Every day is mother’s day
एक कथा का स्मरण हो रहा है। दो औरतों में एक बच्चे के मातृत्व को लेकर झगड़ा चल रहा था। दोनों ही एक द्विवर्षीय सुन्दर बालक
को लेकर झगड़ रहीं थीं। दोनों का कथन था कि वह ही उसकी माँ है। मामला राजा के दरबार में पहुँचा। राजा ने अनेक प्रकार के
प्रश्न पूछे व अन्य प्रकार से परीक्षा ली। पर वे भी किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाये। अन्त में उन्हें एक उपाय सूझा। उन्होंने आदेश
दिया कि बच्चे को दो बराबर भागों में बांँटकर एक-एक भाग दोनों औरतों को दे दिया जाय। दरबार में सन्नाटा छा गया। दोनों औरतें
भी स्तब्ध। राजा के आदेश का निहितार्थ जब सबकी समझ में आया तो फरियादी महिलाओं में एक महिला चीख पड़ी। रोते हुए राजा
से बोली- ‘महाराज! यह बच्चा इसी सामने खड़ी महिला का है इसको ही दे दें। परन्तु कृपया बालक के दो टुकड़े न करवायें।’ राजा ने
तुरन्त बेहिचक निर्णय दिया कि बालक की माता वही है जो बालक का त्याग करने हेतु समुपस्थित है। क्योंकि माँ अपनी सबसे बड़ी
पूँजी भी न्यौछावर कर देगी परन्तु बच्चे को खरोंच भी नहीं आने देगी। इस माँ की सबसे बड़ी दौलत इसके जिगर का टुकड़ा वह
बालक है। माँ इसका बिछोह तो दिल पर पत्थर रखकर सह लेगी पर बच्चे का वध नहीं।
वस्तुतः माँ की ममता को परिभाषित नहीं किया जा सकता। उसकी गहराई किसी साधन से नहीं मापी जा सकती। माँ के आँचल की
छाँव में असीम शक्ति है। उसका प्यार अमूल्य है। गीतकार ने सही ही लिखा-
‘भगवान के पास भी माता, तेरे प्यार का मोल नहीं।’
ममता का सम्बन्ध सामर्थ्य से कतई नहीं है। दुनिया की प्रत्येक माँ कुछ करने का निश्चय करने से पूर्व यह सोचती भी नहीं है कि उसके
पास वैसा करने की सामर्थ्य भी है वा नहीं। बच्चा भूख से तड़प रहा है माँ की छातियाँ सूखी हैं। अपनी बेबसी व बालक की यन्त्रणा के
बीच फँसी माँ की छटपटाहट को कोई करीब से देखे तो निश्चय ही वह कवि का समर्थन करेगा-
माँ एक नाम है, त्याग और समर्पण का,
माँ प्रतिरूप है, साफ, उजले दर्पण का।
माँ का प्यार अपार है। उसकी आँखों से देखें तो उसका बच्चा संसार का सबसे सुन्दर बच्चा है। एक बालक भीड़ के बीच रो रहा था।
आपने प्रायः देखा होगा कि सुन्दर व सुविभूषित बच्चे को सभी प्यार की नजर से देख लेते हैं। पर यह बालक सुन्दर तो क्या कुरूप की
श्रेणी में आता था। मैले कुचैले कपड़े थे। रो रहा था। माँ से विछुड़ गया था। लोग उसकी ओर देखते थे और उपेक्षा भाव दिखाकर चल
देते थे। तभी उसकी माँ उसे ढूढती आयी। लपक कर बच्चे को उठा सीने से लगा लिया। बार-बार बच्चे के चेहरे को चूमकर उसे
अपने साथ ले गयी। यह आत्मा से आत्मा का मिलन था। चमडी के रंग रूप का कोई काम न था। माँ की ममता ऐसी ही होती है।
उसकी नजर में उसकी सन्तान ही सर्वश्रेष्ठ होती है।
माँ के प्यार को भौगोलिक सीमा में नहीं बाँंधा जा सकता। जातियों या मजहबों की बेड़ियों में नहीं जकड़ा जा सकता और न गरीबी
अमीरी के विभेद में। संभवतः यह एक मात्र भाव है जो सदा सर्वत्र हर मजहब, हर देश-प्रदेश की माँ में समान रूप से पाया जाता है।
मैं यह भी कहने को तैयार हूँ कि माँ का यह प्यार जाति के सीमा बन्धन में भी नहीं है। वेद भगवान ने ममता के संदर्भ में गाय और
सद्यःजात बछड़े का उदाहरण दिया है।
मानवेतर योनियों में भी मातृत्व का यह भाव पाया जाता है। जलचर, नभचर, थलचर सभी जातियों की माताओं में बच्चे के लालन
पालन तथा उसकी सुरक्षा का भाव प्रबलता से पाया जाता है। बन्दरी की ममता तो यहाँ तक प्रसिद्ध है कि वह मरे हुए अपने बच्चे को
सीने से चिपकाकर घूमती रहती है।
महर्षि दयानन्द जी महाराज का सत्यार्थप्रकाश में यह कथन- ‘जैसे माता सन्तानों पर प्रेम, उनका हित करना चाहती है, उतना अन्य
कोई नहीं कर सकता।’ मनुष्य जाति पर तो लागू होता ही है परन्तु उसे प्रत्येक जाति की माँ के सन्दर्भ में देखा जा सकता है।
मातृ दिवस पर ही यह कहा जाय ऐसा नहीं,- यह सार्वभौम सत्य है कि माँ का कोई सानी नहीं। माँ की सम्मोहिनी मूर्ति को लक्ष कर
बिली सण्डे ने ठीक लिखा था- ‘कला की दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है जैसाकि उन लोरियों में होता था जो माँऐं गाती थीं। माँ का
प्यार और मातृत्व का भाव अनुपमेय है’ यह इस तथ्य से घोषित होता है कि आज की अत्याधुनिक फैशन परस्त नारी भी मातत्व से
वंचित नहीं रहना चाहती चाहे इस क्रम में उसे अपनी सुन्दर काया में असुन्दर परिवर्तन सहने पड़ते हों।
एक प्रेरक प्रसंग स्वामी विवेकानन्द जी की जीवनी में आता है। एक जिज्ञासु ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि माँ की महिमा का इतना
गुणगान क्यों किया जाता है? स्वामी जी ने कहा कि इस बात का उत्तर मैं तुम्हें कल दूँगा। अभी तो तुम एक 5 सेर का पत्थर लेकर
आओ। जब वह पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने उसे व्यक्ति के पेट पर बँधवा दिया तथा हिदायत दी कि कल तक इसे एक क्षण के
म्अमतल कंल पे उवजीमतष्े कंल
लिए भी मत खोलना तथा मेरे पास चले आना।
प्रथम तो उस व्यक्ति ने इसे साधारण सा कार्य माना पर शाम होते-होते वह परेशान हो गया। चलना फिरना असह्य हो गया। वह शाम
को ही स्वामी जी के पास पहुँच गया, बोला- ‘मैं इस पत्थर को अब और अधिक देर तक नहीं बाँध सकता। एक प्रश्न का उत्तर पाने
के लिए इतनी बड़ी सजा नहीं भुगत सकता।
स्वामी जी मुस्कराते हुए बोले- ‘पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भी नहीं उठाया गया और माँ अपने गर्भ में पलने वाले
शिशु को पूरे नौ माह तक ढोती है और घर-बाहर का सारा काम भी करती है। संसार में माँ के सिवा कोई इतना धैर्यवान और
सहनशील नहीं है इसलिए माँ से बढ़कर इस संसार में कोई और नहीं।
महाभारत में भी यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में माँ को धरती से भी भारी इसी कारण बताया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि माँ की
महिमा-गायन में हर लेखनी असमर्थ है। मातृत्व दिवस मनाना तो ठीक है पर क्या इस एक दिन को मनाकर माँ के प्रति हमारे कर्तव्यों
की इतिश्री हो जायेगी? हमें आत्मावलोकन करना होगा कि हमारे घर में बुजुर्ग माँ की स्थिति मुंशी प्रेमचन्द की बूढ़ी काकी जैसी कदापि
न हो जाये। जिस घर में माँ का दिल तनिक सा भी दुःखे उस घर के सभी वासियों के पुण्यों का क्षय हो जाता है यह सुनिश्चित है।
माँ बाप की दुआ, जिन्दगी बना देगी, खुद रोएगी मगर आपको हँसी देगी,
भूलकर भी माँ को न रुलाना, एक छोटी सी बूँद पूरी जमीं को हिला देगी।
अतः माँ की सेवा सुश्रुषा करे वह भी लोक लाज के कारण नहीं वरन् उसके उपकारों का स्मरण करते हुए श्रद्धा व प्रेम से। महर्षि
दयानन्द ने उचित ही निर्देश दिया-‘अपने माता-पिता और आचार्य की तन-मन-धनादि उत्तम उत्तम पदार्थां से प्रीतिपूर्वक सेवा करे।’
यह ‘प्रीतिपूर्वक’ विशेष है। मातृसेवा में श्रद्धा व स्निग्धता आवश्यक है।
आज हमें यह भी विचार करना होगा कि हमारे पारिवारिक परिवेश में संस्कारों का ऐसा प्रवाह हो रहा है या नहीं कि ‘हामिद’ की
भावना हर बच्चे में दृढ़ता से स्थापित हो कि भोजन बनाते समय माँ के हाथ जलते देख नन्हा सा बालक भी अपने खिलौने के पैसे से
खिलौने न लाकर चिमटा खरीद लाये। कहीं परिवार के सदस्य चलचित्र ‘बागबान’ में दिखाए स्वभाव के तो नहीं हो रहे जहाँ मात्र
चश्मा टूटने पर बुजुर्गवार के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगती हैं?
इन प्रश्नों का सकारात्मक हल खोजें तभी मातृ दिवस मनाने की सफलता है।
इसलिए कवि द्वारा व्यक्त भावना पर विचार करें –
माँ ने जिन पर कर दिया, जीवन को आहूत, कितनी माँ के भाग में, आए श्रवण सपूत।
आए श्रवण सपूत, भरे क्यों वृद्धाश्रम हैं, एक दिवस माँ को अर्पित क्या यही धरम है?
माँ से ज्यादा क्या दे डाला है दुनिया ने, इसी दिवस के लिए तुझे क्या पाला माँ ने?
इसलिए लेखनी को विश्राम देते हुए यही कहूँगा-
।सूंले तमउमउइमत .
छवज वदसल वदम कंल पद ं लमंत पे उवजीमतश्े कंल इनज मअमतल कंल पे उवजीमतश्े कंलण्