कहीं देश न जल जाए
भर्तृहरि जी ने ठीक ही लिख है कि मनुष्य की तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती। और वह तृष्णा अगर सत्ता की हो तो इतनी विकराल हो जाती है कि फिर व्यक्ति को समस्त दायित्व बोध, नैतिकता, सामजिक समरसता की भेंट चढ़ाने मेें एक क्षण की भी हिचकिचाहट नहीं होती। कहने को तो संविधान के अनुसार हमारे यहाँ विधि का शासन है। मान्य न्यायालयों के महत्वपूर्ण फैसले स्वतंत्र व ताकतवर न्यायपालिका की झलक भी यदा कदा दिखला देते हैं। परन्तु शासक वर्ग यह सोचने की बजाय कि उस फैसले से समाज केा कितना लाभ मिलेगा,तुरन्त उस निर्णय की इस दृष्टिकोण से समीक्षा करने में जुट जाता है कि इस फैसले से उसके तथा उसके वोट बैंक पर क्या प्रभाव पड़ेगा। यदि यह प्रभाव विपरीत होगा तो तथाकथित ‘विधि के शासन’ की धज्जियाँ उड़ाने में उसे कोई शर्म महसूस नहीं होती। उदाहरण के तौर पर अत्यन्त चर्चित ‘शाहबानो केस’ तथा ‘राजनारायण केस’ की याद दिला दें। प्रथम केस में न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न था कि एक मुस्लिम परित्यक्ता को उसके पति के द्वारा गुजारा भत्ता मिलना चाहिए या नहीं। मुस्लिम पर्सनल लॉ कानून में ऐसा प्रावधान नहीं है। मान्य सर्वाेच्च न्यायालय ने गुजारा राशि के लिए शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया जिसका मुस्लिम संस्थाओं द्वारा विरोध किया गया। विधि के समक्ष समानता की स्थापना करने वाला,प्राकृतिक न्याय को समर्पित यह एक क्रान्तिकारी निर्णय था। संविधान की भी यही भावना है कि कोई किसी भी जाति, धर्म, वंश, कुल का हो विधि के समक्ष समान है। परन्तु सŸााधीशों को अपना वोट बैंक हिलता नजर आया। मुस्लिमों को प्रसन्न करने हेतु इस स्वस्थ व प्रगतिशील निर्णय केा अप्रभावी करने हेतु मुस्लिम महिला विधेयक 1986 लाया गया।
1971 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने रायबरेली से श्री राजनारायण के विरुद्ध चुनाव लड़ा। राजनारायण की हार हुई। इलाहबाद उच्च न्यायालय में श्री राजनारायण ने याचिका दायर की कि श्रीमती गाँधी ने चुनाव में अपने पद का पूर्ण उपयोग किया जो चुनाव संहिता का उल्लंघन था। इलाहबाद उच्च न्यायालय ने श्रीमती इन्दिरा गाँधी को दोषी पाया तथा उनका चुनाव निरस्त कर दिया। इसको अप्रभावी बनाने हेतु संविधान संशोधन कर प्रधानमंत्री पद को न्यायिक समीक्षा के घेरे से बाहर कर दिया गया।
इस समय ‘प्रमोशन में आरक्षण’ के प्रश्न केा लेकर पूरा राष्ट्र उद्वेलित है। मान्य उच्च न्यायालय ने संविधान में समता व समान अवसर के आश्वासन को पुनःजीवित किया है पर कुर्सी के भूखे सत्ताधीशों को इस ऐतिहासिक निर्णय से अपने वोट बैंक की चिन्ता हो रही है अतः एक बार फिर न्यायपालिका के इस महान् निर्णय को संविधान संशोधन द्वारा अप्रभावी बनाने का कार्य शुरू कर दिया गया है।
यह ठीक है कि कुछ सहस्र वर्ष पूर्व भारत में गुण कर्म स्वभाव के आधार पर आधारित वर्ण व्यवस्था धीरे धीरे जन्मगत जाति प्रथा में परिवर्तित हो गई और यही नहीं तथाकथित उच्च जाति वाले ब्राह्मणादि द्वारा शेष नागरिकों का भयावह व अमानवीय शोषण किया गया। शिक्षा, प्रतिष्ठा, तरक्की के सारे रास्ते बंद कर दिए गए। यह रोंगटे खड़े कर देने वाला बर्बरतापूर्ण व्यवहार था। देश की स्वतंत्रता के साथ जब भारतीय संविधान में समता का अधिकार स्वीकार किया तो संविधान के निर्माताओं के समक्ष यह प्रश्न था कि सदियों से शोषित एवं अवसरों से वंचित, अशिक्षा तथा गरीबी में जी रहे मूलभूत सुविधाओं से महरूम उन वर्गाें को समानता के स्तर पर केैसे ले जाया जाय। विचारोपरान्त यह व्यवस्था की गई कि ऐसे वर्ग को परिभाषित किया जाकर 10 वर्ष तक उन्हें विशेष अधिकार दिए जायँ ताकि वे अन्य लोगों के समान स्तर पर आ सकें। यहाँ यह बात रेखांकित करने योग्य है कि संविधान निर्माता उसे संविधान प्रदत्त समता के अधिकार के विरुद्ध समझते थे। अतः प्रावधान केवल 10 वर्ष के लिए किया गया। इसके पश्चात् अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ जैसे वर्ग अस्तित्व में आये।
यहाँ तक के प्रावधान को अन्यायपूर्ण कतई नहीं कहा जा सकता। सदियों से जिन पर अत्याचार हुए, उन्हंे विशेष सुविधा देकर बराबरी तक लाना उचित ही था।
शिक्षा में आरक्षण,नौकरियों में आरक्षण देकर जिस व्यवस्था को सीमित समय तक लागू किया गया, वहाँ सुविधाएँ देने के प्रतिफल में एक संगठित जन्मगत आधारित समूह को एक ‘वोट बैंक’ में परिणित कर दिया गया। और जहाँ वोट बेैंक हो वहाँ कुर्सी के भूखे लोग ऐसे वोट बैंक को हाथ से जाने दें यह कदापि संभव नहीं था। अतएव सीमित व्यवस्था असीमित हो गई।
और राजनीति के ठेकेदारों ने आरक्षण को चुनाव जीतने का हथियार बना लिया। उन्होंने इस बात पर ध्यान देना बन्द कर दिया कि क्यों संविधान निर्माताओं ने उसे सीमित समय के लिए ही लागू किया तथा इससे समता के मौलिक अधिकार का हनन होता है। यह योग्यता को प्राथमिकता के उपादेय प्राकृतिक सिद्धान्त के भी प्रतिकूल व्यवस्था है।
खैर! यह अतीव लम्बी चर्चा है अभी इस पर विशद् चर्चा का अवकाश नहीं है। यहाँ तक तो फिर भी समझ में आता है कि सदियों से शोषितों को प्रतिष्ठा व आर्थिक निर्भरता प्राप्त हो इस का उपाय भी समाज की ही जिम्मेदारी है। परन्तु अब जब यह मुद्दा चुनाव का लाभकारी हथियार बन गया है तो सारी हदें पार कर दी गई हैं। अब सर्वत्र आरक्षण ही आरक्षण है। आरक्षण का लाभ उठा जो समर्थ हो गया उसे अभी भी जातिगत आधार पर दलित बनाए रख प्रमोशन में भी आरक्षण का प्रावधान लागू है। देखते ही देखते सवर्ण अधिकारी तथाकथित दलित अधिकारी का मातहत बन गया। इससे आक्रोश उत्पन्न होना स्वाभाविक है। न्याय की अपेक्षा लेकर पुनः विधि के समक्ष समानता का भाव लेकर कोई कहाँ जावेगा?स्पष्टतः न्यायपालिका के पास।
सन् 2007 में उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा प्रमोशन में भी आरक्षण लागू किया गया,जिसे कि इलाहबाद उच्च न्यायालय में असंवैधानिक घोषित करने हेतु याचिका दायर की गई। 4 जनवरी 2011 को इलाहबाद उच्च न्यायालय ने इस नीति को असंवैधानिक घोषित कर दिया। जिसके खिलाफ माननीय उच्चतम न्यायालय में कई सिविल अपील दाखिल की गईं। न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी तथा दीपक मिश्रा की पीठ ने संविधान पीठ के एम.नागराज तथा इन्द्रा साहनी के निर्णयों का उल्लेख करते हुए निर्णय दिया कि प्रमोशन में आरक्षण तभी दिया जा सकता है जबकि इसकी आवश्यकता को पर्याप्त आंकड़ों के आधार पर न्यायोचित सिद्ध किया जाए। इस प्रकार उत्तरप्रदेश सरकार की अपील खारिज कर दी गई। उस प्रत्येक मोड़ पर जब कि न्यायपालिका के निर्णय से सत्ताधारियेां के वोट बैंक पर प्रतिकूल असर पड़ा तब तब संविधान में ही संशोधन कर ऐसे परिवर्तन लाए गए जिससे न्यायपालिका का निर्णय निष्प्रभावी हो जाय। पदोन्नति में आरक्षण के मामले में भी ऐसा ही हुआ। उच्चतम न्यायलय ने पदोन्नति में आरक्षण को नकार दिया। इस रुकावट को दूर करने के लिए 77 वाँ संविधान संशोधन लाया गया जिससे अनुच्छेद 16 अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजातियों के मामले में लागू नहीं होगा। यही नहीं 85 वें संविधान संशोधन विधेयक द्वारा भूतलक्षी प्रभाव से संशोधन कर दिया गया जो एक नई मिसाल थी।
न्यायाधीशों के समय समय पर दिए निर्णयों को राजनीति में सत्ता प्राप्त करने हेतु सदैव उपेक्षित किया गया। के.सी.वसन्तकुमार के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने सलाह दी थी कि:-
1. आरक्षण सन् 2000 तक चलाया जाए।
2. पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की कसौटी आर्थिक हो। 3. प्रत्येक 5 वर्ष में इस पर पुनर्विचार हो।
जाति आधारित आरक्षण ने ही जन्मगत जाति प्रथा को मजबूत किया है। इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि तथाकथित सवर्ण जाति में पैदा होने वाले भी अनेक प्रकार से वंचित हैं। अतः आरक्षण के आधार रूप में आर्थिक स्थिति को मानना अपेक्षाकृत युक्ति संगत होता। दूसरे किसी भी परिवार में एक सदस्य को यदि आरक्षण की सुविधा मिल जाती है, वह सरकारी नौकरी में आ जाता है, फिर पदे पदे उसको व उसके परिवार को आरक्षण देना अन्य अनारक्षित वर्ग के साथ अन्याय है। यह अवसर की समानता के अधिकार से उसे च्युत करता है। वैसे भी जो सरकारी नौकरी प्राप्त कर चुका है वह अब वंचित कैसे हुआ?इतनी सीधी गणित समझकर भी राजनेता येन केन प्रकारेण आरक्षण को, यहाँ तक पदोन्नति मंे भी आरक्षण केा जीवित रखे हुए हैं। इसके लिए सब कुछ करने को तैयार हैं। न्यायपालिका के पूर्व के फैसले केा बार बार संविधान संशोधन करके रद्द कर दिया गया। अब एक बार फिर मान्य उच्चतम न्यायालय के उत्तरप्रदेश सरकार की एतद् विषयक अपील खारिज करने से उत्पन्न स्थिति को परिवर्तित करने हेतु संविधान संशोधन की जुगत की जा रही है जिससे आरक्षण विधिक
रूप से चलता रहे और नेताओं के वोट बैंक सुरक्षित रहे। यह कैसा विधि का शासन है?
किसी ने ठीक ही लिखा है कि ‘ सियासत को लहू पीने की लत है वर्ना मुल्क में सब खैरियत है।’