देषद्रोहियों पर चर्चा क्यों?
कहा जाता है कि देश की न्यायपालिका का एक उसूल है कि चाहे दस दोषी छूट जाएँ परन्तु एक भी निर्दाष को दण्ड नहीं
मिलना चाहिए। इसीलिए एक आरोपी को अनेक अवसर मिलते हैं। ट्रायल कोर्ट से उच्चतम न्यायालय के सफर के पश्चात् भी
राष्ट्र के मुखिया के समक्ष अपनी बात कहने का एक अवसर दिया जाता है, जिसे दया याचिका कहा जाता है। मन में एक प्रश्न
उभरता है कि सम्पूर्ण कानूनी प्रक्रिया में जब असंदिग्ध रूप से दोष सिद्ध हो जाता है तब फिर दया याचिका क्यों? दया याचिका
के संदर्भ में तब और आशंका उत्पन्न हो जाती है जब पिछले वर्षां में दशाधिक दुर्दान्त क्रूर अपराधियों को क्षमा मिल गई हो।
हाँ, निश्चित रूप से माननीय प्रणव मुखर्जी साधुवाद के पात्र हैं जिन्होंने वर्षां से लंबित दया याचिकाओं पर कठोर निर्णय लेकर
दुर्दान्त आतंकवादी व देशद्रोहियों को उनके अंजाम तक पहुँचाया है। इन दिनों एक चुटकुला प्रचारित हो रहा है-
‘न्सजपउंजपसल च्ण्डण् पे पद ंबजपवद साथ ही उसका विश्लेषण भी दिया जा रहा है- च्ण्डण् कवमे दवज उमंद च्तपउम
डपदपेजमत इनज पज पे च्त्।छ।ठ डन्ज्ञभ्म्त्श्रम्म्श् खैर हम आशा करते हैं कि माननीय राष्ट्रपति की यह दृढ़नीति
अन्य अपराधियों को भी यथायोग्य दण्ड का रास्ता दिखायेगी। दया याचिका के औचित्य पर हमारा विचार यह है कि अनेक
ऐसे काण्ड होते हैं जब अभियुक्त दोषसिद्ध तो है पर उसका कार्य मानवता के व्यापक हित में हो और टपबजपउ वास्तव में
मनुष्य या समाज के लिए खतरा हो। कई वर्षां पूर्व एक फिल्म आयी थी। आक्रोश । उसमें बताया कि किस प्रकार चार
प्रभावशाली लोग एक लड़की का बलात्कार करते हैं और कानूनी प्रक्रिया में सुरंगें बना निर्दोषसिद्ध हो जाते हैं तब चार
नवयुवक इन नर पिशाचों को उनके सही अंजाम तक पहुँचाते हैं। कानून अपना कार्य करता है। योजनाबद्ध तरीके से की गई
हत्याओं की, चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी रहा हो, कानून इजाजत नहीं दे सकता। चारों युवकों को मृत्युदण्ड दिया जाता है।
हमारा विचार है कि यहांँ दया याचिका की भूमिका हो सकती है। इसकी चर्चा भी हो सकती है, जनमत का पक्ष-विपक्ष भी हो
सकता है। परन्तु देशद्रोहियों पर चर्चा क्यों? उन पर चर्चा नहीं उनके अंजाम पर इस प्रकार की चर्चा होनी चाहिए कि भविष्य
में अन्यों
को सबक मिले कि जो हमारे राष्ट्र की संप्रभुता पर हमला करेगा उस राष्ट्रद्रोही का अंजाम इससे भी बुरा होगा। अफजल गुरु
उस योजना का सूत्रधार था जिसमें देश की संसद पर हमला किया गया था। हमारे विचार में यह कुछ सुरक्षा प्रहरियों तथा कुछ
सांसदों को मारने का प्रयास नहीं था वरन् आतंकवादियों के उस विचार तथा हौंसले का परिचायक था कि उनकी जद में कुछ
भी सुरक्षित नहीं है। संसद पर हमला राष्ट्र की संप्रभुता पर हमला था। संसद राष्ट्र की अस्मिता है, उसे जब चाहे हम तार तार
कर सकते हैं, यह अफजल गुरु और उसके साथियों का संदेश था।
‘गुरु’ के परिवार को उसकी कब्र पर दुआ करने देना या न देना, मामले की संवेदनशीलता तथा मानवीय भावनाओं के बीच में
झूलता चर्चा का विषय हो सकता है परन्तु जिस ब्वदअपबजपवद तथा ैमदजमदबम पर ट्रायल कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक एकमत
रहा हो, म्गमनमजपवद के पश्चात् मीडिया पर उसकी ट्रायल हो वह भी इस कारण से कि दोषी कश्मीरी मुसलमान था, जैसाकि
एक मानवाधिकार नेत्री ने कहा, यह हमें हैरान कर देने वाली बात थी। एक टीवी चैनल पर एक माननीय पैनल के द्वारा जो
चर्चा हो रही थी वह चकित कर देने वाली थी। उस पैनल में वे जस्टिस ढींगरा भी शामिल थे जिन्होंने अफजल गुरु को फाँसी
की सजा दी थी। चर्चा में अदालती कार्यवाही थ्ंपत न होने की शिकायत मानवाधिकार नेत्री कर रही थीं, जस्टिस धींगरा
जवाब दे रहे थे। चैनल पर बहस तो सीमित समय में पूरी हो नहीं सकती परन्तु यह खतरनाक अधूरी बहस कुछ लोगों के
दिमाग में यह शंका पैदा कर सकती है,
कि कहीं गुरु के साथ अन्याय तो नहीं हुआ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ठीक है परन्तु उसकी आड़ में उक्त प्रकार के कार्यक्रम
निश्चित ही खतरनाक हैं।
अफजल गुरु को अपने को निर्दोष साबित करने के कितने ही अवसर मिले। संक्षेप में देखें। 18 दिसम्बर 2002 को ट्रायल
कोर्ट में अफजल गुरु, शौकत हुसैन तथा गिलानी तीन लोगों को दोष सिद्ध पाया तथा फाँसी की सजा दी गई। शौकत हुसैन की
पत्नी अफसाँ गुरु को छोड़ दिया गया ।
हाइकोर्ट में अपील करने पर माननीय उच्च न्यायालय ने अफजल गुरु को मृत्युदण्ड दिए जाने की सजा बहाल रखी पर
देषद्रोहियों पर चर्चा क्यों?
गिलानी को दोषमुक्त कर दिया। पश्चात् माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी अफजल गुरु की फाँसी की सजा बहाल रखी।
अफजल ने पुनः रिव्यू पिटीशन दाखिल की। ‘रिव्यू याचिका’ भी रद्द कर दी। और अब माननीय राष्ट्रपति द्वारा अफजल की
पत्नी तबस्सुम की दया याचिका खारिज की गई, फलस्वरूप दुर्दान्त आतंकवादी, देशद्राही अपने सही अंजाम तक पहुँचा।
आपकी पूरी बात सुनकर सभी स्तरों पर आपको दोषी पाया गया तब भी फाँसी के पश्चात् मीडिया के किसी चैनल पर
मानवाधिकार नेत्री द्वारा यह प्रस्तुति देने का प्रयास किया जाता है कि अफजल गुरु के साथ न्याय नहीं हुआ। उसकी ट्रायल
थ्ंपत नहीं थी और एक पुस्तक में से कुछ पढ़कर प्रस्तुत करना कि अमुक अमुक गवाह का प्रति परीक्षण नहीं किया गया और
फाँसी की सजा देने वाले माननीय न्यायाधीश धींगरा से उŸार देने का अनुरोध करना एक ऐसा हतप्रभ कर देने वाला नजारा
था जो कम से कम हमने पूर्व में नहीं देखा। मीडिया अगर इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत रख जायज मानता है तो
फिर अफजल गुरु ही क्यों सभी दुर्दान्त अपराधियों को सजा दिए जाने के पश्चात् उसकी ‘पब्लिक ट्रायल’ कीजिए। यह प्रक्रिया
हमें कहाँ ले जायेगी, इसके दुष्परिणाम क्या होंगे? ज्युडिशियरी के निर्णयों के प्रति प्रत्येक मामले में आशंका और संदेह के
बीज आम जनता के मन में डाल देने के गंभीर
परिणम होंगे। फिर दामिनी केस में भी अगर दुष्कर्मियों को सजा मिले तो क्या संबंधित न्यायाधीश को ‘पब्लिक ट्रायल’ के लिए
तैयार रहना होगा? और अगर अफजल गुरु के केस विशेष को चुना गया है तो क्या केवल इसीलिए कि वह एक कश्मीरी
मुसलमान है जैसाकि चर्चा के दौरान मानवाधिकार नेत्री के मुँह से निकल ही गया था।
स्मरण रखें अफजल हत्या का षड्यंत्र करने वाला मामूली अपराधी नहीं था। उसने देश की अस्मिता पर आक्रमण किया था।
हमारा विचार है आक्रमणकारियों का उद्देश्य संसद पर हमला कर कुछ विशिष्ठ लोगों की हत्या करना कदापि नहीं था वरन्
आम भारतीय को यह संदेश देना था कि तुम्हारे देश की संसद भी हमारे निशाने से नहीं बच सकती और इस प्रकार आमजन
के मन में देश की कानून व्यवस्था के प्रति अविश्वास पैदा कर एक भयानक स्थिति को जन्म देना था।
ऐसे दुर्दान्त अराधी के संदर्भ में आश्चर्यजनक पब्लिक ट्रायल का आयोजन करना कदापि उचित नहीं। क्या मानवाधिकार के
स्वयंभू नेताओं को इनके क्रूर कारनामों के शिकार, उनके परिवारीजन याद नहीं आते? उनका क्या कसूर था? इसलिए
देशद्राहियों के बारे में चर्चा हो तो उनके दुष्कृत्यों की हो, उनके अंजाम की हो। और इस प्रकार से हो कि फिर कोई अफजल
गुरु के रास्ते पर चलने की सोचे भी नह