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Satyarth Prakash Nyas / सम्पादकीय  / दस-दस को एक ने मारा

दस-दस को एक ने मारा

15 जून 2020,जब से गलवान घाटी में, चीन के सैनिकों ने धोखे से भारत के सैनिकों पर आक्रमण किया है तब से अनेक बुद्धिजीवी चीन तथा भारत के सैनिकों की संख्या तथा शस्त्र-अस्त्रों की संख्या का विश्लेषण कर रहे हैं। स्पष्ट है कि जहाँ तक संख्या की बात है चीन निःसंदेह इसमें आगे है। पर युद्ध संख्या से नहीं रणकौशल और साहस से जीता जाता है, जिसमें चीन तो क्या विश्व की कोई भी सेना भारतीय सैनिकों के समक्ष बौनी ही ठहरेगी, इसमें सन्देह नहीं। इतिहास हमारी बात का पुरजोर समर्थन करता है। भारतीय रणबांकुरों ने सदैव अपना शीश हथेली पर रखकर दुश्मनों के दांत खट्टे किये हैं। प्रायः 1962 के चीन युद्ध की बात और उसमें भारत की हार की चर्चा की जाती है। धोखे से हुए इस आक्रमण को पीठ में छुरा भोंकने के अतिरिक्त कुछ नहीं कह सकते। फिर भी इस अप्रत्याशित हमले में अनेक मोर्चों पर चीन का वही हाल हुआ जो 15 जून 2020 को गलवान घाटी में हुआ। कम संख्या में होते हुए भी ‘दस-दस को एक ने मारा’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए भारतीय जवानों ने, अपने से कई गुना चीनी सैनिको उनकी धोखाधड़ी का फल चखाया। इस अवसर मुझे 1962 के युद्ध के अन्तर्गत ही ‘रेजांग ला दर्रा’ के संघर्ष का स्मरण हो रहा है जिसमें शौर्य का अप्रतिम, अद्वितीय प्रदर्शन हमारे जवानों द्वारा किया गया।
रेजांग ला युद्ध उस लड़ाई की गाथा है, जिसके बारे में कई लोगों ने तो ये मानने से भी इनकार कर दिया था कि हमारी सेना ने इतनी बड़ी संख्या में चीनियों को मार गिराया होगा। ये युद्ध नवंबर 18,1962 को हुआ था। 13 कुमाऊँ रेजिमेंट के मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में 123 सैनिकों ने बहादुरी के नए कीर्तिमान स्थापित किये। यहाँ अगर चीनी सफल हो जाते तो लद्दाख शेष भारत से कट जाता। मृत्यु की आँखों में झांकते हुए 13 कुमाऊँ रेजीमेंट की चार्ली प्लाटून के जिन 123 जवानों ने हजारों फिट ऊपर, हाड़ कंपा देने वाली शीत में शौर्य की अद्भुत गाथा लिख दी, वह रोमांचित कर देने वाली है। असम्भव को केवल अदम्य साहस के बलबूते पर किस प्रकार सम्भव बनाया गया, यह उक्त मुठभेड़ में बचे मात्र 6 सैनिकों ने जब बताया तो करोड़ों शीश झुके बिना न रह सके।
समुद्र से 16000 फीट की ऊँचाई पर इस टुकड़ी के पास न तो कवर था और न सपोर्ट के लिए कोई और दस्ता। हड्डी गला देने वाली ठण्ड, शीत लहर और पत्थरों के बीच हमारे जवान उस परिस्थिति में लड़े, जिसके वे उस समय तक आदी नहीं थे। चीनी आक्रमणकारियों की संख्या 5 से 6 हजार के बीच थी। मेजर शैतान सिंह तो मानो प्रलय के अवतार बन गए थे। उन्हें सभी पलटनों में समन्वय बिठाते हुए अपना होश नहीं था। युद्ध में घायल निहाल सिंह ने जब इस अकल्पनीय शौर्य-गाथा का जिक्र किया तो सहसा किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। पर यह सत्य था। विपरीत परिस्थितियाँ व अप्रत्याशित सुनिर्धारित आक्रमण को कैसे भारतीय जवान झेलते हैं इसकी दास्ताँ लद्दाख के रेजांग ला दर्रे पर लिख दी गयी।
अतः संख्या का विशेष महत्त्व नहीं, महत्त्व है साहस का। जिसे ‘रेजांग ला’ पर साबित किया गया।
आपरेशन मेघदूत ाी ऐसा ही एक अभियान था जब भारतीय सेना द्वारा अदम्य साहस का प्रदर्शन किया गया। अबकी बार दुश्मन पाकिस्तान था। वस्तुतः स्वतंत्रता के पश्चात् कश्मीर इलाके पर कबाइलियों ने हमला कर दिया था। महाराजा हरी सिंह जी ने देरी से ही सही जब भारत में विलय का निश्चय किया तो भारतीय सेना मोर्चे पर पहुँची और स्थिति को नियंत्रण में लिया।
भारत-पाकिस्तान की इस पहली लड़ाई पर 1 जनवरी, 1949 को दोनों देशों के बीच सीजफायर हो गया था। न्छ की मौजूदगी में 27 जुलाई 1949 के दिन एक लकीर खींची गयी। सीजफायर लाइन। ये लकीर जिस पाइंट पर खत्म होती थी, उस पाइंट को छश्र9842 का नाम दिया गया। इस पाइंट के उत्तर में काफी बड़ा हिस्सा ग्लेशियरों का था, जहाँ किसी भी देश का दावा नहीं था।
कालान्तर में पाकिस्तान ने सियाचिन पर धीरे-धीरे अपना अधिकार करने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। सर्वप्रथम पर्वतारोहियों को इन चोटियों पर चढ़ने हेतु अपनी ओर से परमिट देना शुरू किया फिर गाइड भेजना भी प्रारम्भ किया। माउंटेनियरिंग के नक्शों में इस हिस्से को पाकिस्तान का दिखाया जाने लगा, ताकि समय आने पर वह कह सके कि यह इलाका उसका है।
सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण इस इलाके को अपना कहने के पाकिस्तान के प्रयास का पता अचानक ही भारत को लगा।
अत्यन्त बर्फीले इलाकों जैसे कि सियाचिन में विशिष्ठ प्रकार के कपड़ों की आवश्यकता होती है। इन कपड़ों को आर्कटिक गेयर कहते हैं। लन्दन की एक कम्पनी इनको बनाती थी। भारतीय खुफिया एजेन्सी त्।ॅ ने जब अपनी आवश्यकताओं हेतु उक्त कम्पनी से सम्पर्क किया तो ज्ञात हुआ कि पाकिस्तान भी उसी कम्पनी से आर्कटिक गेयर खरीद रहा है। त्।ॅसे जब यह बात सम्बन्धित भारतीय अधिकारियों को पता चली तो हडकम्प मच गया कि पाकिस्तान ऐसे वस्त्र क्यों खरीद रहा है? निश्चित ही वह सियाचिन को लेकर कुछ गुप्त कार्यवाही में जुटा हुआ है। एक और घटना घटी। भारत की तरफ से साल्टोरो रेंज पर ø(जम्मू-कष्मीर में स्थित काराकोरम पर्वतमाला की एक उपश्रेणी है। यह काराकोरम के हृदय में सियाचिन हिमानी से दक्षिण पष्चिम में स्थित है)} ट्रेकिंग की इजाजत लेने के लिए पर्वतारोहियों की एक टीम कर्नल बुल्ल कुमार से मिली। कर्नल कुमार भ्पही ।सजपजनकम ॅंतंितम ैबीववस के कमांडिंग आफिसर थे। इन जर्मनों के पास जो नक्शा था, उसमें छश्र9842 से काराकोरम पास तक का हिस्सा पाकिस्तान का बताया गया था। इसमें सियाचिन का हिस्सा भी शामिल था। यह अत्यन्त गम्भीर बात थी। एक योजना बनायी गयी। कर्नल नरेन्द्र बुल्ल कुमार के नेतृत्व में एक दल ‘ला बिलाफोंड’ पहुँचा, तो उनको कुछ जापानी लेबल वाले टिन के डिब्बे मिले। एक समय पाकिस्तानी हैलिकाप्टर की गश्त भी नजर आई। ग्राउण्ड पर कोई पाकिस्तानी हरकत नहीं दिखी। इसके पश्चात् इस इलाके में पेट्रोलिंग की फ्रीक्वेंसी बढ़ा दी गई। पेट्रोलिंग के दौरान भारतीय सेना को एक पर्चा दिखा। पाकिस्तान ने साफ-साफ कहा कि इण्डिया को उसके इलाके में दखल नहीं देना चाहिए। संकेत था कि सियाचिन ग्लेशियर को पाकिस्तान अपनी जमीन मान चुका है। 1982 में लेफ्टिनेंट जनरल छिब्बर नार्दर्न कमांड के जनरल आफिसर कमांडिंग बने। उसी दौरान उनके पास पाकिस्तान का एक प्रोटेस्ट नोट आया था। इण्डिया की तरफ से भी विरोध दर्ज कराया गया। लेकिन पाकिस्तान सियाचिन पर अपना दावा छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। 1983 में इंटेलिजेंस रिपोर्ट आई कि पाकिस्तान सियाचिन में अपनी सेना भेजने की तैयारी कर रहा है। उसने ठनत्रपस थ्वतबमे के नाम से एक टुकड़ी तैयार की थी, जिसे सियाचिन पर कब्जे के लिए ट्रेनिंग दी जा रही थी। अब भारत के पास सिवाय इसके कोई रास्ता नहीं था कि पाकिस्तान से पूर्व ही सियाचिन को अपने अधिकार में ले लिया जाय। पर आवश्यकता थी सेना के लिए विशेष कपड़ों व साजो सामान की। जब यूरोप के एक सप्लायर से बात की तो ज्ञात हुआ कि वह तो पाकिस्तान को 150 की संख्या में देने वाला है अतः हम किसी दूसरी फर्म से सम्पर्क करें। यह हमारे लिए अलार्मिंग स्थिति थी। पाकिस्तान तैयार है यह अब स्पष्ट हो गया था। हमने भी आर्कटिक गेयर शीघ्रातिशीघ्र उपलब्ध करने के प्रयास तेज कर दिए। 13 अप्रैल को वैशाखी थी। पाकिस्तान सोच भी नहीं सकता था कि भारत अपना अभियान इस दिन प्रारम्भ करेगा। पर इन्तजार था विशेष साजोसामान का। 12 अप्रैल का दिन आ गया। अभी तक आर्कटिक गेयर नहीं आ पाए थे। नश्चय किया कि बिना विशेष कपड़ों के ही अभियान प्रारम्भ कर दिया जाय। जब भारतीय जवानों को सारी स्थिति स्पष्ट कर उनका मत पूछा गया तो माँ भारती का प्रत्येक लाल अपने देश के हित सम्पादन के लिए मचल पड़ा। साक्षात् मृत्यु से सामना करने भारतीय पौरुष तैयार था। संयोग देखिये कि तभी उक्त साजो सामान भी आ पहुँचा। ब्रिगेडियर चन्ना की रणनीति थी कि दुश्मन को मौका देने से पहले कार्रवाई कर देनी चाहिए। अप्रैल के महीने में भारी बर्फबारी होती है। उस मौसम का सामना करना आम इंसानों के बस की बात नहीं है। आर्मी ने आॅपरेशन के लिए वही वक्त चुना। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपनी किताब ‘इन दी लाइन आॅफ फायर’ में लिखा, ‘इण्डिया ने हमें हैरान कर दिया था। हमें इस कदम की कतई उम्मीद नहीं थी।’ चार टीमें सियाचिन को अपने कब्जे में लेने के मिशन के लिए तैयार थीं। इन्दिरा काल, सिया ला, बिलाफोंड ला और ग्योंग ला।
13 अप्रैल, 1984 की सुबह 30 जवानों ने ‘बिलाफोंड ला’ को आराम से कब्जे में ले लिया। उसके बाद बर्फबारी और तेज हो गई। दो दिनों के बाद मौसम साफ हुआ। 16 अप्रैल, 1984 को ‘सिया ला’ भारत के कब्जे में था। पाकिस्तान ने जून के महीने में ‘आॅपरेशन अबाबील’ लान्च किया था। दुनिया की सबसे ऊँची बैटलफील्ड में गोलियाँ और मोर्टार दागे गए। पाकिस्तान को बार-बार मुँह की खानी पड़ी। अगस्त आते-आते ‘ग्योंग ला’ पर इण्डियन आर्मी ने तिरंगा फहरा दिया था। अब पूरा सियाचिन कब्जे में था।
दुनिया के सबसे ऊँचे मैदान ए जंग में सीधे टकराव की यह एक तरह से पहली घटना थी। इसे आॅपरेशन मेघदूत नाम दिया गया और इसने भारत की सामरिक रणनीतिक जीत की नींव रखी। सियाचिन की भौगोलिक बनावट ऐसी है कि भारत की तरफ से सियाचिन की खड़ी चढ़ाई है और इसीलिए आॅपरेशन मेघदूतको काफी मुश्किल माना गया था। जबकि पाकिस्तान की तरफ से ये ऊँचाई काफी कम है। उसके बावजूद भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी सैनिकों को मात दी। इसीलिए दुनियाभर की जो सफल लड़ाईयाँ हुईं हैं उनमें आॅपरेशन मेघदूत का नाम भी आता है। ये अपनी तरह का एक अलग ही युद्ध था जिसमें भारतीय सैनिकों ने माइनस 60 से माइनस 70 डिग्री के तापमान में सबसे ऊँची पहाड़ियों पर जाकर फतह हासिल की थी। पाकिस्तान के लिए ये हार काफी शर्मनाक थी।
भारतीय रणबांकुरों का यह अदम्य साहस कि जब बिना विशिष्ठ साजो सामान के दुनिया की कोई सेना युद्ध का साहस नहीं कर सकती भारतीय जवानों ने बिना इनके जाने का दृढ मन बना लिया था। यही अदम्य साहस हमें अजेय बनाता है यह बात चीन को तथा भारत के उन नेताओं को समझ लेनी चाहिए जो सदैव भारतीय सेना के पराक्रम पर सन्देह करते रहते हैं। जून 2020 को गलवान घाटी में निहत्थे ही 50 चीनियों की गर्दनें तोड़कर भारतीय जवानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि ‘जोश इज हाई’ की परम्परा अभी भी जारी है।