100 वर्षों में कुछ भी नहीं बदला
प्रायः ज्ञानीजन कहते हैं कि इतिहास केवल घटनाओं की जानकारी देने वाला नहीं होता।
कि वह इतिहास का विश्लेषण कर दुर्घटनाओं के घटित होने में मूलभूत कारणों को समझे तथा भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति को
रोकने हेतु उन कारणों को दूर करने का प्रयास करे। इसके साथ ही एक और नियम है कि परिवार में सुख-शान्ति के आकांक्षी
मुखिया को शान्ति भंग करने वाले सदस्य को पूर्ण निष्पक्षता के साथ चिँित करना चाहिए, तथा समझाने पर भी न समझने पर
यथोचित् उपाय करने में नहीं हिचकिचाना चाहिए ताकि घर में ‘वास्तविक साम्य’ की स्थापना हो सके। आभासी शान्ति कुछ
संतोष तो दे सकती है परन्तु स्थायी शान्ति नहीं। अफसोस है राष्ट्र-निर्माण का जिम्मा जिनके हाथों में था उन्होंने कठोरता व
निष्पक्षता के साथ अपना दायित्व निभाने में प्रमाद किया जिसकी सजा आज तक राष्ट्र को भुगतनी पड़ रही है।
अभी कुछ दिन पूर्व एक पढ़े-लिखे शिक्षित नेता ने एक वक्तव्य दिया, जिसका भाव था कि- जो लोग मरने के बाद भी अपने
मृत शरीर को राष्ट्र-भूमि को समर्पित कर उसे उर्वरा बनाने में सहायक हैं, क्यों नही राष्ट्र पर उनका पहला अधिकार होना
चाहिए? बड़ा विचित्र और बेहूदा बयान है। हम इसका विश्लेषण करके जगह घेरना नहीं चाहेंगे, पर यह बयान उन पूर्व
प्रधानमंत्री जी के बयान का अनुवर्ती ही है, जिन्होंने यह कहा था कि ‘राष्ट्र के संसाधनों पर प्राथमिक अधिकार अल्पसंख्यकों
विशेषकर मुसलमानों का होना चाहिए।’ क्यों? कोई तर्काधारित उत्तर नहीं। बस यह सब उस परम्परा का पालन मात्र है,
जिसमें निज के स्वार्थ के वशीभूत हो अथवा महानता की ख्याति से दमकने की इच्छा लिए कोई नेता जहाँ एक ओर, एक वर्ग
में निरन्तर हठ और दुराग्रह करने की आदत पैठा देता है वहीं दूसरे पीड़ित पक्ष को दबाते-दबाते उस स्थिति तक पहुँचा देता
है कि वह कभी भी फट सकता है, और इसमें किसी की हानि होती है तो केवल राष्ट्र की। मुझे यह लिखने में संकोच नहीं है
कि ऐसा व्यक्ति चाहे कितने बड़े नाम वाला क्यों न हो, कितना बड़ा त्यागी-तपस्वी क्यों न हो, ऐसा करके वह स्वयं को
अंततोगत्वा राष्ट्रघाती की श्रेणी में रख देता है।
इन दिनों वह समय चल रहा है जब स्वतंत्रता के आन्दोलन की किसी न किसी घटना की शताब्दी हो रही है। 2020 का समय
खिलाफत आन्दोलन और असहयोग आन्दोलन के शताब्दी का वर्ष है। हम अपने एक मित्र से बात कर रहे थे, चर्चा उक्त
खिलाफत आन्दोलन की थी और उनकी सोच थी कि अंगे्रजों के खिलाफ आन्दोलन था इसलिए उसे खिलाफत आन्दोलन कहा
गया। उनकी इस अज्ञानता से जो प्रश्न मेरे मन में आया कि ऐसी सोच अनेकों की हो सकती है। मैंने इस विषय पर थोड़ा
बहुत जितना चिन्तन किया है, तत्कालीन इतिहास को विभिन्न इतिहासकारों की नजर से पढ़ा है, मेरा दृढ़ विश्वास है कि
‘खिलाफत’ का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से कोई सम्बन्ध नहीं था, हिन्दू-मुस्लिम सहयोग की प्रबल आकांक्षा लिए कांगेस के
तत्कालीन नेताओं ने विशेषरूप से गाँधी जी ने इसे जबरदस्ती भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का हिस्सा बना दिया।
अन्यथा निम्न बिन्दुओं पर आवश्यक रूप से विचार किया जाना चाहिए था कि- जिस प्रकार हिन्दू व अन्य अल्पसंख्यक
राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग ले रहे थे, मुस्लिम भाईयों के भागीदार होने में गाँधी जी को शंका क्यों थी? खिलाफत के पक्ष में देश
के अन्य समुदाय खड़े हों न हों, उससे क्या अन्तर पड़ना चाहिए था? क्या ‘खिलाफत’ का भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से
दूर-दूर का नाता था? नहीं। यह इस्लाम के धार्मिक साम्राज्य की समस्या थी, जिसका आकार समय के चलते कम हो रहा था।
स्वयं तुर्की में उसके खिलाफ आन्दोलन हो रहे थे, कमाल पाशा अतातुर्क के नेतृत्व में धर्मनिरपेक्ष शासन स्थापना की क्रान्ति
चल रही थी, उस खलीफा के एकतंत्र को बचाने के लिए, धार्मिक साम्राज्य को कायम रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता के पक्के
समर्थक कांग्रेसी नेताओं को कूदने की क्या आवश्यकता थी? हमारे विचार में तो हमें किसी से सहानुभूति होनी चाहिए थी तो
धर्मनिरपेक्ष शासन या सुधारों के लिए प्रयत्नशील तुर्की के जन आन्दोलन से। परन्तु हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नेता तो
उसका विरोध तथा धार्मिक निरंकुश एकात्मक शासक अर्थात् सुलतान अब्दुल हमीद-प्प् का बचाव हर हद तक जाकर कर रहे
थे।
संभवतः इसी कारण जिन्ना सहित अनेक नेताओं ने इसका खुलकर विरोध किया तथा गाँधी जी को समझाया भी कि मुस्लिम
धार्मिक उलेमाओं को शह देना अंततः घातक होगा परन्तु जो मान जाय वो गाँधी क्या? हाँ! यह अवश्य मानना होगा कि गाँधी
बुद्धिमान व्यक्ति वा कौम को चाहिए
जी में कोई चुम्बकीय शक्ति थी जो उनके गलत निर्णय में भी अंततः सब शामिल हो जाते थे।
लोकमान्य तिलक खिलाफत के समर्थन के पक्ष में न थे।
पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति ने ‘भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास’ में लिखा है- ‘गाँधी जी ने असहयोग की नीति का पूरा
विवरण प्रकाशित किया तब तिलक महाराज के क्रान्तिकारी हृदय को वह बहुत पसन्द आया। वह गाँधी जी से केवल एक बात
में स्वराज्य के साथ खिलाफत को नत्थी करने के विरुद्ध थे। परन्तु 31 जुलाई की रात को लोकमान्य तिलक के निधन के बाद
कांग्रेस की कमान पूरी तरह गाँधी जी के हाथों में आ गई।’
‘ऐसा प्रतीत होता है कि गाँधी जी मुसलमानों का साथ लेने के लिए इतने उत्सुक थे कि वे कुछ भी करने को तैयार थे।’ प्रश्न
यह उठता है कि देश की स्वतंत्रता के प्रश्न पर बिना किसी अतिरिक्त प्रलोभन के, मुस्लिम बन्धुओं को साथ क्यों नहीं आना
चाहिए था? क्या यह उनका देश नहीं था? पर अली बन्धु असहयोग आन्दोलन को उत्साहपूर्वक समर्थन देने को तभी तैयार थे
जब खिलाफत के प्रश्न को कांग्रेस प्रमुखता से उठाये। मुस्लिम समाज की यही मानसिकता आज तक भी विडम्बना बनी हुयी
है।
इन्द्र विद्यावाचस्पति उपरोक्त पुस्तक में लिखते हैं- ‘गाँधीजी ने देशवासियों को बतलाया कि खिलाफत का मामला मुसलमानों के
लिए जीवन-मरण की समस्या का समाधान है। खिलाफत बचती है तो इस्लाम बचता है खिलाफत मरती है तो इस्लाम मरता
है। अब इस अन्याय का विरोध करने के दो ही उपाय हैं। हिंसात्मक विद्रोह या सरकार से अहसयोग। हिंसा स्वयं महापाप है।
उससे कोई समस्या स्थायीरूप से हल नहीं हो सकती। ऐसी दशा में केवल असहयोग ही एकमात्र उपाय रह जाता है।’
हमने माना कि अंग्रेजों ने प्रथम विश्वयुद्ध में मुसलमानों को शामिल करने के लिए जो वायदे किये थे उन्हें तोड़ दिया था पर
ऐसा तो उन्होंने अनेक स्थलों पर किया था। गाँधी जी ने ‘खिलाफत’ के मुसलमानों के लिए महत्त्व के बाबत् जो कहा वह भी
सही मान लिया जाय फिर भी खिलाफत कायम रखने की मांग भारत राष्ट्र की मांग कैसे बन सकती है? गाँधी जी अपने
खोखले तर्क से परिचित थे पर वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए इतने लालायित थे कि उन्होंने खिलाफत को मुसलमानों की गाय
बताने जैसा हास्यास्पद तर्क दिया। इसका अर्थ था कि हिन्दू अगर खिलाफत के प्रश्न पर मुसलमान भाइयों के साथ खड़े रहें तो
वे गौवध करना बन्द कर देंगे। अर्थात् न्याय के मार्ग पर भी वे तब चलेंगे जब उन्हें कुछ दिया जाय। देन-लेन की यही पद्धति
की आदत आज तक भी अल्पसंख्यक समाज को पड़ी हुयी है, और लेख के प्रारम्भ में कुछ नेताओं के जो वक्तव्य हमने दिए हैं
वे इसी मानसिकता को बंेी करने हेतु उद्धृत हैं।
बकौल गाँधी भारत के मुसलमानों को ‘खिलाफत’ उतनी ही प्रिय थी जितनी हिन्दुओं को गाय। पर उन्होंने यह नहीं सोचा कि
अरब के जो लोग खिलाफत के विरुद्ध थे, वे क्या मुसलमान नहीं थे? युवा तुर्क नेता कमाल पाशा और उनके वे साथी जिन्होंने
अंततः तुर्की को खलीफा के एकतंत्र धर्म-राज्य से आजाद कराया, यहाँ तक कि धर्मनिरपेक्षता की मिसाल बनाने हेतु हागिया
सोफिया जैसी प्रसिद्ध मस्जिद के स्थान पर वहाँ संग्रहालय बना दिया, क्या वे लोग मुसलमान नहीं थे? मैं यह भी सोचता हूँ कि
क्या अफगानिस्तान का अमीर मुसलमान नहीं था? उसने खिलाफत को बचाने के लिए क्या किया? 10-20 सहस्र मुसलमानों
के अफगानिस्तान में हिजरत हेतु आने पर ही उसकी हालत खराब हो गयी और उसने 20वीं शताब्दी की इस हिजरत पर ही
रोक लगा दी।
यहाँ खिलाफत को जब तक ठीक से न समझा जाएगा तब तक यह पूरा प्रकरण समझ में नहीं आयेगा, यह सोचकर अति
संक्षेप में निम्न विवरण देना चाहते हैं- मुहम्मद साहब के निधन के पश्चात् जो सर्वाधिकारी उनकी जगह नियुक्त होता था उसे
खलीफा कहा जाता था। वह मुहम्मद साहब का उत्तराधिकारी ही समझा जाता था। अल्लाह तथा रसूल के अतिरिक्त खलीफा
को मानना इस्लाम में अनिवार्य हो गया। (शिया मुसलमान खिलाफत की निरन्तरता को नहीं मानते)। धीरे-धीरे खलीफा की
शक्ति बढ़ती गयी यहाँ तक कि उनके अधीन के ओटोमन साम्राज्य में कभी यूरोप, अरब के कुछ भाग एवं अफ्रीका के उत्तरी
तटवर्ती इलाके थे। इस समय यह सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य था। समय के बीतने के साथ विश्व में नयी विधाओं को
अपनाने का उपक्रम चलता रहा परन्तु खलीफाओं ने उनमें रुचि नहीं दिखायी। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे साम्राज्य का विरोध
बढ़ता गया। बुल्गेरिया इससे अलग हुआ। साम्राज्य सिकुड़ता गया। बाल्कान युद्ध के बाद तुर्की साम्राज्य वैसे ही बहुत सिकुड़
गया था।
22 अक्टूबर को बुल्गारिया ने सिर्थ किलेसे नामक स्थान पर टर्की की सेना को बुरी तरह परास्त किया। 8 नवम्बर को ग्रीस
की सेना ने टर्की की सेना को सेलोनिका के स्थान पर परास्त कर अपना अधिकार स्थापित किया और मेसिडोनिया के तुर्क
साम्राज्य का अन्त कर दिया। इस प्रकार डेढ़ महीने के अन्दर ही टर्की को बाल्कन राज्यों से बुरी तरह परास्त होना पड़ा औरउसके पास यूरोप का बहुत कम भाग शेष रहा।
बुखारेस्ट की सन्धि से गुजरते हुए अनेक क्लिष्ट घटनाओं के पश्चात् प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् उपरोक्त स्थिति आयी, जो कि
कतई नयी नहीं थी। खिलाफत का अन्त तो होना ही था। इस सारे मामले में ब्रिटेन के अतिरिक्त अन्य देश भी शामिल थे। क्या
केवल ब्रिटेन खिलाफत को बदस्तूर रख सकता था? यह भी संदेहास्पद ही था।
इन सब बातों से गाँधी जी व अन्य राजनीतिज्ञ क्या अनभिज्ञ थे? स्पष्ट है नहीं। इसलिए खिलाफत को प्रथम शर्त बनाने में
‘न्याय’ से अधिक, मुस्लिम भाइयों के मध्य लोकप्रिय होने की गाँधी जी की ‘चाह’ अधिक प्रतीत होती है।’ जहाँ तक तुर्की के
खिलाफ अन्याय का प्रश्न है तो तुर्की के द्वारा 15 लाख आर्मेनियनों के नर संहार को क्या कहा जाएगा? यद्यपि इस नरसंहार
के बारे में आज बात करना भी तुर्की में अपराध माना जाता है, फिर भी इस सन्दर्भ में निम्न अवतरण अवलोक्य है-
The University of Minnesota’s Center for Holocaust and Genocide Studies has compiled
figures by province and district that show there were 2,133,190 Armenians in the empire in
1914 and only about 387,800 by 1922 ण्लगभग 17 लाख नागरिक कहाँ गए?
जब गाँधी जी ‘खिलाफत’ को कायम रखने के लिए आन्दोलन चला रहे थे, उसी समय तुर्क जनता उसे खत्म करने हेतु जूझ
रही थी। सामान्य बुद्धि से भी खिलाफत के उद्देश्य समर्थन योग्य नहीं थे। तुर्की साम्राज्य बनाए रखने का मतलब था कई देशों
को तुर्की का उपनिवेश बनाए रखना। हम भारतीय उस समय उपनिवेश वादियों के विरुद्ध अपनी अस्मिता के लिए लड़ रहे थे
तो उसी समय तुर्की के उपनिवेशों को बनाए रखने के लिए किस आधार पर उद्यत हो सकते थे?
पर गाँधी जी ने यंग इंडिया (2 जून, 1920) में लिखा, ‘मेरे विचार से तुर्की का दावा न केवल नैतिक एवं न्यायपूर्ण है, बल्कि
पूर्णतः न्यायोचित् है, क्योंकि तुर्की वही चाहता है जो उसका अपना है। गैर-मुस्लिम और गैर-तुर्की जातियाँ अपने संरक्षण के
लिए जो गारण्टी आवश्यक समझें, ले सकती हैं, ताकि तुर्की के आधिपत्य के अन्तर्गत ईसाई अपना और अरब अपना स्वायत्त
शासन चला सकें।’ (गाँधी जी द्वारा यह तब कहा जा रहा था जबकि ओटोमन साम्राज्य में ईसाइयों के लिए आवश्यक था कि वे
20 प्रतिशत पुरुष बच्चों को शासन को सौंप दें जिन्हें गुलाम बनाया जाता था देखें-
In the 14th century, the devshirme system was created. This required conquered Christians to
give up 20 percent of their male children to the state. The children were forced to convert to
Islam and become slaves.The devshirme system lasted until the end of the 17th century.)
गाँधी जी ने आगे लिखा, ‘मैं यह विश्वास नहीं करता कि तुर्क निर्बल, अक्षम या क्रूर हैं।’ यह भी गलत था, क्योंकि तुर्कों ने
आर्मेनियाई जनसंहार (1915) किया था। उसमें दस-पन्द्रह लाख ईसाई आर्मेनियाई लोगों का तुर्कों ने सफाया किया। उन्हीं को
गाँधी जी दयालु कह रहे थे। वस्तुतः तो विश्वभर में सभी शासन पद्धतियों में अन्याय के विरुद्ध आवाज उठती रहती है,
ओटोमन साम्राज्य के पतन का यही मुख्य कारण था।
एक विद्वान्, युवा तुर्क आन्दोलन के बारे में लिखते हैं-
Young Turks was a political reform movement in the early 20th century that consisted of
Ottoman exiles, students, civil servants, and army officers. They favored the replacement of
the Ottoman Empire’s absolute monarchy with a constitutional government. Later, their
leaders led a rebellion against the absolute rule of Sultan Abdul Hamid II in the 1908 Young
Turk Revolution. With this revolution, they helped to establish the Second Constitutional Era
in 1908, ushering in an era of multi-party democracy for the first time in the country’s history.
उपरोक्त संक्षिप्त विवरण यह स्पष्ट करने के लिए काफी है कि तुर्की का विघटन उसके अपने कारणों से अवश्यम्भावी था। यहाँ
यह भी विचार करें कि किसी देश की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार में, उन लोगों द्वारा जो स्वयं इसी प्रकार का संघर्ष कर
रहे हों, अवरोध उत्पन्न करना कहाँ तक उचित है? प्रथम विश्वयुद्ध तो इस प्रक्रिया में ताबूत की अंतिम कील बन गया।
खलीफा के अस्तित्व को समाप्त करने के लिए जिस देश के नागरिक स्वयं संघर्षरत् हों, जहाँ प्रथम विश्वयुद्ध में अनेक देश
सम्मिलित हों वहाँ अकेले ब्रिटेन निर्णय कर भी नहीं सकता था, इन तथ्यों को भलीभाँति समझते हुए भी मुस्लिम भावनाओं को
तुष्ट करने के लिए गाँधी जी और कांग्रेस ने खिलाफत का समर्थन किया जबकि भारत और भारतीयता से इसका कुछ लेना
देना नहीं था। बढ़ते हुए राष्ट्रवादी चिन्तन के उस युग में खलीफा के धार्मिक साम्राज्य की परिकल्पना का टिके रहना कठिन ही
था। खिलाफत आन्दोलन चीख-चीख कर कह रहा है कि आज से 100 वर्ष पूर्व जिस अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को हवा दी गयी
थी मनमोहन सिंह और शशि थरूर उसी को निरन्तरता देने का प्रयास कर रहे हैं। क्रमष्