घातक है साहित्यिक मिलावट
पच्चीस और अब मेरी आधी उमर में तीस सहस्र, श्लोक युक्त महाभारत का पुस्तक मिलता है।
महाभारत का पुस्तक एक ऊँट का बोझा हो जायगा।’
पाठकगण! जो लोग उक्त प्रकार से ग्रन्थों में मिलावट करते हैं यह अक्षम्य अपराध है। राजा भोज के समय में साहित्यिक प्रक्षेप
को इतना गम्भीर माना जाता था कि ऐसे लोगां के हस्तछेदन का विधान था। परन्तु यहाँ हम बड़ी विनम्रता के साथ उस क्षण का
रेखांकन करना चाहेंगे जहाँ से ग्रन्थों में संशोधन/मिलावट प्रारम्भ होती है। कभी-कभी अच्छे आशय के साथ ग्रन्थ-सुधार का
मानस लेकर भक्तों द्वारा यह प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। परन्तु जब संशोधन की रेलगाड़ी एक बार चल पड़ती है फिर उसकी दिशा
तथा रफ्तार को नियंत्रित नहीं किया जा सकता, इस बात को प्रमाणित करने हेतु प्रचुर सामग्री है जिससे एक ग्रन्थ लिखा जा
सकता है। अगर आप अपने इतिहास, साहित्य तथा संस्कृति की रक्षा करना चाहते हैं तो निश्चित रूप से सचेष्ट होकर
प्रयत्नपूर्वक साहित्य प्रक्षेप के प्रथम प्रयास को रोकिए अन्यथा फिर पछताने के अतिरिक्त कुछ भी हाथ न लगेगा।
वैंडी डोनिगर ने जो कुछ लिखा निश्चित उसकी तीव्र भर्त्सना होनी ही चाहिए। बत्रा जी ने भारतीय संस्कृति के सजग प्रहरी की
भाँति माननीय न्यायालय की शरण लेकर इस कुत्सित प्रयास को निरस्त किया, वे सभी के धन्यवाद के पात्र हैं। काश! हर समाज
में दीनानाथ बत्रा जैसे पवित्र बुद्धि वाले दृढ़ निश्चयी व्यक्ति हों।
पर यहाँ हम यह निवेदन अवश्य करेंगे कि वैंडी डोनिगर ने जो कुछ लिखा, क्या वह उनकी अपनी कल्पना है? कदापि नहीं। यदि
हम निष्पक्ष हैं तो हमे अपने गिरेबान में झाँकना चाहिए। योगिराज श्रीकृष्ण के अतिपावन उज्ज्वल चरित्र को पुस्तक की जैकेट के
माध्यम से चित्रित करने में अपने कलुषित मन को प्रस्तुत करने वाली लेखिका को यह संकेत हमारे ही ब्रह्मवैवर्त पुराण में उपलब्ध
गर्हित सामग्री से मिला है। न भूलें कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने अभिनेत्री खुशबू के केस में इसी प्रकार की सामग्री के
आधार पर श्रीकृष्ण व राधा के सम्बन्धों को स्पअम पद तमसेंपवदेपच करार दिया था।
वैंडी डोनिगर द्वारा प्रस्तुत रामायण के चरित्रों की बात करें तो संक्षेप में यही कहना होगा कि मूल वाल्मीकि रामायण में ही इतने
प्रक्षेप हो चुके हैं कि क्या कहें! रामायण के सभी अध्येता सम्पूर्ण उत्तरकाण्ड को प्रक्षिप्त मानते हैं पर हम हैं कि सीता-त्याग,
शम्बूक-वध जैसे प्रक्षेपों को गले से लगा स्वयं ही पतित पावन राम- चरित्र को अपावन कर रहे हैं, विदेशियों की क्या बात करें।
स्थिति यह है कि वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त आज पचासों रामायण उपलब्ध हैं, जिनमें परस्पर विरुद्ध, सृष्टिक्रम से विरुद्ध,
असंभव बातें थोक भाव में भरी पड़ी हैं पर हम उनमें घटनाओं से की गयी छेड़छाड़ को नकारने हेतु सन्नद्ध नहीं हैं तो वैंडी को
अबकी रोक लिया, परन्तु किस-किस को रोकोगे? वैंडी डोनिगर ने श्री राम-लक्ष्मण के बारे में जो लिखा है उसके संकेत कहाँ हैं
देखिए-
जिस लक्ष्मण के बारे में विभीषण का कथन है कि जिसने आहार और निद्रा को 12 वर्ष तक छोड़ दिया हो उस लक्ष्मण के हाथों ही
मेघनाथ का वध संभव है, ऐसे दृढ़ संयमी, भ्रातृ-भक्त लक्ष्मण के बारे में जब स्कन्द पुराण में यह वर्णन मिलेगा-
हत्वैनं राघवं सुप्तं सीतां पत्नीं विधाय च ।
किं गच्छामि निजं स्थानं विदे×ां वापि दूरतः।। नागर खण्ड अध्याय 20।।45।।
अर्थात् ‘लक्ष्मण के मन में राम का वध करके सीता को अपनी पत्नी बनाने का विचार आया।’ (यद्यपि उक्त श्लोक की संस्कृत
तथा ‘विदेश’ शब्द-प्रयोग इसके प्रक्षिप्त होने की घोषणा कर रहे हैं) तो द्वेषी लेखक अपनी कलम को क्यों संयमित करेंगे?
अब महावीर, अखण्ड ब्रह्मचारी हनुमान के संदर्भ में देखिये, जिनकी कामुकता की चर्चा भारतीय संस्कृति-द्वेषी लेखकों ने की है।
श्री हनुमान के ब्रह्मचर्य साधना का वर्णन निर्विवाद रूप से वाल्मीकि तथा अन्य रामायणों में मिलता है। इस भाव को यहाँ तक
विस्तार दिया गया कि ‘भावार्थ रामायण’ में यही कल्पना कर ली गयी कि हनुमान कौपीन पहनकर ही जन्मे। परन्तु साथ ही
कुछेक रामायणों में श्री हनुमान की प्रेमलीलाओं का भी वर्णन किया गया है। एक रामायण ‘रामकियेन’ में स्वयंप्रभा’ एक अप्सरा
वानरी तथा मन्दोदरी के साथ हनुमान के रमण का वर्णन मिलता है। ‘सेरीराम’ में तो हनुमान को व्यभिचारी तक बताया है।
हनुमान के ब्रह्मचर्य का खण्डन सिर्फ उपरोक्त रामकथा में मिलता हो ऐसा नहीं। पउमचरियं (19, 42) में हनुमान की एक सहस्र
पत्नियों का उल्लेख है। इसी में एक स्थल पर हनुमान तथा लंका सुन्दरी की प्रेमक्रीड़ा का वर्णन किया गया है। वाल्मीकि रामायण
जो ऐसे ही बढ़ता चला तो
{देखें- रामकथा- कामिल बुल्के}
घातक है साहित्यिक मिलावट
में भी (6, 125, 44) भरत ने हनुमान को पत्नीस्वरूप 16 कन्याऐं प्रदान कीं ‘शुभाचारा आर्याः कन्यास्तु षोडश,’ ऐसा प्रक्षिप्तांश
मिलता है।
यह हम इसलिए बल देकर कह सकते हैं क्योंकि इसी वाल्मीकि रामायण में श्री हनुमान के पावन चरित्र को भलीभाँति चित्रित
किया गया है। जब माता सीता की खोज में हनुमान रावण के अन्तःपुर में जाते हैं तो वहाँ अर्धनग्न स्त्रियों को भी देखते हैं। पर
उनके मन में तनिक भी विकार नहीं आता। सुन्दरकाण्ड़ सर्ग- 11 में लिखा है-
कामं दृष्टा मया सर्वा वि×वस्ता रावण स्त्रियः।
न तु मे मनसा किंचिद्वैकृत्यमुपपद्यते ।।41।।
यह है श्री हनुमान का उज्ज्वल चरित्र। परन्तु ऊपर लिखे प्रक्षेपों के कारण भारतीय संस्कृति-द्वेषी तथाकथित इतिहासकार
मनमानी कलम क्यों न चलावें? उनका कलुषित मानस जो चाहता है, इन प्रक्षेपों में मिल जाता है।
उक्त पुस्तकों में रावण वध लक्ष्मण द्वारा हुआ ऐसा बताया गया है तो उसका स्रोत श्री विमल सूरि द्वारा रचित पउमचरियं है।
उसमें में यही कहा है। पर्व (93)।
जहाँ तक सीता को रावण की पुत्री बताने की बात है, विभिन्न रामायणों में भिन्न-भिन्न बात कही गयी हैं। सीता जनकात्मजा तथा
भूमिजा तो वहुश्रुत हैं हीं, सीता रावण की पुत्री भी अनेकत्र बताई गई हैं। यहीं बस नहीं की गई। सीता को रक्त, अग्नि,
फल-वृक्षों से उत्पन्न भी कहा है। यही प्रक्षेप उक्त इतिहासकारों के आधार बन गए।
हम निवेदन यही करना चाहते हैं कि आदर्श भारतीय चरित्रों पर पुराने प्रक्षेपकर्त्ताओं ने भी कम प्रयोग नही किए हैं इन्हीं ने नये
लोगों को कुकृत्य हेतु-साहस दिया।
जो समाज, जो समुदाय, जो राष्ट्र, जो कौम अपने ग्रन्थों को प्राणप्रण से प्रक्षेप से नहीं बचाते निश्चितरूपेण कालान्तर में उन
ग्रन्थों की आत्मा को मरने से कोई नहीं रोक सकता। अगर संस्कृति की रक्षा करनी है तो दृढ़ता पूर्वक प्रथम प्रक्षेपकर्त्ता को निरुद्ध
करना होगा।