आओ चुकाएँ ऋण माता-पिता का
महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने प्रमुख ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के चतुर्थ समुल्लास में लिखते हैं-‘जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पितादि प्रसन्न हों और प्रसन्न किए जाएँ, उसका नाम तर्पण है परन्तु यह जीवितों के लिए है,मृतकों के लिए नहीं।
अर्थात् प्रत्येक मनुष्य का परम कर्तव्य है कि वे अपने माता-पितादि की सेवा बड़े यत्न से करे।
ऋषिवर इसी समुल्लास में आगे बुजुर्गाें की सेवा के बारे में लिखते हैं-
‘…….उन सबको अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यान आदि देकर अच्छे प्रकार जो तृप्त करना अर्थात् जिस कर्म
से उनका आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहे, उस-उस कर्म से प्रीतिपूर्वक उनकी सेवा करनी, वह श्राद्ध और तर्पण कहाता है।
आपने देखा होगा कि भारतीयों/ हिन्दुओं में तर्पण तथा श्राद्ध का प्रकार आजकल अलग प्रकार से प्रचलित हो गया है। मृत्योपरान्त मृतक की आत्मा की तृप्ति के नाम पर मृतक भोज, शैय्यादान या किसी पवित्र नदी में अस्थियाँ प्रवाहित करना कर्तव्य पूर्ति मान लिया जाता है। वर्ष में एक बार श्राद्ध पक्ष आता है। कहा जाता है कि इस काल में तथाकथित ब्राह्मणों को भोजन दक्षिणादि से तृप्त करने से पितर तृप्त हो जाते हैं । यह पूर्णतया अवैज्ञानिक धारणा है,मिथ्या, कपोलकल्पित तथा धर्म के नाम पर मूर्ख बनाकर ठगने का प्रत्यक्ष उदाहरण है। वस्तुतः श्राद्ध और तर्पण जीवित बुजुर्गाें का ही होता है। पितर का तात्पर्य ही जीवित माता पितादि से है। अगर जीवित रहते माँ-बाप को सुख न दिया तो मरे पश्चात् गंगादि में भस्मी प्रवाहित करना स्वयं को मूर्ख बनाना मात्र है। किसी ने इस हालात पर टिप्पणी की हैः-
‘जियत पिता से दंगम दंगा,मरे पिता पहुँचाए गंगा।
अगर आप जीवन में सन्तोष तथा उन्नति चाहते हैं तो माता-पितादि के भरपूर, हृदय से निकले आशीर्वाद के बिना संभव नहीं है।
आज अनेकानेक कारणों से माता-पिता को अपना बुढ़ापा विपन्न स्थिति में, एकाकी काटना पड़ रहा है। इसीलिए Old
Age Homes की संख्या बढ़ रही है। सारा जीवन ,सारी इच्च्छाएँ, उमंगे बच्चों के भविष्य पर कुर्बान कर देने के पश्चात् जब वे अपने को दीन-हीन आश्रित अवस्था में पाते हैं तो अपने जीवन को अभिशप्त समझते हैं। वे एकाएक यह समझने में असमर्थ हो जाते हैं कि वे इस संसार में क्यों हैं। उनकी सार्थकता क्या है। इससे दुखद स्थिति कोई नहीं हो सकती।
कुछ वर्ष पूर्व अमिताभ जी की एक फिल्म आयी थी बागवाँ। अपनी सारी खुशी, सारा धन वे बच्चों को बनाने में खर्च कर देते हैं। अवकाश प्राप्ति के पश्चात् जब वे आत्ममुग्ध होते हैं कि अब बच्चे प्यार और सम्मान से उन्हें रखेंगे तथा जिन्दगी के सबसे सुन्दर पल अब वे चिन्तामुक्त होकर बितायेंगे तो बेटों के व्यवहार से उनके सपने चूर-चूर हो जाते हैं। हमें फिल्म का सबसे मार्मिक दृश्य यह लगा कि जब पोते की शरारत से अमिताभ जी का चश्मा टूट जाता है, तब जिस प्रकार से चीजों को सँभालकर रखने की सलाह और महंगाई की मार की बात उन्हें कही जाती है उस समय कोई पिता क्यों न मृत्यु को जीवन से बेहतर समझेगा? काश पुत्र उस समय तनिक उन पलों को याद कर लेता जब पिता द्वारा लाया गया खिलौना टूट गया और उसके आँसू पोंछकर उसकी जिद पर रात के समय भी बड़ी मुश्किल से एक दुकान खोज, पिता नया खिलौना लाया । पुनः खिलौना टूटने पर पुनः लाया। पिता को पुत्र की आँखों मंे एक आँसू बर्दाश्त नहीं। व्यर्थ है उस पुत्र का जीवन जो माता-पिता की आँखों में एक अश्रु का भी कारण बने।
ऊपर हमने महर्षिवर के दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं जिनमें से प्रथम में ‘प्रसन्न किए जाएँ’ और द्वितीय में ‘उनका आत्मा तृप्त’ को हमने गहरी स्याही में किया है। वह इसलिए कि कुछ लोग समझते हैं कि धन खर्च करने से उनकी कर्तव्य-पूर्ति हो जाती है। माता-पिता के वस्त्र, भोजन, औषधोपचार आदि पर खुले दिल से व्यय करने पर भी यह आंशिक ही कहा जायेगा । आत्मा के तृप्त होने के लिए कुछ और भी आवश्यक है।
इसे समझने हेतु यदि माँ-बाप अपने बच्चे को बड़ा करने के विभिन्न प्रसंगों की वीडियो बनालें तो अधिक आसानी से समझ सकेंगे। उन्हें दिखेगा वह दृश्य जब वो काम पर जा रहे हैं, पहले ही देर हो चुकी है पर बालक पिता के पास जाने को मचल गया। असंभव को संभव बनाते हुए वह कुछ मिनट बालक को देता है। उसे दिखेगा वह दृश्य जब वह ऑफिस कार्य के नोट्स बना रहा है। बालक खेलता हुआ आता है, स्याही की दवात गिर जाती है सारे नोट्स खराब हो जाते हैं। बच्चे को डांट पड़ती है। बच्चा रोने लगता है। पिता सब कार्य छोड़ बच्चे केा चुप कराने लगता है। गलती बच्चे की थी पर पिता ैवततल कह रहा है। दुबारा से सारे नोट्स बना रहा है। उसे दिखेगा वह दृश्य जब वह सहयोगियों के साथ गम्भीर चर्चा में निमग्न है। मना करने पर भी बालक बार-बार उस कमरे में आ जाता है। बार-बार का व्यवधान भी उसे उŸोजित नहीं करता। उसे दिखेगा वह दृश्य जब छत पर वह पुत्र को बताता है कि वह मुंडेर पर जो पक्षी बैठा है उसे कौआ कहते हैं। बालक बार-बार पूछता है पिता खुश होकर बार-बार बताता है । झल्लाता नहीं।
बस ऐसा ही संयम, प्यार, उल्लास, सम्मान, आत्मीयता से भरा व्यवहार पितरों की आत्मा को तृप्त करता है। यही उनकी अपेक्षा है। वे वय बढ़ने के साथ कुछ-कुछ बालक-सदृश होते चले जाते हैं, इस मनःस्थिति को ध्यान में रखना होगा।
यहाँ प्रख्यात उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द लिखित किशोरावस्था में पठित एक कहानी ‘बूढ़ी काकी’ का स्मरण हो रहा है। इसकी प्रथम पंक्ति में मुंशी जी ने वृद्धावस्था का पूरा मनोविज्ञान समाहित कर दिया है।
‘बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है।’ घर में समारोह है। काकी को कमरे में बन्द रहने के सख्त निर्देश हैं। पल-पल काकी क्या सोचती है? अब कचौरी तल रही होंगी, कड़ाई में से कैसी छन छन कर रही होंगी आदि वृद्धावस्था की अभिलाषा को व्यक्त करने में समर्थ है। कोई ‘बूढ़ी काकी’ कोठरी में बन्द न हो यह आदर्श स्थापित करना होगा। हर समारोह में, हर पल में, वे आपके संग हों। उपेक्षा वृद्धों को सह्य नहीं।
आप कभी दो घड़ी उनके पास बैठ सुख-दुख की बात करें अपनी उलझनें भी बताएँ, चाहे वे न भी समझें। तब देखें कि वे स्वयं को अभी भी मूल्यवान समझेंगे, ड्राइंग रूम में रखा शो पीस नहीं। इस मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है।
काश! हर बालक नन्हे हामिद के संस्कार लेकर बड़ा हो। माता ने कष्टपूर्वक कुछ ‘आने’ (रुपये का भाग) उसे इसलिए दिए कि वह मेले में जाकर अपने लिए चिरअभिलषित खिलौना ले आवे। पर हामिद लेकर आता है लोहे का चिमटा ताकि माँ की अंगुलियाँ रोटी बनाते समय जले नहीं। यही विशुद्ध भारतीयता है,जिसे हमें जीवित रखना है।
वेद में कहा है:-
यदापिपेष मातरं पुत्रः प्रमुदितो धयन्।
एतत्तदग्ने अनृणो भवाम्यहतौ पितरौ मया।
सम्पृच स्थ सं मा भद्रेण पृड्.क्त।
विपृच स्थ वि मा पाप्मना पृड्.क्त। यजु. 19.11
जैसा माता-पिता पुत्र को पालते हैं, वैसे पुत्र को माता-पिता की सेवा करनी चाहिए। सबको इस बात पर ध्यान देना चाहिए, कि हम माता-पिता की सेवा करके पितृऋण से मुक्त होवें। जैसे विद्वान् धार्मिक माता-पिता अपने सन्तानों को पापाचरण से हटाकर धर्माचरण में लगावें, वैसे सन्तान भी अपने माता-पिता के प्रति ऐसा वर्ताव करें।।
– अशोक आर्य
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