एक ये भी खुदाई हैं
कुछ माह पूर्व उत्तर प्रदेश में एक ऐसी खुदाई हुई जिसको लेकर, जिसमें जरा सी बुद्धि शेष थी, हर ऐसे भारतीय का सिर शर्म
से झुक गया। इस घटना पर हम तभी लिखना चाहते थे, पर यह हो न सका। अभी फिर कुछ दिन पूर्व एक ऐतिहासिक खुदाई
हुई जिसने भारत माँ की अस्मिता की सुरक्षा हेतु न्यौछावर होने वाले जियाले सपूतों का रक्तरंजित इतिहास हमारे सामने
उपस्थित कर दिया, पर जिसकी विशेष चर्चा भी नहीं हुई। अब दो खुदाईयाँ हमारे सामने थीं- एक हमारी मूखर्ता,
अन्धविश्वास की पराकाष्ठा की प्रतीक, तो दूसरी भारतीयों के त्याग और बलिदान की।
थोड़ी-सी चर्चा मूखर्ता की भी हो जाय। एक बाबा हैं शोभन सरकार। उनके बारे में जितने मुँह उतनी बातें। एक दिन उनको
स्वप्न दिखा कि डोंडियाखेड़ा, उन्नाव, उत्तर प्रदेश के किले के नीचे 1000 टन सोना दबा है। उन्होंने भारत सरकार के
चिट्ठी लिखी कि इस खजाने को खोजा जावे। उन्होंने यहाँ तक दावा किया कि अगर उनकी बात सच न निकले तो वे जुर्माना
भरने को तैयार हें। वस्तुतः इस खजाने के 1857 की क्रान्ति में शहीद हुए राव रामबक्श सिंह का खजाना बताया गया। उधर
इतिहासविदों का कहना था कि रामबक्श इतने अमीर थे ही नहीं। खैर! यह सब भारत के लिए कुछ नया नहीं है। पर आश्चर्य
तब हुआ कि भारत सरकार मूर्खता के इस खेल में शामिल हो गई। केन्द्रीय मंत्री श्री चरणदास महन्त के निर्देशन पर भारतीय
पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने बाकायदा तैयारी कर ली। राष्ट्रीय चैनलों पर यह खुदाई उन दिनों एक प्रमुख खबर बन गई।
‘पीपली लाइव’ की तरह वहाँ मेला लग गया। दुकानें सज गईं। तकनीकी विकास के इस युग में सारी दुनिया इस मूर्खता को
देख रही थी। एक राष्ट्रीय सरकार 21वीं सदी में, सपने में देखे खजाने को निकालने जा रही थी। प्रारम्भ में कुछ नेताओं, यहाँ
तक कि श्री मोदी जी, सिंघल जी ने भी इस कार्यवाही की निन्दा की पर बाद में वे भी चुप हो गए। शायद उन्हें इस
अन्धविश्वास का विरोध धर्म का विरोध लगा होगा।
आखिर खुदाई शुरू हुई। उन्नाव के डी.एम. विजयकरण आनन्द और एस.पी श्रीमती सोनिया सिंह ने खुदाई के लिए पहला
फावड़ा चलाया। परन्तु इस फावड़े की फाल कभी भी तथाकथित खजाने से नहीं टकराई। इस तरह यह तलाश खत्म हुई। हाँ
कैमरों में यह तमाशा सदैव के लिए कैद हो गया। एक बात और मजेदार हुई। एक कहावत है कि ‘पंगत बिछी नहीं, मंगते आ
गए’ खजाना तो जब निकलना था तब निकलना था पर उस पर लोगों की दावेदारी प्रारम्भ हो गई। ऐसा लग रहा था कि
खजाना सामने था और लोग अपना हिस्सा माँग रहे हैं। ये बाबा अब एक और जगह खजाना बता रहे हैं (रीवाँ नरेश के किले
में शिव चबूतरे के पास) जहाँ 2500 टन सोना गढ़ा है। पर अब भारत सरकार की पुनः जग हँसाई की हिम्मत नहीं हुई।
जिस खुदाई से उक्त खुदाई का हमें स्मरण हुआ उसका वर्णन अब करते हैं जिसने 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की
रक्तरंजित गाथा, ब्रिटिश हुकूमत की क्रूरता तथा अतीत के जलियावालाँ बाग को हमारे सामने उपस्थित कर दिया। अतीत के
पन्नों को पलटें तो इस क्रूर घटना के बारे में स्वयं अपनी पीठ थपथपाते हुए क्रूर जल्लाद फ्रेडरिक हेनरी कूपर ने इस भयानक
नरसंहार का वर्णन अपनी किताब श्ज्ीम ब्तपेपे पद जीम चनदरंइ तिवउ डंल 10 नदजपस जीम िंसस वि क्मसीपश् में किया है।
1883 और 1947 के बीच में प्रकाशित अमृतसर जिला गजट में भी ‘कालियावाला खूँ’ का वर्णन बताया जाता है। इस
बीभत्स नरसंहार की निन्दा 1859 में ब्रिटेन के ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में चार्ल्स गिपलिन ने भी की थी। परन्तु ब्रिटिश सरकार
द्वारा अधिकृत खेद प्रकाशित नहीं किया गया। इतिहासकार सुरिन्दर कोचर ने कालियावाला खूँ के सच को सामने लाने हेतु
अथक प्रयास किए परन्तु किसी अधिकारी से सहयोग न मिलने पर भी वे निराश नहीं हुए।
इस देश की सरकार और अफसरशाही की असंवेदनशीलता तथा मूर्खता की कल्पना कीजिए, जहाँ एक स्वप्न के आधार पर
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के द्वारा अधिकृत तौर पर खुदाई करवायी गई, वहीं कालियावाला खूँ के रक्तरंजित इतिहास को
उजागर करने वाली खुदाई हेतु प्रार्थना पत्र प्रधानमंत्री से लेकर पुरातत्व विभाग तक की यात्रा करते रहे पर किसी के कान पर
जूँ भी नहीं रेंगी। पंजाब के अजनाला में स्थानीय गुरुद्वारा प्रबन्धन समिति तथा इतिहासकार सुरिन्दर कोचर की प्रेरणा व
प्रयास से 1 मार्च 2014 को कालियावाला खूँ के नाम से प्रसिद्ध एक कुएँ की खुदाई की गई। जिसमें 50 इन्सानी खोपड़ी,
170 जबड़े, 5000 दाँत कुछ स्वर्णाभूषण तथा ब्रिटिश काल के कुछ सिक्के मिले। जो कर्नल जेम्स स्मिथ नील तथा अमृतसर
के तत्कालीन उपायुक्त फ्रेडरिक हेनरी कूपर की क्रूरता का साक्षात् गान कर रहे थे।
इतिहास विशेषज्ञों के अनुसार 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सिपाहियों के द्वारा विद्रोह का परचम फहराया गया तो सभी
भारतीय सिपाहियों पर अंग्रेज सन्देह करने लगे। मियाँमीर स्थित बंगाल नेटिव इन्फेन्टरी की 26वीं बटालियन के शस्त्र भी
रखवा दिए। 30 जुलाई 1857 को प्रकाश पाण्डे की अगुवाई में सैनिकों ने दो ब्रिटिश अफसरों को मार दिया तथा रीवाँ नदी
पार कर अजनाला की ओर जा निकले जहाँ उन्हें कैद कर लिया गया। उनमें से अनेक दम घुटने से मर गए तथा 282 को
हाथ बाँधकर निहत्थों को बेरहमी से मारकर कुएँ में दफन कर दिया। जहाँ अब तक गुमनामी के अन्धेरे में दबे रहे। यहाँ हम
गुरुद्वारा के अधिकारियों की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते जिन्होंने इस ऐतिहासिक कार्य हेतु गुरुद्वारा ैपजि करने की
मंजूरी दी।
सुरिन्दर कोचर के अनुसार सरकार व एएसआई के रुचि न लेने के कारण यह खुदाई वैज्ञानिक तरीके से न होने से कई
महत्वपूर्ण तथ्य नष्ट हो गए। कितना अभागा है यह देश कि सपने के आधार पर सोने की खोज सरकार करती है और हमारे
इलेक्ट्रोनिक चैनल इसका लाइव प्रसारण करते हैं परन्तु हमारे इतिहास के देशभक्ति से ओतप्रोत पन्नों को सामने लाने में न
तो सरकार रुचि लेती है और मीडिया को भी उतनी रुचि नहीं।
अब आशा की जा सकती है कि अजनाला की धरती पर इन देशभक्तों की कुर्बानी की याद में कम से कम स्मारक तो निर्मित
कराया ही जावेगा ताकि यह तो कहा ही जा सके-
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।।