानों मंे वारदातें होने लगी हैं, ऐसे में ये निर्देश ध्यान में रखने ही चाहिए। रीति भोपाल के ही सैण्ट
जोसफ को. एड विद्यालय में कक्षा 8 की छात्रा है। यह मेधावी बालिका समझदार तो है ही पर इतनी बहादुर भी होगी यह 3
मार्च, 16 को ही पता चला। मम्मी के जाने के बाद रीति अकेली अपने कार्य में व्यस्त हो गई। इतने में डोर बेल बजी। रीति ने
जब पूछा कि कौन है, तब बाहर से लड़की की आवाज में जवाब आया कि एक पार्सल डिलीवरी करनी है। रीति ने उत्तर दिया
कि आप बाद में आइएगा। तब कहा गया कि बेटा! बस अन्दर की सांकल को आधा खोलकर ले लो, मैं अन्दर नहीं आऊँगी,
बाहर से ही पार्सल दे दूँगी और उसी प्रकार थोड़े से खुले दरवाजे में से आप हस्ताक्षर कर देना। रीति को यह निरापद लगा।
उसने जब चैन डोर खोला तो लड़की वहाँ थी ही नहीं, वह तो वहाँ से चम्पत हो गई थी। इतने में ही इर्द गिर्द छुपे हुए, चेहरों
पर रुमाल ढके तीन लड़कों में से एक ने खुले स्पेस में लकड़ी का बैट फँसा दिया। यह देख रीति ने भागकर एक कमरे में
जाकर कमरे को अन्दर से बन्द कर लिया। यह बिल्कुल स्वाभाविक भी था और ऐसी परिस्थिति में सामान्य तौर पर यही कहा
जायेगा कि उसने बिल्कुल ठीक किया। रीति ने अन्दर से कुण्डी लगाकर अपने को सेफ तो कर लिया पर उसका दिमाग तीव्र
गति से सक्रिय था। उसके कान बाहर की आवाज पर लगे हुए थे जिससे उसे यह संकेत मिल सके कि वे तीनों गुण्डे घर में
घुसकर क्या कर रहे हैं। उसे अलमारी खोलने की आवाज आयी और रीति समझ गई कि ये गुण्डे सारा सामान व मम्मी के
गहने लेकर चले जायेंगे। बस एक संकल्प उसके दिमाग में कौंधा कि पापा के परिश्रम से अर्जित अपने इस मूल्यवान सामान
की रक्षा तो उसे करनी ही चाहिए और उसके साथ इन गुण्डों को भी सबक सिखाना चाहिए। उसने सोचा कि मैं पुलिस को
सूचना दे दूँ। पर तभी उसे ध्यान आया कि अन्दर भागने के चक्कर में मोबाइल तो बाहर के कमरे में ही रह गया। रीति के
सामने इस समय दो विकल्प थे या तो चुपचाप अन्दर रहकर अपनी जान बचाये या मोबाइल को लेकर पुलिस को सूचना देने
का चांस ले जिसमें खतरा ही खतरा था। रीति ने अपने दूसरे फैसले पर अमल करने का निश्चय किया। उसने धीरे से अपने
साहस को सलामकमरे का दरवाजा खोला और दबे पाँव मोबाइल की ओर झपटी और मोबाइल को उठा लिया। मोबाइल लेकर नम्बर डायल
करती हुई कमरे की ओर भागी। ठीक यही समय था जब की-पेड की आवाज सुनकर गुण्डों का ध्यान रीति की ओर गया और
वे चिल्लाये, भागो यह पुलिस को फोन कर रही है। भागते-भागते एक लड़के ने अपने हाथ में पकड़े चाकू से रीति पर वार
करना चाहा जिसने अपनी बहादुरी से उनका सपना चकनाचूर कर दिया था। चेहरे को बचाने के लिए रीति ने अपना हाथ
चेहरे के सामने कर लिया तो चाकू रीति के हाथ में एक कट लगाता हुआ निकल गया। पुलिस को नम्बर डायल कर दिया गया
है यह सोचकर बदमाश भाग गए। एक क्षण रीति ने सोचा और बगल में जो उसकी मित्र रहती थी वह जल्दी से वहाँ चली गई।
उसकी सहेली की माँ ने सबको सूचना दी। विकास पाटोदी के पुलिस को फोन करने पर पुलिस भी वहाँ अतिशीघ्र आ गई। इस
प्रकार एक बहादुर बच्ची ने न केवल अपनी जान की रक्षा की वरन् उन बदमाशों को भी भागने पर मजबूर कर दिया।
भोपाल पुलिस, भोपाल का मीडिया, भोपाल के विद्यालय सर्वत्र इस बहादुर बच्ची की कहानी कुछ दिनों तक गूँजती रही।
अपने-अपने स्तर पर प्रोत्साहन देने के लिए इस साहसी बालिका को कई लोगों/संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत व सार्वजनिक रूप से
सम्मानित किया गया। आईजी, पुलिस भोपाल ने दस हजार रु. की प्रोत्साहन राशि देने की घोषणा की। मध्यप्रदेश के गृहमंत्री
श्री बाबूलाल गौर भी अपने को रोक नहीं सके और वह इस बहादुर बच्ची से मिलने उसके घर आये, उन्होंने भी उसे पाँच
हजार रु. की नगद राशि व गिफ्ट पैक प्रदान किया। उधर जीटीवी मध्यप्रदेश चैनल ने रीति को बुलाकर उसका साक्षात्कार
प्रसारित किया, शील्ड प्रदान कर रीति को सम्मानित किया तथाॅवउमद ।बीपमअमते ।ूंतक से नवाजा। राज्य पुलिस
की डी.आई.जी (अपराध शाखा) महिला पुलिस भी पीछे नहीं रही उन्होंने रीति को अपने यहाँ बुलाकर प्रशस्ति पत्र व शील्ड
प्रदान की। सेन्ट जोसेफ काॅ एड विद्यालय के विद्यालय प्रबन्धन ने भी रीति को तीन हजार रु. की नगद राशि का पुरस्कार
प्रदान कर सम्मानित किया।
हमें यहाँ यह लिखते हुए प्रसन्नता हो रही है कि यह बहादुर बच्ची न्यास के व्यवस्थापक श्री सुरेश जी पाटोदी की पौत्री है और
हमें ही नहीं पूरे न्यास को रीति पर गर्व है और हम आशा करते हैं कि इन पंक्तियों को पढ़कर भारत के अन्य बच्चों को भी
प्रेरणा मिलेगी।
तेलंगाना की शिवाम्पेट रुचिता
उसके हृदय में एक छेद था जिसकी दो वर्ष पूर्व सर्जरी हुयी थी, उसके साहस में कोई कमी नहीं थी। तेलंगाना के मेढ़क जिले
की रहने वाली 8 वर्ष की रुचिता ने साहस और प्रत्युत्पन्नमति से युक्त ऐसा कारनामा दिखाया कि हर कोई दंग रह गया। 24
जुलाई 2014 का दिन था। ग्रीष्मावकाश के पश्चात् विद्यालय खुल चुके थे। स्कूल बस में रुचिता अपने छोटे भाई तथा बहिन
व अन्य बच्चों के साथ बैठी थी। बिना चैकीदार के रेलवे क्रासिंग पूरे देश में प्रतिवर्ष कितने एक्सीडेंट के कारक बनते हैं तथा
कितनी जानों की हानि होती है, यह सभी जानते हैं। पर इस समस्या का कोई स्थायी समाधान अभी तक नहीं हो सका। सुबह
के 9 बजकर 20 मिनट हुए थे। रुचिता के काकतिया टेक्नो विद्यालय की स्कूल बस जब मसईपेट गाँव के निकट ऐसे ही एक
मानव रहित क्रासिंग से गुजर रही थी तो अचानक रुक गयी। उस समय ट्रेक पर नांदेड-सिकंदराबाद जाने वाली ट्रेन आ रही
थी जो ज्यादा दूर नहीं थी। जब यह दृश्य रुचिता ने देखा तो उसे समझने में देर न लगी कि कुछ ही सेकण्ड में ट्रेन बस को
टक्कर मार देगी। उसने चिल्लाकर ड्राइवर का ध्यान इस ओर आकर्षित करते हुए कहा कि बस को सड़क के उस पार ले
चले। ड्राइवर पूरी तरह बदहवास हो चुका था वह बार-बार बस स्टार्ट कर रहा था परन्तु बस स्टार्ट ही नहीं हो रही थी, ऐसे में
जब बस के अन्दर सभी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे रुचिता ने शीघ्र निर्णय लिया और दो बच्चों को बस की खिड़की से धक्का दे
बाहर निकाल दिया। उसकी छोटी बहिन आगे-आगे बैठी थी उसे आवाज दी पर वह न उठ सकी। अंत में रुचिका स्वयं बस
की खिड़की से कूद गयी और अगले ही सेकण्ड ट्रेन ने बस को भीषण टक्कर मार दी। यह सब चन्द सेकंडों के अंतराल में हो
गया। इस भयंकर दुर्घटना में बस के ड्राइवर सहित 20 बच्चे मारे गए। रुचिका ने अपनी प्रत्युत्पन्नमति व साहस के चलते दो
बच्चों को बचा लिया हालांकि उसे यह मलाल आज भी है की वह अपनी छोटी बहिन को नहीं बचा सकी। जब उसे गीता
चोपड़ा पुरस्कार जिसमें सम्मान सहित 40000 रुपयों की प्रोत्साहन राशि भी मिली, तब उसे प्रसन्नता अवश्य थी परन्तु
बहिन को न बचा पाने का दर्द भी उसके साथ था। सत्यार्थ सौरभ के माध्यम से हम इन बच्चियों के साहस को नमन करते हैं।