ये उत्थान है या पतन हो रहा ह
अनेक लोग इस शीर्षक को ही बेमानी मानेंगे। सर्वत्र उत्थान ही तो नजर आ रहा है। मंगल ग्रह पर दुनिया बसाने की स्थिति आने
वाली है तो उनका यही कथन होगा कि ऐसी स्थिति में पतन की बात करना ही बेमानी है। तकनीक ने अकल्पनीय ऊँचाई मानव
जीवन को दी है। परन्तु हमारा कहना है कि मानवीय मूल्यों का ऐसा भीषण पतन इस काल में हुआ है कि रावण और कंस तो
सज्जन प्रतीत हो रहे हैं। इस यात्रा की आधार रेखा है- शीघ्रातिशीघ्र धन, दौलत सत्ता प्राप्त करो और फिर इसके बलबूते पर
नैतिक-अनैतिक इच्छाओं की पूर्ति करो। क्या धर्मगुरु, क्या राजनेता, क्या मीडिया के पहरुए, क्या उच्चतम पदों पर आसीन
न्यायाधीश, क्या शिक्षक, क्या धन्नासेठ कोई भी तो नही बचा है। सत्ता का उपयोग कर वासना-पूर्ति का खेल सर्वाधिक दृष्टिगत् हो
रहा है। हालात का विश्लेषण कर एक बात और समझ में आती है कि अधिकांश मामलों में शिकारी और शिकार दोनों ही
अपना-अपना हित साध रहे थे। शिकारी लालच के जाल में शिकार को फाँस रहा था तो शिकार भी हालात से अनभिज्ञ नहीं था।
उदाहरण के तौर पर लम्बी फेहरिस्त में से तीन-चार प्रकरण लेते हैं। राजस्थान में एक ए.एन.एम. भँवरी देवी के सम्बन्ध राज्य
के बड़े ही प्रभावशाली नेता से थे। राजनेता की कामवासना तृप्त हो रही थी तो क्या भँवरी स्थिति का लाभ नहीं ले रही थी?
बिल्कुल ले रही थी। इसीलिए समय पर काम आवे इस हेतु सी.डी. बना रखी थी ताकि नेता को ब्लैकमेल कर सके। नर्स की अति
महत्वाकांक्षा और संभवतः ऊबने के कारण नेताजी दूरी बनाने लगे। सी.डी. उजागर करने की धमकी-परिणामतः हत्या।
त्ण्ज्ण्प्ण् ।बजपअपेज शहला मसूद हत्याकाण्ड त्रिकोणीय सम्बन्धों का गोरखधन्धा। अत्यन्त ताकतवर नेता का पुत्र। शहला
मसूद से अन्तरंगतम सम्बन्ध। स्वेच्छापूर्वक सब कुछ ठीक ठाक। महत्वाकांक्षा तथा पुरुष पर एकाधिकार की चेष्टा। हसद, जलन
नतीजा- हत्या। वही सब कुछ। वैसा का वैसा। क्या शहला को पता नहीं था कि जिससे वह सम्बन्ध बना रही है वह पूर्व से ही
विवाहित था, उसके सम्बन्ध जाहिदा नामक अन्य महिला से भी थे। विशेष बात यह है कि जाहिदा भी भोपाल के अतीव धनाढ्य
बोहरा परिवार की बहू थी। यही शहला एक अन्य नेता से भी सम्बन्ध बनाए हुए थी। यह ध्यान रखें कि नेताजी ने शहला तथा
जाहिदा दोनों को अपने पद का लाभ लेते हुए व्यावसायिक अनुबन्ध दिए थे। तो क्या सत्ता से नजदीकी बढ़ा धन-दौलत सत्ता प्राप्त
करना शहला के मानस में नहीं रहा?
गीतिका आत्महत्या कांड हरयाणा का एक मंत्री- गोपाल कांडा। सामन्तों जैसा जीवन। सब कुछ खरीद लेने का दम्भ। खुलासे
के अनुसार अनेक महिलाओं पर तथाकथित उपकार। गीतिका भी उनमें से एक। 21-22 वर्ष की गीतिका ने क्या यह कभी नहीं
विचारा कि एक बड़ी कम्पनी की निदेशक बनने हेतु वही क्यों? क्या थी योग्यता व मानदण्ड। स्पष्ट है दोनों पक्ष अपना हित साध
रहे थे। देना भी था लेना भी था। फिर वही कहानी। एकाधिकार की चाहत। हमेशा महिला के ही हिस्से में आने वाली वेदना।
आत्महत्या की कोशिश से मामले का खुलासा। मध्यमवर्गीय परिवेश में गीतिका को मिली सहानुभूति के स्थान पर प्रताड़ना। नतीजा
गम्भीर-आत्महत्या। यही कहानी चाँद-फिजा के किस्से में फिजा की। आसाराम पर काफी लिखा। बेटा दो कदम
आगे-रासलीलाओं का आयोजन-समूहबद्ध काम। क्या यह सब जोर जबर्दस्ती से सम्भव है? कदापि नहीं। सबकी अपनी-अपनी
अभिलाषाएँ। सभंव है कुछ शिकार इन धूर्तों द्वारा बहकाने पर मोक्षाभिलाषी हों और कुछ धन की।
उपरोक्त स्थितियों में मानसिक व शारीरिक शोषण पीड़िता का ही होता है। पर ये घटनाएँ पुरुष व स्त्री दोनों को ही संदेश देती हैं
और वह संदेश है- मर्यादा पालन का। आज नहीं तो कल ऐसे कृत्यों का खुलासा होता ही है और परिणाम यही होता है।
तरुण तेजपाल का प्रकरण एक और चिन्ता पैदा कर रहा है। तरुण की पहचान एक निर्भीक और ईमानदार मीडियाकर्मी की थी।
उसने स्टिंग ऑपरेशन कर-करके ताकतवर लोगों के सिरदर्द पैदा कर दिया था और आमजनों की नजर में खुद के लिए एक ऊँचा
स्थान। पर वे उतना ही नीचे गिरे हैं। अपने मित्र की बेटी, पुत्री की सहेली, खुद को डमदजवत मानने वाली शिष्या-किसी सम्बन्ध
का ख्याल न किया। वस्तुतः सत्ता, अंहकार और लालसा का सम्मिश्रण फिसलन भरी पट्टी बनता ही है। अतीव खतरनाक है यह
काकटेल। यह भी आशंका है कि इसी सत्ता, जो उसकी लालसा पूरी कर सके, को पाने हेतु तरुण ने अपनी तथाकथित ईमानदारी,
स्वच्छ छवि, व स्टिंग करने में की गई मेहनत को निवेश के रूप में प्रयोग किया।
जस्टिस गांगुली द्वारा किया गया कृत्य तो एक भारी चिन्ता पैदा करता है। उम्र और पद के लिहाज से वे जहाँ खड़े हैं वहाँ यह
पतन समाज शास्त्रियों के लिए चुनौती है। इसी क्रम में एक प्रोफेसर द्वारा शिक्षिका के शारीरिक शोषण को देखा जावेगा, क्योंकि ये
आत्म
निवेदन फरवरी 2014
ये उत्थान है या पतन हो रहा है
उस श्रेणी से हैं, जिन पर राष्ट्र-निर्माण का दायित्व है। कबूतर की तरह आँख बन्द करने से कुछ नहीं होगा।
स्वतंत्रता, सहमति, निजता, स्वेच्छा आदि की पश्चिमी व्याख्या तथा स्वयंम्भू समाज-चिन्तकों द्वारा देश को जो दिशा दी जा रही है
उसका यही अंजाम होगा, आप रोक नहीं सकते।
क्या आश्चर्य की बात है कि यह उस यतिवर लक्ष्मण का देश है जो सीता माता के आभूषणों में से कुण्डल, कवच, कंगन इस
कारण नहीं पहचान पाये थे क्योंकि उन्होंने सीता माता को कभी नजर भरकर नहीं देखा था। हाँ ‘नूपुर’ उन्होंने अवश्य पहचान
लिए क्योंकि वे सीता जी के नित्य चरण स्पर्श करते थे। परन्तु आज जब ऐसी बातें की जाती हैं तो उसे पौंगा पण्डित माना जाता
है। प्रगतिशील वह है जो सभी मर्यादाओं को छिन्न-भिन्न करने में विश्वास रखता हो। एक तथाकथित प्रगतिशील पत्रिका
पोर्नोग्राफी के संदर्भ में भारतीय नारी की पीठ थपथपाती है कि पोर्नोग्राफी के आलोक (?) में वह सेक्स को नए नजरिए से समझने
का प्रयास कर रही है। एक प्रसिद्ध पत्रिका जो शायद प्रतिवर्ष भारतीय युवाओं की यौन रुचियों का सर्वेक्षण करने का दावा करती
है उसका निष्कर्ष है कि महानगरों में ही नहीं छोटे शहरों में भी ‘काम’ का सम्राज्य दिनों-दिन उन्नति पर है। पर वे विवाहपूर्व बढ़
रहे सम्बन्धों को भारतीय प्रगति के रूप में विशेषकर नारी की उन्नति के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार नारी मुखर हो रही है,
मुक्त हो रही है। दुर्भाग्य यह है कि एक समाचार के अनुसार चैन्नई के कुछ स्कूलों ने अपने परिसर में ‘कन्डोम बैंडिग मशीन’
लगायी है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर समाज की इस दशा और दिशा को देखकर। किसी समाज के
चरित्र का परिचायक उसके रोल मॉडल होते हैं। आज कौन रोल मॉडल है? जिन्होंने देश को स्वतंत्र कराने में अपने जीवन-पुष्प
न्यौछावर कर दिए आज की पीढ़ी के समक्ष उनका क्या महत्व है? आज के चरित्र नियामकों ने पसन्द ही बदल डाली। आज की
जीवन कसौटियों को मानें तो फिर लक्ष्मीबाई मूर्ख ही थीं। उन्हें जितनी पेंशन अंग्रेज सरकार दे रही थी वे ऐशो आराम के साथ
जीवन व्यतीत कर सकती थीं। प्राणोत्सर्ग की क्या जरूरत थी?
आपको आज के रोल मॉडल्स के बारे में जानना है तो रानी लक्ष्मी बाई व तथाकथित पार्न इण्डस्ट्री से आयी तारिका का नाम ‘फेस
बुक’ पर डालें। लाइक्स की संख्या में अन्तर आपको, हम किस दिशा में जा रहे हैं निर्विवादरूप से बता देगा। अब निश्चय कीजिए
कि उत्थान हो रहा है या पतन। अभी भी समय है अपनी संस्कृति का गला न घोट, राष्ट्र जीवन में स्थान देने का पुरुषार्थ करें,
अन्यथा विनाश तो अवश्यम्भावी है।